हाल के दिनों में बहुतेरे दलित लेकिन क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता तथा अंबेडकर के परिवार के न्यायपूर्ण संघर्ष से किनारा कर लेने के कारण दलितवाद और अंबेडकरवाद का पूंजीवादी चरित्र उजागर होता जा रहा है। वर्ग के बजाय जाति को उत्पीड़न और उपेक्षा का एकमात्र आधार मानने वाले अंबेडकरवादी जीएन साईबाबा तथा आनंद तेलतुमड़े जैसे बुद्धिजीवियों के पक्ष में सड़क पर आने से कतराते रहे। क्या ये दोनों और इनके जैसे अन्य बुद्धिजीवी दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? यह दलित समुदाय के सबसे उत्पीड़ित शोषित समूह के प्रतिनिधि हैं। लेकिन साथ ही इनके पूरे राजनीतिक दृष्टिकोण में वर्ग संघर्ष का महत्व काफी स्पष्टता से फ्रंट लाइन में खड़ा रहा है।

अंबेडकरवादियों को वर्ग संघर्ष की राजनीति से सख्त नफरत है। यह नफरत होना लाजमी है। वर्ग संघर्ष वर्तमान पूंजीवादी राज्य और उसे चलाने वाली तमाम संस्थाओं, यहां तक कि संविधान को चुनौती देता है। उसके वर्गीय चरित्र का पर्दाफाश करता है। अंबेडकरवादियों को इसी पूंजीवादी राज्य और इसके विभिन्न संस्थानों में हिस्सेदारी चाहिए। यह कितनी बड़ी बेईमानी है कि बहुमत जनता के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले अंबेडकरवादी तथा लोहियावादी उसी जाति समाज के मजदूर वर्ग के आर्थिक राजनीतिक मांगो के लिए आवाज उठाने से कतराते रहे। सब के सब पूंजी के पक्ष में नव उदारवादी नीति के खिलाफ संघर्ष में चुप्पी साधे रहे। सबों ने पूंजी के मालिकों की चिरौरी की। अंबेडकरवादी बुद्धिजीवियों ने दलितों के बीच से पूंजीपति पैदा करने का स्वप्न गढ़ा, तो क्या ये दलित पूंजीपति दलित मजदूरों के बजाय ऊंची जाति के धनिकों का शोषण करेंगे?

तब प्रश्न उठता है कि क्या सत्ता में साझेदारी उत्पीड़ित जातियों की बुनियादी समस्याओं का समाधान है। उत्पीड़ित जातियों की 90ः आबादी मजदूर वर्ग और छोटे किसान हैं जिनके शोषण में छोटी पूंजी से लेकर एकाधिकार तथा वित्त पूंजी तक हिस्सेदार है। लेकिन पूंजी के शोषण के इस विराट स्वरूप के बारे में ये कभी नहीं बोलते हैं। पूंजी की चाकरी करने में ये किसी भी ब्राह्मणवादी ऊंची जाति के पूंजीपति तथा नौकरशाहों से पीछे नहीं रहते। इनकी सबसे बड़ी इच्छा यह होती है कि ऊंची जाति के पूंजीपति और नौकरशाह ,जो पूर्णतया शोषण पर जोंक की तरह जीवित हैं, उन्हें अपनी पंक्ति में बैठने का अधिकार दे दें। इस तरह से ये सभी ब्राह्मणवादी नौकरशाह तथा पूंजीपतियों के संरक्षक बन बैठे हैं।

यह अकारण नहीं है कि ये लोगों भाजपा आर एस एस से सीधे संघर्ष न करके अक्सर सत्ता में भागीदारी के लिए इनकी एकता हो जाती है।

तो अब जीएन साईबाबा और दूसरे उत्पीड़ित समाज से आये कार्यकर्ताओं को केंद्र में रखकर दलित प्रश्न पर वर्ग संघर्ष के आलोक में बहस किया जाना चाहिए।

जागृति राही

सहमत, उनकी लड़ाई भागीदारी हिस्सेदारी तक ही सीमित कर दी गई और एकमात्र शत्रु उच्च जाति के लोग हैं। अपने ही लोगो की कोई बेईमानी उनको गलत नही लगती उसके लिए दोषी पूना पैक्ट है यही रटते रहेगे।

विनोद कुमार

बहुत अच्छा आलेख.. बस एक सवाल पर मामला ठहर जाता है- व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई कैसे हो? तरीका क्या हो? हमारी धारा की समझ साफ है.. व्यापक जनभागिदारी वाला संघर्ष अब पूर्णतः शांतिमय तरीके से ही चल सकता है.

