विनोद कुमार: 2011 की जनगणना के अनुसार झाररवंड का सबसे बड़ा गैर आदिवासी धार्मिक समुदाय बन गया है हिंदू - 67.8 फीसदी, दूसरे नंबर पर- मुसलमान- 14.8 फीसदी और तीसरे स्थान पर ईसाई धर्मावलंबी- 4.3 फीसदी. विडंबना यह कि कट्टर सरना समुदाय सबसे ज्यादा आक्रांत रहता है ईसाई समुदाय से. क्यो?
इस गांठ को खोलना जरूरी है..
मांझी गनी: आपके जैसे क्षद्म सेक्युलर वामपंथी (न वाम है न पंथ) – अपने वामपंथ पर दुबारा सोचियेगा, यही सब वजह है वाम उखड़ता रहा है — रहेंगे तो यही सब उलटे-सीधे विश्लेषण करेंगे –
विनोद कुमार: आप संयम खो रहे है.. संभव हो तो जवाब दें..
मांझी गनी: आपका आधारभूत समझ ही – आदिवासी और उनके धार्मिक होने न होने की सम्भावना गड़बड़ है – आगे क्या जवाब दिया जाये–
वाल्टर कंडुलना: सेक्युलर बनाम छद्म सेक्युलर …..संबित पात्रा अभी भी बोल रहे हैं..
दीपक बाड़ा: 67.8 प्रतिशत की राष्ट्रीय मुख्यधारा हीनभावना से ग्रस्त है। जिम्मेवार हाफ पैंट वाले तिलकधारी हैं, उनका रहना नही रहना हीनभावना के उत्तर चढ़ाओ पर ही निर्भर है, इस वाद विवाद में भी।
निरुपमा लियांगी: Bilkul sahi. Ye log mansik roop se beemaar hain aur poora desh iski giraft me aa gaya hai.
महादेव डुंगरियार: झाड़खंड का सबसे बड़ा जनजाति समुदाय - #कुड़मि समुदाय का हिन्दुकरण किया जाना ही सबसे बड़ी ट्रेजेडी/विडंबना है झाड़खंड का। पर आप भी मेरे इस मौलिक तथ्यपूर्ण बात से संभवतः इत्तिफाक नहीं रखेंगें विनोद कुमार सर!
वाल्टर कंडुलना: कुड़मि समुदाय को कबसे जनजाति समुदाय में गिनना शुरू हुआ है?
महादेव डुंगरियार: आपलोगो के आँख मूंद लेने से ही दिन को रात माननी पड़ती है Walter Kandulna साहेब…
वाल्टर कंडुलना: चलो हमारी आँखें तो बंद हैं….नादान हैं…नहीं पढ़े हैं….आप बता ही दें. बड़ी मेहरबानी होगी.
मांझी गनी: Ankhen khud kholi jati hai through activating neuron…
वाल्टर कंडुलना: दो चार न्यूरॉन ही provide कर दो यार…..
