1975 की सेंसरशिप के दौरान मैं मीडिया से नहीं जड़ा था, इसलिए व्यावहारिक अनुभव नहीं है, लेकिन इतिहास और उस दौर के मीडियाकर्मियों से मिली जानकारी के आधार पर इतना जरूर कह सकता हूं कि उन दिनों की तुलना 2023 से करना अनुचित ही नहीं, प्रकारांतर से वर्तमान सत्ता का समर्थन है.
1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा कर बाकायदा सेंसरशिप लागू की थी. इसके लिए उस समय के सभी संवैधानिक प्रावधानों का पालन किया गया था. बेशक उसके अनुपालन में नौकरशाहों ने राजनीतिक नेतृत्व को खुश करने के लिए या उसका इशारा समझ कर ज्यादती भी की होगी, की थी. जो भी हो, ममानता हूँ कि वह तानाशाही थी. मगर सेंसरशिप के बावजूद अखबारों में विरोध के स्वर दिखाई देते थे. साहसी पत्रकार-संपादक अपने तरीके से असहमति जता देते थे. अनेक अखबारों में संपादकीय का स्थान खाली छोड़ दिया गया था.
लेकिन आज अघोषित सेंसरशिप है. इन दिनों मीडिया की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. टेलीग्राफ जैसे विरले अखबार के पास ही रीढ़ बची है. एक टीवी चैनल भी था, जिसे पैसे के बल पर चुप करा दिया गया. आज हालत यह है कि मुस्लिमों, ईसाइयों की हत्या का आह्वान करनेवाले के खिलाफ पुलिस कुछ नहीं करती, लेकिन इसकी खबर दिखानेवाले को नोटिस जारी किया जाता है.
यूपी में मिड-डे मील क्वालिटी में कुछ कमी होने की खबर छपने पर रिपोर्टर को जेल भेज दिया गया था. अभी अभी कप्पन नाम के एक पत्रकार करीब दो साल बाद जेल से रिहा हुए हैं, कोर्ट ने उनको निरपराध माना. उनका ‘अपराध’ यह है या था कि वे मुसलमान हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया में इसकी कितनी चर्चा हुई? यूपी के किसी स्कूल में इकबाल के की एक सहज प्रार्थना, ‘लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी..’ गाये जाने पर प्रिंसिपल को बर्खास्त कर दिया गया और एक शिक्षक को जेल भेजा गया. यह खबर मीडिया में कितनी जगह पा सकी?
श्री आडवाणी ने इमरजेंसी के बाद कहा था कि पत्रकारों को तो सिर्फ झुकने कहा गया था, मगर वे रेंगने लगे थे. यानी तब के बड़े बड़े पत्रकार रीढ़विहीन साबित हुए थे. वे शायद भयभीत भी थे. लेकिन आज तो अपवादों को छोड़ कर तमाम अखबार, चैनल और पत्रकार सत्ता की निरंकुशता पर ताली बजाते नजर आ रहे हैं, यानी वे इस अघोषित सेंसरशिप को सही मान रहे हैं. यह भी बता रहे हैं कि पब्लिक को ही यही पसंद है.
वैसे भी इमरजेंसी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. असहिष्णुता के मौजूदा दौर में- जब असहमति जताने वाले को शत्रु और देशद्रोही घोषित किया जा रहा है- इमरजेंसी के ज्यादतियों की चर्चा करना, उनके ब्योरे जुटानी में समय और ऊर्जा लगाने का कोई औचित्य मुझे समझ में नहीं आता.