4 नवंबर 1974 को बिहार आंदोलन के दौरान हुए एक प्रदर्शन में जेपी पर पुलिस ने लाठियों से जानलेवा प्रहार किया था. उस काले दिन को याद करते हुए हम धर्मवीर भारती की उस दौर में लिखी कविता को आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं..

ख़लक खुदा का, मुलुक बाश्शा का

हुकुम शहर कोतवाल का…

हर ख़ासो–आम को आगह किया जाता है कि

ख़बरदार रहें

और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से

कुंडी चढ़ा कर बंद कर लें

गिरा लें खिड़कियों के परदे

और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें

क्योंकि

एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी

अपनी काँपती कमज़ोर आवाज में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!

बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले अहसान फ़रामोशो!

क्या तुम भूल गये कि

बाश्शा ने एक खूबसूरत महौल दिया है जहाँ

भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नज़र आते हैं

और फूटपाथों पर फ़रिश्तों के पंख रात–भर

तुम पर छाँह किये रहते हैं?

तुम्हें इस बुद्ढे के पीछे दौड़ कर

भला और क्या हासिल होने वाला है?

आखिर क्या दुशमनी है तुम्हारी उन लोगों से

जो भले मानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप

बैठ–बैठे मुल्क की भलाई के लिये

रात–रात जागते हैं

और गाँव की नाली की मरम्मत के लिये

मास्को, न्यूयार्क, टोकिया, लंदन की ख़ाक

छानते फ़कीरों की तरह भटकते रहते हैं।

तोड़ दिये जाएंगे पैर

और फोड़ दी जाएंगी आँखें

अगर तुमने अपने पाँव चल कर

महल–सरा की चहारदीवारी फलाँग कर

अंदर झाँकने की कोशिश की!

नासमझ बच्चों नें पटक दिये पोथियाँ और बस्ते

फैंक दी है खड़िया और स्लेट

इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह

फदर–फरद भागते चले आ रहे हैं।

खबरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है

पर जहाँ हो वहीं रहो

यह बग़ावत नहीं बरदाश्त की जायेगी कि

तुम फासले तय करो और

मंजिल तक पहुँचो।