नेह इंदवार: विनोद कुमार सर! यूँ तो दुनिया में विचारों, विचारधाराओं, परिकल्पनाओं की बहुलता रहेगी ही और रहना ही चाहिए। तथापि मेरे विचार से भविष्य की दुनिया में इंसानियत से अधिक और किसी धर्म की अहमियत नहीं रहेगी। विज्ञान सभी धर्मों का वारा-न्यारा कर ही देगा। अमेरिकन टेड शो में अमेरिकी नागरिक अंजली कुमार जैन बता रही थीं कि 2014 में अमेरिका में 56 मिलियन (पाँच करोड़ साठ लाख) अमेरिकियों ने धार्मिक कॉलम में अपने को गैर धर्मीय घोषित किया था। इनमें से एक तिहाई की उम्र 18 से 33 वर्ष के थे। मजे की बात यह है कि इनमें से किसी ने भी अपने को गैर अध्यात्मिकता घोषित नहीं किया। अंजली कुमार कहती हैं गैर धर्मीय लोग भी किसी न किसी प्रकार से किसी न किसी अदृष्य शक्ति के होने से इंकार नहीं किया था। लेकिन वे इसे अपने निजी मुद्दा मानते हैं।
आप कहते हैं “कट्टर सरना समुदाय सबसे ज्यादा आक्रांत रहता है, ईसाई समुदाय से क्यों ? इस गांठ को खोलना है क्या है इसका मनोविज्ञान।“
कल से निठल्ला बैठा हुआ हूँ। आपके पोस्ट पढ़ने के बाद मुझे लगता है, निठल्लेपन का उपयोग कर ही लेता हूँ। (क्षमा कीजिएगा यह कुछ लम्बा हो सकता है) कुछ दिनों पूर्व सामुएल हटिंगटन का किताब पर आधारिक एक लेख पढ़ रहा था। सभ्यताओं के संघर्ष पर अमेरिकी थिंक टैंक द्वारा अमेरिकी नीति के लिए तैयार किए गए दिशा-निर्देशों पर वह एक संक्षिप्त लेख था।
बहरहाल हमें यह जानना है कि यह कट्टर सरना समुदाय कौन है? क्या पूरा समुदाय कट्टर है या इसका कुछ भाग कट्टर है या यह एक सतही कट्टरता का मामला है? क्या आपको लगता है कि यह कट्टरता का प्रगटीकरण किसी दूसरे (यहाँ आरएसएस कह लीजिए) के द्वारा प्रेरित है या यह (आदिवासी) ईसाई कट्टरता के प्रतिक्रिया का प्रफूस्टन है? आखिर क्या है इसका मनोविज्ञानिक कारण और कारक? क्या सरना आक्रांत भावना से निकली कट्टरता ईसाई कट्टरता से ज्यादा है? क्या आपको लगता है कि ईसाई (यहाँ आदिवासी पढ़ा जाए) उदारवादी हैं ? क्या आप समझते हैं कि धर्म के मामले में उनमें कोई कट्टरता नहीं है?
डेढ सौ वर्ष पहले आदिवासी समाज एक ही रूढ़ि व्यवस्था या परंपरा से संचालित था।1845-48 में सबसे पहले जर्मन मिशनरी आए। बाईबिल स्कूल चलाए, फिर फार्मल स्कूलों का संचालन किए। फिर 1868 में कैथोलिक मिशन आया और वह भी बाईबिल स्कूल चलाया फिर फार्मल स्कूलों का गठन किया गया और आदिवासियों में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया। ईसाई धर्म के साथ बंडल में आए स्कूल और अस्पताल ने आदिवासियों को नई जिंदगी से परिचित कराया और पश्चिमी सभ्यता के प्रगतिशील पपुलर कल्चर आदिवासी क्षेत्रों में आया। शुरूआत में आदिवासियों को मिशनरियों पर बहुत विश्वास नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे ईसाई धर्म में दीक्षित होते गए। स्कूल और अस्पताल का लाभ आदिवासियों को मिलने लगा। यहाँ तक तो बात बिल्कुल ठीक थी।