विडंबना यह भी कि माओवादी हिंसा का सपोर्ट करने वाले भी कोई एक ऐसे नहीं जो खुल कर बोलने का साहस करें कि हम हिंसा की राजनीति को सपोर्ट करते हैं. अदालत में ज्यादातर लोग यह सफाई देते रहते हैं कि उनका हिंसक राजनीति से कोई संबंध नहीं या फिर कुछ लोग सत्ता की हिंसा के समानांतर उसे जस्टीफाई करने की कोशिश करते हैं..

कम्युनिस्टों पर मेरा स्पष्ट आरोप यह भी है कि वे जनता को मूढ समझते हैं.. उन्हें लगता है कि वे जो सोचते समझते हैं वही सही है. प्रकारांतर से वे जिसका संघर्ष उसका नेतृत्व में विश्वास नहीं करते.

मैं एक ठोस उदाहरण देता हूं. अपने जन्म काल से ही घुर वामपंथी संसद को गपबाजी का अड्डा और चुनाव को धोखा मानते हैं और चुनाव वहिष्कार का आह्वान करते हैं. हिंसा का सहारा लेते हैं, जबकि उनके प्रभाव क्षेत्र में भी आम जनता बढ चढ कर चुनाव में हिस्सा लेती है..

नरेंद्र कुमार

जब हम मार्क्सवाद पर बात करते हैं,तब खुलकर हथियारबंद संघर्ष और सशस्त्र क्रांति की बात करते हैं।

विनोद कुमार

आप किसी भी कोर्ट प्रोसीडिंग को गौर से देख लीजिए, सारा जोर बचाव पक्ष का इस बात पर रहता है कि हिंसक गतिविधियों में हमारी कोई भूमिका नहीं..

कामता प्रसाद तिवारी

लिखने का ऐसा तरीका खलिहर बुद्धिजीवी विकसित ही नहीं कर सकते। भाँति-भाँति के मनुष्यों से ऑनलाइन-ऑफलाइन और टेलीफोनिक भिड़ंत का नतीजा लगता है, ऐसा संवादात्मक लेखन। पर मुझे अपील अब नहीं करता क्योंकि शायद टार्गेट रीडर नहीं हूँ। हर किसी को अपनी शैली विकसित करनी है, कच्ची सामग्री तो वही होगी पर उसे फेंटकर व्यंजन बनाने का ढंग अलहदा होगा। उसी अलहदेपन को हम सबको विकसित करना होता है।

राजाराम

दूसरों पर कटाक्ष करना बहुत आसान है लेकिन अपनी तुलना भी करनी चाहिए उनके साथ, तभी तो मालूम पड़ेगा कि अंतर क्या है?

90 फीसदी जनता जब आप मानते हैं, गरीब है ,तो फिर आपके साथ क्यों नहीं है? एक शब्द वर्ग पढ़ लिया और वर्ग संघर्ष पढ़ लिया ,लेकिन भारत की जमीन कैसी है, सामाजिक परिवेश कैसा है, इस पर कोई चर्चा नहीं? क्यों नहीं आप बर्ग बना पाए,? क्यों नहीं लोगों को शोषण और उत्पीड़न समझा कर वर्ग संघर्ष कर पाए।?

परंपरावादी शासक वर्ग ने अपने शासन के हित में संविधान का निर्माण किया, इस पर आप लोगों का कभी मुंह खुला है? इस सच को कभी समझने का प्रयास किया है?

कैसे संविधान के तीनों अंग विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका तथा संवैधानिक सभी संस्थाएं उसी शासक वर्ग विशेष के हित में काम कर रही हैं ,क्योंकि पूरी है हर जगह उसी की व्यवस्था हर जगह है, उसी की सोच हर जगह है लोकतंत्र के मुखोटे के नाम पर ।इस पर आपने कभी कोई गौर करने की कोशिश की है? इसी से देश की शासन व्यवस्था चल रही है जिस पर आप वर्ग संघर्ष करना चाहते हैं, लेकिन किया नहीं।?

पार्टियों में वामपंथी पार्टियों में लीडरशिप शोषक वर्ग की और वर्ग संघर्ष शोषित वर्ग के हिस्से में, क्या सभी बेवकूफ हैं जो यह सच नहीं समझते?

