विनोद: यह अजीब नहीं लगता कि गांधी से तो आरएसएस भी खुंदक खाती है और कम्युनिस्ट भी, लेकिन भगत सिंह का इस्तेमाल दोनों करते हैं? क्या इसकी वजह यह कि आरएसएस और कम्युनिस्ट दोनों को मंच पर सजाने के लिए ऐसा किरदार चाहिये जिसकी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में अहम भूमिका रही हो? अब आरएसएस की तो मजबूरी समझी जा सकती है जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में प्रतिक्रियावादी भूमिका निभाई थी, लेकिन कम्युनिस्टों की क्या मजबूरी? क्या भगत सिंह कम्युनिस्ट थे?
अर्जुन: नहीं, भगत सिंह कम्युनिस्ट नहीं थे. भगतसिंह की पूरी फैमली कांग्रेसी थी. वे अपने चाचा के प्रभाव से क्रांतिकारी बने. रूस के बोल्सेविक क्रांति से वे प्रभावित थे, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी, जिसने 1925 तक भारत में एक पार्टी का रूप ग्रहण कर लिया था और लाहौर जिसके क्रिया-कलाप का बड़ा केंद्र था, से भगत सिंह दूर ही रहे. बोल्सेविक क्रांति से वे प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने शुरुआत में जो ग्रुप बनाया उसका नाम ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ रखा. बाद में फिरोजशाह कोटला मैदान में सम्मेलन करके ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ा गया.
विनोद: लाला लाजपत राय जैसे प्रखर कांग्रेसी नेता से उनके रिश्ते का आधार क्या था?
अर्जुन: आपको पता होगा, लाला लाजपत राय की पहलकदमी से लाहौर में एक कालेज बना था. भगत सिंह और सुखदेव उसी में पढ़ते थे. उस कालेज में अंग्रेजों के खिलाफ युवाओं में देशभक्ति का जज्बा पैदा किया जाता था. जब लालाजी पर साईमन कमीशन का विरोध करते वक्त लाठी चली और उससे उनकी मृत्यु हो गई तो भगतसिंह और उनके साथियों ने सांडर्स का बध कर दिया. वैसे, अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन के बारे में बाद में भगतसिंह ने कहा कि वे तब निरे ‘आतंकवादी’ थे.
विनोद: मतलब ?
अर्जुन: शासक वर्ग पहले हमला करता है और प्रतिरोध में जनता को भी हथियार उठाना पड़ता है. भगत सिंह इस लाइन का समर्थन करते थे. जेल में उन्होंने कम्युनिस्ट साहित्य का अध्ययन किया. ‘क्रांति का मसविदा’ और ‘जेल डायरी’ लिखी. इन पर सरकार ने बैन लगा रखा था. सात- आठ वर्ष पहले ये सामने आई हैं. ये दोनों किताबंे उनकी परिपक्व रचना है. उनकी स्पष्ट उक्ति है - ‘हथियार उठाना हमारी जरूरत नहीं, मजबूरी है.’
विनोद: लेकिन नक्सली संघर्ष के इन पचास-साठ वर्षों का अनुभव क्या यह नहीं कहता कि हिंसा का हासिल कुछ नहीं. जनता की व्यापक भागिदारी वाला खुला जन संघर्ष ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में कारगर हो सकता है? क्या चे ग्वारा का अनुभव हमे यही संदेश नहीं देता- क्यूबा की उनकी सफलता और बुलिविया की उनकी ‘महान’ व ‘त्रासद’ विफलता ?
अर्जुन: चे ग्वारा का टी शर्ट आज का युवा पहनता है और गर्व का अनुभव करता है. लेकिन उनके जीवन संघर्ष के बारे में लोग कम ही जानते हैं. उनका एक सिद्धांत है, जिसे हम ‘फोको थ्योरी’ कहते हैं. यानी, लड़ाकू योद्धाओं का एक जत्था तैयार कीजिये और सत्ता के केंद्र पर सटीक प्रहार कर उसे छिन्न-भिन्न कर दीजिये. वे एक चिकित्सक थे और रूस के बोल्शेविक क्रांति से बेहद प्रभावित. अपनी थ्योरी के अनुसार उन्होंने एक लड़ाकू जत्था बनाया और सत्ता के विभिन्न केंद्रो पर हमला किया. क्यूबा में उन्हें सफलता मिली, क्योंकि वहां उनको फिदेल कास्त्रो जैसे व्यापक जनआधार वाले नेता का समर्थन मिला था. लेकिन बोलिविया में जब वे अपने दो दर्जन हथियारबंद जत्थे के साथ मोटर साईकल से हमला करने गये तो पहले से घात लगाई अमेरिका सेना ने उन्हें मार डाला.
विनोद: आपको लगता है कि भारत जैसे विशाल देश में अब इस तरह के युद्ध की रणनीति कारगर होगी? वैसे, नेपाल में प्रचंड ने यह प्रयोग किया.
अर्जुन: नहीं, नेपाल में आर्मी थी और जन संगठन भी. प्रचंड ने जो किया उसे ‘फ्यूजन थ्योरी’ कह सकते हैं. इससे तो प्रारंभ में उन्हें सफलता मिली, लेकिन बाद में उन्होंने सरेंडर कर दिया. कांग्रेस के साथ मिल कर सत्ता बनाई. बागडोर भी उनके हाथ में रही, लेकिन चारो प्रमुख पदों पर दावेदारी की तो हार गये.
विनोद: फिर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन पर हिंसा इस कदर हावी क्यों हो गई? जो संसदीय राजनीति में गये वे संशोधनवादी हो गये, जो बचे वे माओवादी हो गये जिनका सारा जोर गुरिल्ला रणनीति पर है.
अर्जुन: देखिये, भारत में अपने गठन के वक्त कम्युनिस्ट पार्टी स्वयं हथियारबंद संघर्ष के बारे में कोई स्पष्ट विचार नहीं रखती थी. वे दरअसल रूसी क्रांति के तर्ज पर चलना चाहते थे. जन विद्रोह का रास्ता, औद्योगिक मजदूरों की मदद से बलपूर्वक सत्ता परिवर्तन का रास्ता. लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद पार्टी के भीतर का द्वंद तीव्र हुआ. नक्सल मूवमेंट को ताकत के बल जिस कदर कुचला गया उससे यह भावना तीव्र हुई कि सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ संघर्ष का तरीका गुरिल्ला रणनीति ही हो सकती है. विडंबना यह कि माओ ने इस रास्ते का विरोध किया था. माओ इस बात के भी खिलाफ थे कि चीन का चेयरमैन भारत की पार्टी का भी चेयरमैन हो. उन्होंने भारतीय माओवादियों से स्पष्ट पूछा था कि क्या आपके देश में आपका चेयरमैन बनने वाला कोई शख्स नहीं?
अगले अंक में: नक्सलबाड़ी आंदोलन का आदिवासी पाठ