पचास वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी प्रखंड में एक भीषण किसान विद्रोह हुआ था. उस आंदोलन ने देश की राजनीति को स्थायी रूप से दो खेमों में विभाजित कर दिया. एक खेमा जो संसदीय राजनीति के मार्ग पर चलता है और एक दूसरा खेमा जिसे संसदीय राजनीति पर विश्वास नहीं और जो ‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’ में विश्वास करता है. बदलाव के लिए सशस्त्र विद्रोह का यह रास्ता महज तीन दिन की घटना में प्रज्जवलित रूप में दिखाई दिया और करीबन छह माह में सत्ता ने इसे बर्बरतापूर्वक कुचल भी दिया. लेकिन वह चिंगारी कभी बुझी नहीं. अब भी जहां-तहां सुलगती दिखाई दे जाती है.

उस आंदोलन का एक ‘आदिवासी पाठ’ भी है. वह इस तरह की वह पूरा इलाका आदिवासीबहुल है. आंदोलन का नेतृत्व एक आदिवासी ने किया. बटाईदारी की जिस जमीन पर किसानों ने कब्जा किया, वह एक आदिवासी की थी. जमीन पर कब्जा करने वाला आदिवासी था और उस संघर्ष के दौरान जिन महिलाओं ने शहादत दी, उनमें अधिकतर आदिवासी थीं.

यह घटना 23, 24, 25 मई 1967 की है.

संघर्ष का गांव था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी ब्लाॅक का प्रसादजोत गांव. उस वक्त पश्चिम बंगाल में संविद सरकार थी. मुख्यमंत्री थे अजय मुखर्जी. कृषिमंत्री हरेकृष्ण कोनार.

तो, पश्चिम बंगाल सरकार ने एक कानून बना कर यह तय किया था कि फसल का दो हिस्सा बटाईदार का होगा और एक हिस्सा जमीन मालिक का. लेकिन इस पर अमल नहीं हो रहा था. जमीन मालिक बटाईदार को फसल का आधा हिस्सा देते थे. वहां के एक बटाईदार विगुल किसान ने मुकदमा किया और जीत गया. वह जमीन आदिवासी कांग्रेसी विधायक ईश्वर तिर्की की थी. 23 मई 67 को उस जमीन को कब्जे से मुक्त कराने जब वहां पुलिस पहुंची तो विद्रोह हो गया. तीर चले. एक पुलिसकर्मी मारा गया. शेष भाग गये. उनका नेतृत्व किया था जंगल संथाल ने.

25 मई को, यानी घटना के एक दिन बाद कुछ दूरी पर महिलाओं की एक सभा हो रही थी. पुलिस फिर पहुंच गई. उनके साथ झड़प हुई तो महिलाओं ने पुलिसकर्मियों से ग्यारह राइफलें छीन ली. पुलिस के साथ वहां मौजूद मैजिस्ट्रेट ने चालाकी से काम लिया. उनसे बंदूके वापस करने का अनुरोध किया. सभा कर रही आंदोलनकारी महिलाओं ने कहा कि उन्हें को ऐतराज नहीं. वे बंदूके वापस कर देंगी, बस पुलिस उनके मामले में हस्तक्षेप न करे.

ग्यारह म्हिलायें और कुछ बच्चे बंदूके लौटाने उनके पास गई. पलिस बल ने राईफलें वापस होते ही फायरिंग की. एक किशोर, दो बच्च्यिों सहित ग्यारह महिलाएं उस फायरिंग में मारी गयी जिनमें से अधिकतर आदिवासी थीं. उनके नाम हैं— धानेश्वरी सिंघा, सोनामति सिंघा, फूलमति सिंघा, सुरबाला बर्मन, नयनेश्वरी मल्लिक, समसरी सैवानी,गउदरु सैवानी,सीमेश्वरी मल्लिक,नयनेश्वरी मल्लिक की छह माह की बेटी, गउदरी सैवनी की पांच माह की बेटी और 14 वर्ष का किशोर खारसिंह मल्लिक.

इस घटना से पूरा देश थर्रा उठा. एक नई पार्टी सीपीएम से टूट कर बनी, सीपीआई एमएल. दरअसल, इस घटना में आंदोलनकारी सीपीएम के ही कैडर थे. उनकी समझ थी कि सरकार में सीपीएम एक प्रमुख घटक है, सीपीएम का कृषि मंत्री हरे कृष्ण कोनार, बटाईदारी कानून राज्य सरकार.ने ही बनाया था. वे उनके आंदोलन का समर्थन करेंगे. लेकिन सत्ता हमेशा जमींदारों-पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करती है.

आप में से कई लोग शायद नक्सलबाड़ी आंदोलन के इस प्रथम घटना को आदिवासी पाठ कहने पर सवाल उठायेंगे. हो सकता है कि इसे सिरे से नकारें. ऐसे लोगों की असहमति और नकार को स्वीकर करते हुए भी हम इस सवाल को रेखांकित करना चाहेंगे कि इसे आदिवासी पाठ क्यों न माना जाये. क्षेत्र आदिवासियों का, जमीन आदिवासी की, उस पर अपने हक के लिए लड़ने वाला भी आदिवासी और उस लड़ाई के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले भी आदिवासी. इसलिए हम यह क्यों न कहें कि वह घटना हमारे इतिहास में दर्ज संघर्ष की आदिवासी परंपरा से बिल्कुल मेल खाती है जिसमें सिर्फ रचना में नहीं बल्कि संघर्ष में भी आदिवासी पुरुष, महिला और बच्चे, कुल मिलाकर अपनी जान तक न्योछावर कर देने को तैयार हो जाता है.

हां, हम बेहिचक यह कह सकते हैं कि उसके बाद से नक्सल आंदोलन के रूप में जो धारा फैली और अपनी धमक से देश को झकझोरा, उसमें आदिवासी परंपरा, संस्कृति या आदर्श का वह आधार ही शायद विलुप्त हो गया जो नक्सलबाड़ी आंदोलन की पहली घटना में झलका था.

(धुर वामपंथी बुद्धिजीवी अर्जुन प्रसाद सिंह से बातचीत के आधार पर.)