लेकिन मिशनरियों ने धर्मांतरित ईसाईयों का एक अलग समाज बनाने का फैसला किया और उस समाज को फैलाने के लिए भी अनेक उपायों का सहारा लिया। एक Minuscule या Miniature समाज न तो स्वावलंबित होता है और न ही टिकाऊ। किसी समाज को मजबूत करने के लिए समाज के सदस्यों की संख्या में वृद्धि आवश्यक होता है। धर्मांतरण के खेल को इसकी पृष्टभूमि में भी समझने की कोशिश की जा सकती है।
…मिशनरियों ने अलग समाज बनाने का फैसला क्यों किया? क्या उन्होंने कभी इसके दूरगामी दुष्परिमाण के बारे कोई अध्ययन किया था? उन्होंने आदिम परिस्थितियों में रहने वाले आदिवासियों को पपुलर कल्चर के फिल्म दिखाया और मनोरंजन करना चाहा। लेकिन क्या फिल्म के प्रभाव से आदिवासी दिमागों में चलने वाले संभावित हलचलों के बारे कोई अनुमान लगाया था? मुझे नहीं लगता है कि उन्होंने कभी पूरे आदिवासी समाज के संदर्भ में इन बातों पर गंभीरता पूर्वक आदिवासी हतिकारी मानसिकता के साथ विचार किया होगा। यदि वे किए होते तो आज आदिवासी समाज का यह दशा नहीं होता।
जनतंत्र के आगाज के पूर्व पूरी दुनिया में राजतंत्र और धार्मिक तंत्र का शासन था। 300 इस्वी काल में प्राचीन रोम के बाहरी इलाकों में स्थापित टिटूलर चर्च से लेकर आज तक धार्मिक शासन तंत्र में धार्मिक परिसंपत्तियों का मैंटेनेंस चर्च ही करता रहा है। 16वीं सदी में प्रोटेस्टेंट धर्म आंदोलन की शुरूआत और प्रोटेस्टेंट चर्च की स्थापना के पीछे के कारणों में केन्द्रीय तत्व धार्मिक विशेषाधिकार और परिसंपत्तियों के अधिकार ही रहा है। धर्म तंत्र का विस्तार पारिश की सीमा पर समाप्त होते हुए भी पारिश के लोगों और परिसंपत्तियाँ धर्माधिकारियों के हाथों में ही सिमटा रहा था। आज भी पारिश स्तर पर फादर के आदेशों-निर्देशों की अवहेलना करने का साहस बहुत कम धर्मियों में है। ईसाईयों के बंधनकारी धागा आज भी परिसंपत्तियों से संचालित धर्म संगठन से ही बंधा हुआ है। पूरे भारत में ईसाईयों का कोई स्वतंत्र समाज वजूद में नहीं है। ईसाईयों का हित मतलब चर्च का हित होता है। ईसाईयों पर हमला भी आम ईसाईयों पर नहीं बल्कि चर्च पर ही होता है। जरा विस्तार में जाते हैं।
सरना ईसाई के बीच चल रहे झगड़े को यदि आप स्थानीय मुद्दों पर आधारित झगड़े या झगड़े की प्रतिध्वनित आवाज़ कहेंगे तो मेरा अनुरोध है कि हमें इसके भीतरी तहों में भी जाना चाहिए। एक आदिवासी ईसाई बनने के बाद फादर या पास्टर के अधीनस्थ एक धर्म संगठन का एक प्रजा बन जाता है। उनका मन ही नहीं बल्कि जीवन भी एकबारगी ही परिवर्तित हो जाता है। वह एक पारंपारिक समाज से निकल कर मिशनरियों द्वारा स्थापित एक अलग समाज में प्रवेश करता है। यहाँ उसे अपना मन, शरीर, संस्कृति, जीवन मूल्यों के साथ सामाजिक मूल्यों, स्वर्ग नरक के विश्वास के साथ सामाजिक संबंधों को भी लेकर आना होता है। यहाँ वह आदिवासी समाज की तरह स्वतंत्र जीवन बसर नहीं कर सकता है। उसे साप्ताहिक गिरजा जाना रहता है। उसे फादर (साथ-साथ पास्टर भी पढा जाए) के आदेश के अनुसार अपने सारे विश्वास को नये कलिसिया के विश्वास के साथ न सिर्फ एकाकार करना होता है, बल्कि अपने बच्चों का जन्म संस्कार, शिक्षा-दीक्षा, विवाह और मृत्यु संस्करण भी अपनी ही कलिसिया में करना अनिवार्य है। उसे जन्म-मरन और शादी विवाह में अपने तई कुछ करने का कोई अधिकार नहीं होता है। विनोद कुमार सर, एक आदिवासी का ईसाई बन जाने पर अपने समाज से रोटी और बेटी का रिश्ता टूट जाता है। यहाँ रोटी के रिश्ते यदि किसी कच्चे डोर में बँधा भी होगा तो भी पक्के तौर से बेटी का रिश्ता तो तोड़ना ही पड़ता है।
