सबीर हका की पांच कविताएं

ईरानी कवि सबीर हका की कविताएं तड़ित-प्रहार की तरह हैं. सबीर का जन्म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ. अब वह तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मजदूरी करते हैं. उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं और ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं. लेकिन कविता से पेट नहीं भरता. पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है. एक इंटरव्यू में सबीर ने कहा था, ”मैं थका हुआ हूं. बेहद थका हुआ. मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं. मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मजदूरी करती थी, मैं तब से ही एक मजदूर हूं. मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं. उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है.”

(अनुवाद और प्रस्तुति : गीत चतुर्वेदी)


शहतूत

क्या आपने कभी शहतूत देखा है,

जहां गिरता है, उतनी जमीन पर

उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.

गिरने से ज्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.

मैंने कितने मजदूरों को देखा है

इमारतों से गिरते हुए,

गिरकर शहतूत बन जाते हुए.


ईश्वर

(ईश्वर) भी एक मजदूर है

जरूर वह वेल्डरों का भी वेल्डर होगा.

शाम की रोशनी में

उसकी आंखें अंगारों जैसी लाल होती हैं,

रात उसकी कमीज पर

छेद ही छेद होते हैं.


आस्था

मेरे पिता मजदूर थे

आस्था से भरे हुए इंसान

जब भी वह नमाज पढ़ते थे

(अल्लाह) उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था.


घर

मैं पूरी दुनिया के लिए कह सकता हूं यह शब्द

दुनिया के हर देश के लिए कह सकता हूं

मैं आसमान को भी कह सकता हूं

इस ब्रह्मांड की हरेक चीज को भी.

लेकिन तेहरान के इस बिना खिड़की वाले किराए के कमरे को

नहीं कह सकता,

मैं इसे घर नहीं कह सकता.


इकलौता डर

जब मैं मरूंगा

अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा

अपनी कब्र को भर दूंगा

उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया.

मेर नए घर में कोई जगह नहीं होगी

भविष्य के प्रति डर के लिए.

मैं लेटा रहूंगा. मैं सिगरेट सुलगाऊंगा

और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर

जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था.

इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी

एक डर बचा रहता है :

कि एक रोज, भोरे-भोर,

कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा :

‘अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है.’