जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे
सेना हो जायेगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे..
चुक गया दिन
‘चुक गया दिन’- एक लंबी साँस
उठी, बनने मूक आशीर्वाद-
सामने था आद्र्र तारा नील,
उमड़ आयी असह तेरी याद!
हाय, यह प्रतिदिन पराजय दिन छिपे के बाद!
अपने प्रेम के उद्वेग में
अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ,
वह सब पहले कहा जा चुका है।
तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ,
वह सब भी पहले हो चुका है।
तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है
उस से एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है-
कि यह सब पुराना है, बीत चुका है,
कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में
मुझ से अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!
यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना-
विष कहाँ पाया?
हमारा देश
इन्हीं तृण फूस-छप्पर से
ढँके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है।
इन्हीं के ढोल-मादल बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है।
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है।
इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।