डॉक्टर अंबेडकर का 1936 का एक नारा था जाति विहीन वर्ग विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज का भी कोई औचित्य नहीं। यह शोषित और पीड़ित वर्ग की आवाज है, और आपकी आवाज क्या है, कौन सी आवाज आप ने जनता को दी है जरा स्पष्ट करें जिसके कारण शोषित वर्ग आप से जुड़ जाता।?

जेपी नरेला

दलित बुद्धिजीवी तेलतुंबड़े हो सकते है, साई बाबा का तो ऐसा लगा नही कि वे दलित बुद्धिजीवी है ।यदि कोई ब्राह्मण पृष्टभूमि से आएगा तो उसको ब्राह्मण बुद्धिजीवी कहेंगे क्या ? तो क्रांतिकारियों में एक सवर्ण बुद्धि जीवी हुए और एक दलित बुधुजीवी । ये माना जाए क्या ?वैसे साई बाबा की दलित बुद्धिजीवी की इमेज तो मेरे ख्याल से नही है और न ही वे वर्ग की बजाए जाति का आधार मानते है । तेलतुंबड़े दोनों को मिलाने की कोशिस करते है ।

नरेंद्र कुमार

दलित जातियां उत्पीड़ित रही हैं, इसलिए उनका अलग संज्ञान आवश्यक हैं। अधिकांश दलित जातियां ही मजदूर वर्ग में परिवर्तित हुए हैं। जातीय उपेक्षा और उत्पीड़न आज भी जारी है। इसलिए उनके बीच से आये बुद्धिजीवी यदि जातीय उत्पीड़न तथा उनके वर्गीय शोषण को एक साथ उठाना पूरी तरह जन पक्षीय तथा मजदूर वर्ग के के दृष्टिकोण के अनुरूप है।

अंजनी कुमार

भारत में आज भी ब्राह्मणवादी समाजिक संरचना बहुत ही मजबूत स्थिति में है। दूसरी तरफ पूंजीवादी शोषण ने पूरे समाज को अपने चपेट में ले रखा है। भारत में इन दोनों के खिलाफ संघर्ष चल रहा है।

पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के नेतृत्व में ऊंची जाति का हिस्सा भाग ले रहा है, लेकिन उस लड़ाई का फौज नीची जाति का है। छिटपुट कुछ नीची जाति के लोग नेतृत्व का हिस्सा हैं। ब्राह्मणवादी संघर्ष का नेतृत्व नीची जाति का हिस्सा कर रहा है लेकिन इसका फौज भी नीची जाति का ही है। छिटपुट कुछ उच्च जाति को छोड़कर!

क्योंकि भारतीय समाज का यथार्थ है जाति!

लेकिन भारत में ये दिलचस्प है कि उच्च जाति का बड़ा हिस्सा ना तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ है, ना पूंजीवाद के खिलाफ!

भारतीय समाज में सबसे बड़ा बदलाव विरोधी समुदाय,यहां के ऊंची जाति के लोग हैं क्योंकि इसका बड़ा हिस्सा आज भी ब्राह्मणवाद व पूंजीवाद के विचारों के चंगुल में बहुत ही बुरे तरीका से फंसा हुआ है। जिसके कारण आज भी हीनता बोध का शिकार बड़ी आबादी में नीची जाति का एक हिस्सा इस ऊंची जाति के इस प्रतिक्रियावादी विचारों का अनुकरण कर रहा है।

आप अगर भारत में वर्तमान में पूरी संरचना को देखें तो ऊंची जाति के लोग किस तरह इस समाज को दलदल के गर्त में धकेलने को आमादा है जिसमें नीची जाति के कुछ नवधनाढ्य भी उसके पीछे मजबूती से खड़ा है।

भगत सिंह भी कहते हैं कि सामाजिक क्रांति करते हुए आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लेने की जरूरत है।

भारत में इन चुनौतियों को नीचि जाति के लोगों ने स्वीकार किया लेकिन ऊंची जाति के लोग पीछे भाग खड़े हुए।

इसलिए भारतीय समाज में नीची जाति से ज्यादा ऊंची जाति के लोग बर्बर होते जा रहे हैं। इस ऊंची जाति का अनुकरण करते हुए छिटपुट नीची जाति के नवधनाढ्य भी!