… मिशनरियों ने धर्म दिया, स्कूल दिया, अस्पताल दिया। लेकिन आदिवासियों का एक अलग समाज बना कर अपने ही समाज से रोटी बेटी का रिश्ता भी तोड़ने का मुकम्मल प्रबंध भी कर दिया। मैं यहाँ इस क्या वाक्या को दोहराना चाहता हूँ कि उन्हें ईसाई बनने के बाद रोटी बेटी का रिश्ता तोड़ना ही होता है।
इस मामले में आदिवासी समाज अत्यंत सरल, सीधा और प्रतिरोधीहीन पिलपिला रीड़हीन साबित हुआ है। हमारे पुरखों ने मिशनरियों से इस मुद्दे पर कोई सवाल नहीं किया। वे ऑटोमेटिक वे सब कुछ करते गए जो उन्हें करने के लिए कहा जाता रहा। वे अनपढ़ थे, आज्ञाकारी थे और उन लोगों पर उनका अटूट विश्वास था। इसी का फायदा मिशनरियों ने खूब उठाया। उसे आदिवासी संस्कृति से विमुख होने के लिए विवश किया। अलग गाना और बाजा बजाने के लिए कहा गया। अपने ही पूजा-पाठ, रीति-रिवाजों, परंपराओं का मखौल उड़ाने के लिए हमारे पूरखों को मजबूर किया गया। जिसका उन्होंने अक्षरशः पालन किया।
समाज में 10-15 वर्ष के बाद नयी पीढ़ी आती है। वह जो देखती है उसे ही दुनिया कहती है। उसे इतिहास में राजाओं की कहानियाँ और उनके शौर्य की विशिष्टता पढ़ाई जाती है। कहानी ठीक उसी तरह की है कि एक बालक अपने पिता के बुढ़ापे के बारे तो सब कुछ जानता है लेकिन उसकी जवानी और बचपन की बातें बस धुंधली सी याद रहती है। आदिवासियों को अपने पुरखों की मजबूरियों के बारे कुछ भी नहीं मालूम है और न उन्हें बतलाने का कोई जरिया है।
आज का आदिवासी, ईसाई बन कर अपने को जन्मना ईसाई मानता है। मानना भी चाहिए। उनके पूरखों की बौद्धिक अपंगता का लाभ बाहर से धर्म लेकर आए मिशनरी ने कैसे उठाया उसे जानने में उन्हें कोई रूचि नहीं है। मिशनरी ईसाई धर्मी जरूर थे। लेकिन उनका मूल उद्देश्य आदिवासियों की स्थिति सुधारने की नहीं थी, बल्कि सीधे-सादे अनपढ़ों पर अपना विश्वास को थोपना था। वे चाहते तो आदिवासियों को सिर्फ ईशा की बातें बताते और उन्हें सिर्फ ईशा के पुजारी बनाते। ईशा की आराधना कराते। लेकिन उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति को छीन कर उन्हें संस्कृतिहीन बना कर एक विराट शून्य का निर्माण किया और उसमें अपने देशों की परंपराओं, संस्कृतियों को घुसेड़ना शुरू किया।
चलिए मान लेते हैं विज्ञान और विज्ञान के आधार पर दुनिया में विकसित हो रहे लौकिक और अलौकिक विषयों की जानकारी आदिवासियों की नहीं थी और उन्होंने विश्वास में आकर या बिना विश्वास किए स्कूल और अस्पताल से लाभ लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया। यह आदिवासियों की तत्कालिक जरूर थी। दूसरे विकल्प उपलब्ध नहीं थे। कह सकते हैं हमारे पुरखों ने अपनी नयी पीढ़ी के बेहतरी के लिए धर्म परिवर्तन किया, उसे हम तत्कालिक परिस्थियों पर उनकी होशियारी कह सकते हैं।
