माओवादी हिंसा बनाम राज्यसत्ता की हिंसा की खबरें लगातार बन रही हैं, कभी न खत्म होने वाले एक दुःस्वप्न की तरह. आमजन कहीं माओवादी हिंसा के शिकार हो रहे हैं, और कहीं राज्यसत्ता की हिंसा के. कहीं माओवादी राज्यसत्ता के हाथों मारे जा रहे हैं और कहीं राज्यसत्ता के संचालक नियंत्रक माओवादियों के हाथों मारे जा रहे हैं. इन दोनों के संघर्ष के बीच निर्दोष आम जन पिस रहा है, घुट रहा है, मारा जा रहा है. यदि कोई निर्दोष या तथाकथित वर्ग शत्रु मारा जाता है तो माओवादियों का तर्क यह होता है कि क्रांति इसी तरह होती है या क्रांतिकारी युद्ध में कभी-कभी निर्दोष भी मारे जाते हैं-‘गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है.’ पता नहीं हिंसा-प्रतिहिंसा की यह लड़ाई कब खत्म होगी, क्योंकि पिछले कुछ दशकों से इसके शिकार आदिवासी ही हो रहे हैं.
इस भीषण युद्ध के कोहराम में सभी इस तथ्य को भुला बैठे हैं कि माओवादियों ने कभी माओ की सुनी ही नहीं. माओ ने कभी भारत के संदर्भ में क्रांति या बदलाव का यह रास्ता चुनने की सिफारिश नहीं की थी. उनका स्पष्ट कहना था कि यदि उनके दौर में यदि चीन में संसदीय व्यवस्था या संसद रहता, तो वे उसका इस्तेमाल जरूर करते.
पिछले अंक में हमने नक्सलबाड़ी आंदोलन का ‘आदिवासी पाठ’ पढ़ा था. वह देश में हिंसा से क्रांति या समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक बदलाव के फलसफे का प्रस्थान बिंदू है. 23, 24, 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी प्रखंड के किसान विद्रोह के कुछ पहले सीपीआई दो खेमों- सीपीआई और सीपीएम में विभाजित हो चुकी थी. विभाजन की एक प्रमुख वजह इस बात को लेकर मतभेद था कि चीन ने भारत पर हमला किया था या अमेरिका के शह पर भारत ने चीन को हमले के लिए उत्प्रेरित किया. एक अंतरविरोध इसबात को लेकर भी था कि भारत में संसदीय मार्ग से बदलाव आयेगा या संसद के बाहर भी हमे सतत संघर्ष करना पड़ेगा. जो धड़ा चीन को हमलावर नहीं मानता था और जिसका संसदीय मार्ग पर भरोसा नहीं था, वह सीपीएम बन गया.
लेकिन नक्सलबाड़ी के बाद सीपीएम में भी यह बहस तीव्र हुई कि क्रांति हिंसा के मार्ग से होगी या जनवादी तरीके से. उस वक्त तक रूस में स्टालिन की मौत हो चुकी थी और ख्रुश्चेव और ब्रेजनेव का दौर शुरु हो गया था. उनकी समझ थी कि ‘फोर्सफुल ओवर थ्रो’ का जमानालद गया, अब तो प्रतिस्पर्धा, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और शांतिपूर्ण संक्रमण के जरिये ही क्रांति होगी. सीपीआई तो पहले से इसकी समर्थक थी और सीपीएम भी सत्ता में आने के बाद यह रास्ता स्वीकार कर लिया.
लेकिन सीपीएम में भी एक खेमा इसे संशोधनवाद की संज्ञा दे रहा था और उन्हें लगता था कि क्रांतिया बदलाव तो हिंसक मार्ग से ही होगी और नक्सलबाड़ी आंदोलन को जिस क्रूरता से बंगाल में कुचला गया, उसके बाद उनकी यह धारणा और मजबूत हो गयी. और सीपीएम के भीतर शामिल इस धड़े ने प्रबल विरोध किया. आंध्र से टी नागारेड्डी, चंद्रपुला रेड्डी, डीवी राव, सीता रमैया, बंगाल से चारु मजुमदार, कानू सान्याल, सुशीतल राय चैधरी, परिमल दास गुप्ता, सुनीति कुमार घोष, बिहार के सत्यनारायण सिंह, पंजाब के जगजीत सिंह सोहल, यूपी के सुकुमार मिश्रा, कश्मीर के केडी शेट्टी और सर्राफ आदि, सीपीएम के विरोध में खड़े हो गये. चारु मजुमदार ने उसी दौर में आठ ‘दस्तावेज’ लिखे और सीपीएम के बदले रवैये को संशोधनवादी करार दिया.
