पूरे देश में माओवादी के नाम से विख्यात राजनीतिक विचारधारा और संगठन के साथ विलय को अब कई नक्सली संगठन ‘ऐतिहासिक भूल’ मानते हैं और उनका यह भी मानना है कि इससे कम्युनिस्ट आंदोलन की जनवादी धारा की भारी क्षति हुई है. पूरे देश के बजाय आंदोलन अब सिर्फ आदिवासीबहुल इलाकों, खासकर, छत्तीसगढ़ के आस पास सिमट कर रह गया है. सौ से अधिक जन संगठन देश में प्रतिबंधित हो चुके है और सत्ता पलट या उस पर दखल का सपना दिवास्वप्न बन कर रह गया है.
इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि सन् 65 में सीपीएम से टूट कर ‘चिंता धारा ग्रुप’के रूप में अस्तित्व में आई एमसीसी या माओवादी धारा वर्तमान में चार नक्सलबाड़ी गुटों का समूह है. लेकिन विलय की यह प्रक्रिया एक दिन में नहीं, कई दशकों में पूरी हुई और अब माओवादियों की विचार धारा सब पर प्रभावी है.
सीपीएम से अलग हो कर 65 में ‘चिंता धारा’ ग्रुप बनाने वाले दो नेता बंगाली मूल के थे- अमूल्य सेन और कन्हाई चटर्जी. इन लोगों ने एक मैगजीन निकालना शुरु किया जिसका नाम ‘दक्षिण देश’ था. और वे ‘दक्षिण देश’ के रूप में पहचाने जाने लगे. वे संसदीय राजनीति का पूर्णरूपेण विरोध करते हैं. उनका मानना है कि जत्था बना कर सत्ता केंद्रों पर हमला ही एकमात्र रास्ता है. बंगाल के ही ‘सोनार कला एरिया’ में इन्होंने इसका प्रयोग किया और इसे ‘जनयुद्ध’ का नाम दिया. एक और प्रयोग बंगाल के ही कांगला क्षेत्र में.
67 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद जब सीपीएम से अलग होकर चारु मजुमदार और उनके साथियों ने समन्वय समिति बनाई तो माओवादियों को भी उसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन वे शामिल नहीं हुए. उनका कहना था कि सीपीआई एमएल ‘बुर्जुआ पार्टी’ है और चारु ‘बुर्जुआ’ पार्टी के नेता. और सन् 71 के बाद सीपीआई एमएल यानी, नक्सल पार्टी में बिखराव शुरु हुआ तो इन्हें कहने का अवसर मिल गया कि चूंकि ‘सीपीआई एमएल’ कम्युनस्ट पार्टी नहीं थी, इसलिए वह बिखर गई. अब तक दक्षिण देश के रूप में चिन्हित पार्टी एमसीसी के रूप में पहचानी जाने लगी थी.
दूसरी तरफ, चीन-भारत युद्ध के बाद चाुरु मजुमदार के नेतृत्व में बनी नक्सली पार्टी ‘सीपीआई एमएल’ में बिखराव शुरु हो गया. विवाद की मुख्य वजह यह थी कि सीपीआई एमएल के भीतर कुछ नेता चीन को हमलावर देश मानने लगे और चीन की पार्टी को संशोधनवादी पार्टी, जबकि कुछ अन्य चीन को हमलावर देश नहीं मानते थे और उनकी आस्था चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में अब भी बनी हुई थी. इसके अलावा कुछ नेता देशके विभिन्न हिस्सों- नागालैंड, असम, जम्मू कश्मीर- में चल रहे आंदोलनों-संघर्षों का समर्थन करते थे, उनके आत्म निर्णय के अधिकार का समर्थन करते थे, जबकि कुछ लोग इसका विरोध. खालिस्तान के आंदोलन के बाद यह द्वंद्व तीव्र हो गया और सीतारमैया गुट ने आंध्र में सीपीआईएमएल - पिपुल्स वार’ का गठन किया.
1980 में सीतारमैया ने एकजुटता के लिए नक्सली समूह के चार धड़ों को आमंत्रित किया. ये चार गुट थे- एमसीसी, पार्टी युनीटी, सीओसी. एमसीसी की सोच पिपुल्स वार की सोच से मिलती थी और पार्टी युनीटी की सोच सीओसी से. लेकिन उनमें उस वक्त मर्जर नहीं हुआ.
दो वर्ष बाद, 82 में, सीओसी और पार्टी युनीटी का विलय हो गया और 98 में उनका पिपुल्सवार से. एमसीसी अलग-थलग रही. क्षेत्राधिकार के लिए कुछ वर्षों तक वे आपस में खूनी संघर्ष में जुटी रही. फिर अंतरराष्ट्रीय दबाव से इन दोनों समूहों के विलय की भी प्रक्रिया शुरु हुई. 2003 में एकता वार्ता और 2004 में विलय. विलय के पहले आठ पृष्ठों का फोल्डर बांट कर दोनों समूहों ने जनता से आपस में लड़ने के लिए माफी भी मांगी.
अब वास्तविकता यह है कि माओवादियों में शामिल सीओसी और पार्टी युनीटी तो जन गोलबंदी- मास लाईन- की समर्थक है, जबकि उनमें शामिल एमसीसी और पिपुल्स वार के लोग आम्र्स-स्ट्रगल को ही मुख्य मानते हैं. बेस एरिया बनाना, लाल सेना बनाना उनका मुख्य काम. जन संगठन बनाने में उनका विश्वास नहीं.
सत्ता को बहाना मिल गया. कम से कम पूरे देश में एमसीसी से जुड़े होने के नाम पर सौ से भी अधिक जनसंगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया है. खुले जन संघर्षों को चलाने वाले नेताओं को भी पुलिस गिरफ्तार करती है, मुठभेड़ों में उनकी मौतें होती है.
कम्युनिस्ट आंदोलन एक ऐसे अंधी सुरंग में पहुंच गया है जिससे निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आता.
(वामपंथी बुद्धिजीवी अर्जुन प्रसाद सिंह से बातचीत की अंतिम किश्त.)