…लेकिन मिशनरियों ने जिस तरह आदिवासी समाज की विशिष्टता का अध्ययन किए बगैर यूरोप की तर्ज पर ईसाईयों का एक नया समाज का गठन किया। उसे अपने ही समाज से अलगाव करने के लिए विवश किया। उन्हें रोटी बेटी का संबंध तोड़ कर एक अलग वजूद स्थापित करने के लिए मजबूर किया। वह बहुत गलत, हानिकारक और दर्दनाक था।
चर्च के शासन और परिसंपतियों के देखभाल के लिए बनाई गई पारिश पद्धति को आदिवासी क्षेत्रों में भी जस के तस थोप दिया गया। पारिश स्तर के धर्माधिकारी उच्च शिक्षित नहीं होते थे। सेक्यूलर मूल्यों से वाकिफ नहीं होने के कारण वे स्थानीय परिस्थियों के अनुसार समाज का नेतृत्व नहीं किया। बल्कि वही किया जो ऊपर से करने के लिए कहा गया। 1960 के दशक तक आदिवासी इलाकों में बाहरी गैर आदिवासी धर्माधिकारियों का ही बोलबाला था। यहाँ तक कि आदिवासियों को अपनी संस्कृति का पालन करने के लिए भी 1970 के दशक में ही चर्च से अनुमति हासिल हुई। 1970 के दशक के बाद आदिवासी अपनी भाषा संस्कृति और परंपरा की ओर मुडे। उससे पहले उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं थी। बल्कि भारत के आदिवासी इलाकों में भी यूरोपीय धर्म शासन व्यवस्था को अक्षरशः लागू की गई और आदिवासी परंपारिक पड़हा व्यवस्था से यूरोपीय व्यवस्था में आदिवासियों को समंजस्य ढूँढने के लिए विवश किया गया। उन्हें ईसाईयत में दृढ़ रहने के लिए लगातार कट्टर बनने की प्रशिक्षण और उपदेश दिए गए और उन्हें चर्च के अधीन जीवन जीने के लिए विवश किया गया। आज ईसाई बने आदिवासी कट्टरता में किसी भी मुसलमान या हिन्दू या सिख से कम नहीं है। यह कट्टरता आदिवासी को चर्च और उसकी व्यवस्था का सौगात है।
मन में बसी कट्टरता, सामाजिक आचार-व्यवहार में भी झलकता है। एक ही जगह रहने वाले ईसाई और सरना अपने शादी विवाह में एक दूसरे को बहुत कम आमंत्रित करते हैं। यह अलगाव शहरों में बसे लोगों में अधिक परिलक्षित होता है। शिक्षित होने के कारण आरक्षण का अधिक लाभ लेकर भारी संख्या में महानगरों में रहने वाले आदिवासी समाज में यह अलगाव बहुत स्थुलता से दृष्टिगोचर होता है। देश के सभी महानगरों में रहने के दौरान मैंने इन बातों को करीब से नोट किया है। आज की तारीख में हो रहे एक शादी में भी यही बात दोहराई गयी।
…भौतिक विज्ञान की क्रिया और प्रतिक्रिया यहाँ भी परिलक्षित है। दिल्ली में एक सरना परिवार की शादी में सौ ईसाई परिवारों को आमंत्रित किया गया था और हाजिर हुए महज पाँच परिवार। मेरे गाँव में हाल ही में भतीजी की शादी में बड़े पापा (सरना) इसलिए शामिल नहीं हुए कि लड़की लड़के के ईसाई होने के कारण ईसाई बन कर शादी कर रही थी। फेसबुक में बीस पच्चीस लोग अपने-अपने धर्म की हिस्सेदारी निभाते हुए खुब सरना ईसाई करते हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है और कोई भी फेसबुकिया उनलोगों के नामों को मौखिक याद कर सकते हैं। उन गर्मा गर्मा बहसों में कई वेतनभोगी बहसकर्ता हैं। वेतन भोगियों को पहचाननेके लिए मनोवैज्ञानिक या जासूस होने की जरूरत भी नही है।