उन दस्तावेजों में स्पष्ट कहा गया कि भारत एक अर्द्ध औपनिवेशिक, अर्द्ध सामंतवादी देश है. यहां क्रांति चीनी क्रांति के रास्ते, यानी एक दीर्घकालीन जनयुद्ध से यानी, गुरिल्ला युद्ध से होगा. और इन दस्तावेजों के आधार पर लेनिन के जन्म दिन 22 अप्रैल 1969 को सीपीआई एमएल नाम की एक नई पार्टी अस्तित्व में आई. वह एक खुली पार्टी थी जिसकी उद्घोषणा 1 मई 1969 को शहीद मीनार मैदान कोलकाता में हुई. लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन के दमन के बाद वह पार्टी अंडरग्राउंड हो गई. वैसे सीपीआई एमएल ने कुछ समय अखिल भारतीय कम्युनिस्ट क्रांतिकारी समन्वय समिति- एआईसीसीआर- के रूप् में काम किया.
नई पार्टी की पहली कांग्रेस 1970 में बंगाल में ही हुई जिसमें चारु मजुमदार पार्टी के जेनरल सेक्रेटरी बनाये गये. पार्टी की उद्घोषणा थीः
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हमारा संघर्ष भूमिगत होगा
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लड़ाई का तरीका गुरिल्ला युद्ध होगा
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वर्गशत्रु का सफाया हम करेंगे
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जन संगठन हम नहीं बनायेंगे
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चुनाव में भागिदारी नहीं करेंगे
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बेल लेकर नहीं, जेल तोड़ कर बाहर निकलेंगे
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चीन का रास्ता हमारा रास्ता, चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन
इतिहास का रोचक तथ्य यह कि माओ ने इन नीतियों का स्पष्टता से विरोध किया. पार्टी के गठन के बाद एक टीम माओ से मिलने चीन गई और उनसे रुबरू हो कर लौटी. माओ ने एक विस्तृत संदेश भेजा जिसमें ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ के नारे का विरोध यह कहते हुये किया कि भारत जैसे विशाल देश में आपको अपना नेता बनाने के लिये कोई नहीं मिला?
उन्होंने यह भी कहा कि हमारे यहां संसदीय व्यवस्था नहीं थी, इसलिए हम उसका प्रयोग नहीं कर सके, रहती तो जरूर करते.
और किसी मोर्चे में शामिल नहीं होने, जन संगठन नहीं बनाने की बातें बकवास है.
विडंबना यह कि माओ के उस पत्र को कचड़े की पेटी में फेंक दिया गया. सीपीआई एमएल के बहुत सारे साथियों की समझ थी कि चारु मजुमदार पर ‘युद्ध’ का भूत सवार था. पार्टी इन्हीं सवालों को लेकर कुछ ही वर्षों में कई खेमों में बंट गई.
माओवादी पार्टी के दो प्रमुख नेता अमूल्य सेन और कन्हाई चटर्जी भी सीपीएम में ही थे, लेकिन जब सीपीएम से कुछ लोग हट कर सीपीआई एमएल का गठन किया, तो वे उसमें भी शामिल नहीं हुए. दरअसल, सीपीआई में नहीं रह कर भी माओवादी सैद्धांतिक रूप में चारु मजुमदार से ज्यादा करीबी रास्ते पर चलते रहे. एक तरह से उन्होंने भी माओ के सुझावों को दरकिनार किया. अनुत्तरित सवाल यह कि फिर वे माओवादी क्यों कहे जाते हैं?
(वामपंथी बुद्धिजीवी अर्जुन प्रसाद सिंह से बातचीत के आधार पर)