अनोखा दृश्य! सब एक जगह इकट्ठा हुए। बड़ा हॉल, जिसमें कोई मंच नहीं, पूरा हॉल एक मंच बना। यानी साझा मंच। सबने बोलना स्वीकार किया, क्योंकि सबने सबको सुनना मंजूर किया। यानी सब वक्ता बने, सब श्रोता बने और दर्शक भी। उनके बीच विचारणीय विषय था- लोकतांत्रिक समाजवाद बनाम समाजवादी लोकतंत्र।
सब जने अपने जूते-चप्पल दरवाजे के बाहर उतार हॉल के अंदर पहुंचे। उनमें समाजवादी थे, कम्युनिस्ट थे, मार्क्सवादी थे, नक्सली थे, कांग्रेसी थे। यानी गांधीवादी समाजवादी, लोहियावादी समाजवादी, जेपीवादी समाजवादी, लेनिनवादी समाजवादी, स्टालिनवादी समाजवादी और माओवादी समाजवादी से लेकर जनवादी समाजवादी तथा लोकतांत्रिक समाजवादी तक। और, नेताओं से ज्यादा थे - समता के विविध सपने लिये जनता की स्थानीय समस्याओं और मुद्दों पर जनांदोलनों को उत्प्रेरित करनेवाले कार्यकर्ता।
सबने ‘भाषण’ दिया। लेकिन ‘संवाद’ और ‘विमर्श’ के लहजे में। सो सब वादी बने और सब संवादी भी। नेता मुख्यतः अपने सपने को अपने पार्टी-संगठन से अलग साझा मंच के ‘आईने’ में दिखाने और खुद देखने की कोशिश की। कार्यकर्ता अपने सपने को नये सिरे से संवारने या उसको पुनर्सृजित करने की जरूरत की समवेदना से गुजरे। उनके चेहरों पर खिंचाव नहीं, बल्कि सहजता रही - अपना मुकम्मिल सपना पेश करने की बेचैनी से ज्यादा सपनों के साझपन की संभावनाओं का आकर्षण उनके चेहरों से झलक रहा था।
नेताओं ने इतिहास, भविष्य और वर्तमान समय के भूगोलीय-खगोलीय स्थिति-परिस्थति और पारिस्थितिकी का ‘आलाप’ प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने संभाषणों में ‘पहली दुनिया, दूसरी दुनिया और तीसरी दुनिया’ की उस शब्दावली से बचने की कोशिश की, जो वैश्विक वर्चस्व और शीतयुद्ध की ध्रुवीय अवधारणाओं से पैदा हुई थी, ताकि उनके भाषण सोवियत संघ के पतन को समाजवाद की हार के रूप में पेश करनेवाले पुराने गमगीन नेताओं का ‘प्रलाप’ न बन जाए।
लगभग सब वादी-संवादी नेता और कार्यकर्ता इस कॉमन धराणा की जमीन पर खड़े-बैठे बोल-सुन रहे थे कि देश के प्रभु वर्ग में आरोप-प्रत्यारोप का वाक्-युद्ध छिड़ा हुआ है। यह सिर्फ दूसरे को गलत और खुद को सही करांर देने का युद्ध नहीं है। यह खुद को ईमानदार साबित करने के लिए प्रतिद्वन्द्वी को बेईमान घोषित करने का प्रचार-युद्ध है प्रभु-वर्ग के इस युद्ध में आम जन दोनों तरफ से पिट रहा है। वह भी इस कदर कि उसकी अक्ल गुम होती जा रही है। तरह-तरह के ‘डिस्कोर्स’ और ‘नैरेटिव्स’ के आइनों में खुद को देख कर वह यह न सोच पा रहा है और न समझ पा रहा है कि वह देश का ‘नागरिक’ होकर जीते जी ‘मरने’ को अभिशप्त है या ‘प्रजा’ होकर मरते-मरते ‘जीने’ को?