झारखंड में समाज खंड-खंड है। लेकिन गाँवों में अशिक्षितों के बीच आदिवासीयत की भावना अभी भी अखण्ड ही है। रोटी बेटी के कट गए संबंध ने आधुनिक संवैधानिक युग के सभी आदिवासी आंदोलन को पलीता लगाने का काम किया है। प्रतिक्रिया में कई सरना संगठन हिन्दू संगठनों को स्वाभाविक हितकारी समझ कर उनके साथ सरना सनातन कर रहे हैं। वहीं ईसाई आदिवासी सरना वालों का हिन्दूवादियों के प्रति सॉफ्ट खिंचाव से बिदके हुए रहते हैं। ये दोनों दूरगामी परिणाम लाने वाले कारण और कारक हैं। कई मामलों में दोनों के हित कॉमन होते हुए भी दोनों के बीच सौहार्दता की चाशनी गाढ़ी नहीं बन पाती है। सरना वालों का एक बड़ा भाग ईसाईयों को अपना ही खून समझता है। ईसाईयों का भी समझदार हिस्सा सरना को अपने से अलग नहीं समझता है। लेकिन ईसाईयों का जीवन पारिश की नीतियों से बंधी हुई होती है। वे निर्णायक रूप से उससे बाहर नहीं जा सकते हैं। पारिश की नीति और रीति ईसाई परिवार की नीति और रीति होती है।
रोटी बेटी की अलगाववादी विचारधारा ने सरना समाज को सबसे अधिक टीस दिया है और उनमें ईसाईयों को अलग समझने की भावना भी बढ़ रही है। धर्मांतरण किए बिना दोनों के बीच शादी विवाह की आधुनिक लिबरल जीवन की आशा नहीं की जा सकती है। सरना में इसकी प्रतिक्रिया अधिक चुभनशील है। क्रिया की प्रति क्रिया होता ही है। अलगाववादी विचारधारा राजनैतिक और आर्थिक मोर्चों की लड़ाई में एक बाधा बन कर उपस्थित हो गया है। दोनों के मनोभावों को समझने के लिए सुक्ष्मदर्शी होने की जरूरत है। इसके बिना इसके मनोविज्ञान गाँठ समझना मुश्किल है।
…सामूएल हटिंगटन तो सभ्यताओं के संघर्ष की बात लिख कर स्वर्ग सिधर गए। मेरे जैसे निठल्ले उनकी किताब पर आधारित लेख पढ़कर अपने गाँव में चल रहे संघर्ष पर कुछ निठल्ला चिंतन कर रहा था और तभी आपके पोस्ट पर नजर पड गई। विनोद सर, मुझे लगता है, फिलहाल धर्मों की कोई लड़ाई नहीं चल रही है। यह लड़ाई है सभ्यता की और उसके कट्टरपन की। कट्टरपन किधर से छन-छन कर आ रही है। मेरे बदमाशी की हद यह है कि इस पर एक किताब लिखने के लोभ से मैं अपने को बचा नहीं पा रहा हूँ।
मांझी गनी: बहुत ही सुन्दर – वास्तव में जैसे ही आपका जवाब पढ़ रहा था मुझे किताब जैसी खुशबू आ रही थी और अंत में आपने अपनी इच्छा जाहिर कर ही दी – अगले छह महीने में लिख ही डालिये – या फिर एडिटेड निकालते हैं –
सुनील करकेट्टा: मैं नेह सर का जवाब पढ़कर खुद को विनोद सर के इस अच्छे पोस्ट को अपने टाइमलाइन पर शेयर करने से नहीं रोक पाया | बहुत ही सुलझा हुआ विश्लेषण, विनोद सर और नेह सर दोनों को धन्यवाद. |
विनोद कुमार: काश मैंने पहले पढ़ा होता, मैं अपनी बात साथी जोहार के लिए लिख कर जमा कर चुका हूं..शाम तक जारी हो जायेगा. वैस, हम इस गुत्थी को खोलने का प्रयास जारी रखेंगे..
नेह इंदवार: जी हाँ सर जी। गुत्थी को खोलने का प्रयास जारी रहना चाहिए।
महादेव टोप्पो: आभार । इस विश्लेषण के लिए। धन्यवाद.
इस बहस को हम अगले अंक में जारी रखेंगे.