सबसे पहले इस संदर्भ में किसी से सुनी एक रोचक बात/घटना, जिसकी प्रामाणिकता के बारे में आश्वश्त नहीं हूं, शेयर कर रहा हूं. आजादी के कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री श्री नेहरू तत्कालीन सेनाध्यक्ष जेनरल करियप्पा के दफ्तर गये. नेहरू का आना शायद पहले से तय होगा. पता नहीं. उनको देखते ही करियप्पा खड़े हुए. उसके पहले कोई लिफाफा ड्रावर में रखा. नेहरू जी ने पूछा- उस लिफाफे में क्या था? करियप्पा ने मजाक में कहा- उसमें ‘कू’ (तख्ता पलट) का प्लान है.

बात मजाक में कही गयी थी, पर नेहरू जी का माथा ठनक गया. इससे यह भी पता चलता है कि तब प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का रिश्ता कितना सहज रहा होगा. यह भी संभव है कि ब्रिटिश काल में सेना के बड़े अफसर रहे करियप्पा भारतीय नेताओं को बहुत भाव न देते हों, उनके प्रति हेय भाव भी हो, जिस कारण वैसा बेतुका जवाब दे दिया.

जो भी हो, उसके बाद ही, ‘कू’ की आशंका को निर्मूल करने के उद्देश्य से तीनों सेनाओं के संयुक्त सेनाध्यक्ष का पद न बना कर तीन अलग अलग सेनाध्यक्ष बनाने का फैसला हुआ. वैसे तो आम तौर पर तख्ता पलट को अंजाम अमूमन थलसेना ही देती है, मगर तीनों सेनाओं का एक कमांडर होने से उसके पास असीम शक्ति आ जाती है.

एक कारण तो यह हो सकता है. नेहरू-करियप्पा वाली वह घटना सच न हो, तब भी व्यवस्था तो वैसी ही की गयी.

इसके अलावा, भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की जड़ें मजबूत हैं. इसके लिए हमें अपने राजनीतिक नेतृत्व का शुक्रगुजार होना चाहिए. गांधी की हत्या तो आजादी का एक साल पूरा होने के पहले हो गयी. तब भी हमारे पास जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद, आम्बेडकर जेपी और लोहिया जैसे नेता थे. उस उथल-पुथल को सबों ने मिल कर संभाल लिया. अपना संविधान बना और लागू हुआ. और अब तक चुनाव के जरिये शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन होता रहा है. चर्चिल का वह व्यंग्यात्मक अहंकारी कथन कि भारत के लोग देश चलाने के काबिल नहीं हैं, गलत साबित हो गया.

राजनीतिक नेतृत्व कमजोर और बहुत अलोकप्रिय होने पर ही सेना को जन समर्थन मिलने की संभावना)आशंका रहती है, जिससे उसमें खुद सत्ता पर काबिज होने की मंशा सुगबुगाने लगती है. लेकिन भारत में अब तक ऐसा नहीं हुआ.

दूसरी ओर पाकिस्तान को मैं एक ‘मैनुफक्चरिंग डिफेक्ट’ वाला देश मानता हूं. मोहम्मद अली जिन्ना की जिद और उस समय देश के माहौल के कारण पाकिस्तान बन तो गया, पर अनेक जानकार मानते हैं कि पकिस्तान की मांग करने के बाद भी जिन्ना बहुत दिनों तक उसके लिए बहुत सीरियस नहीं थे. उनको यकीन भी नहीं था कि पकिस्तान बन ही जायेगा. वे कभी एक आधुनिक और सेकुलर नेता माने जाते थे.

उल्लेखनीय है कि 1934 में जिन्ना ने कहा था- ‘मैं हिंदुस्तानी पहले हूं, मुसलिम बाद में.’ बाद में क्या हुआ, सब जानते हैं. वक्त के खास मोड़ पर और जिस भी कारण वे मुसलिम अतिवाद की ओर मुड़ तो गए, लेकिन पाकिस्तान हासिल करने के बाद उनके अंदर का लिबरल जागने लगा. पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में दिया जिन्ना का वह भाषण बहुत चर्चित है, जिसमें उन्होंने कहा था कि पकिस्तान में किसी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा. या तो वह खुद भ्रम में थे या दुनिया को धोखा दे रहे थे. जिस देश की बुनियाद ही धार्मिक संकीर्णता और नफरत पर टिकी थी, वह उनके कहने से सेकुलर कैसे बन जाता! और पकिस्तान इस्लामिक देश घोषित हो गया.

जिन्ना के बाद बौने लोग बचे थे. जल्द ही देश बेपटरी होने लगा. कभी बड़े और लोकप्रिय रहे और प्रधानमंत्री बने लियाकत अली खान की हत्या के बाद वहां राजनीतिक हिंसा का जो दौर शुरू हुआ, उसने सेना को वह मौका दे दिया. धीरे धीरे सेना सर्वशक्तिमान बनती गयी. भ्रष्ट नेताओं व शासकों के कारण सेना में लोगों का भरोसा भी बनता गया. राजनीतिक नेता भी सेना के समर्थन की चाह रखने लगे. सेना अपनी मर्जी से प्रधानमंत्री बनाने लगी. और जिसने उसके नियंत्रण से बाहर जाने की कोशिश की, उसे हटा दिया या उसकी हत्या तक करा दी, किसी बहाने ‘कानूनी’ तरीके से फांसी पर भी लटका दिया. लेकिन इसके साथ ही खुद सैन्य अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त होते गये.

इस लंबी फौजी तानशाही का हासिल यह हुआ कि पाकिस्तान संकीर्णता और धर्मांधता में डूबता चला गया. आज उस पर एक विफल राष्ट्र और आतंकवाद के गढ़ का लेबल लग गया है!

पाकिस्तान के निर्माण का आधार कितना कमजोर था, यह उसके जन्म के महज 25 वर्ष बाद ‘71 में साबित हो गया, जब धर्म के आधार पर बना देश भाषा और संस्कृति के नाम पर टूट गया.

अफसोस! फिलहाल हम कामना ही कर सकते हैं कि पाकिस्तान में भी लोकतंत्र बहाल और मजबूत हो. हालांकि आज हम भारतीय अपनी करतूतों से जिन्ना सहित उस समय के संकीर्ण मुसलिम नेताओं की इस आशंका को सच साबित करने पर तुले हुए हैं किं हिंदू बहुल भारत में उनके साथ नाइंसाफी होगी.

अब पुनः मूल मुद्दे पर- भारत में मोदी सरकार ने जो एक नया पद बनाया है- चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) - वह संभवतः तीनों सेनाओं के कमांडर का है. विपिन रावत पहले सीडीएस थे, जिनकी एक विमान हादसे में मौत हो गयी. यह पद सृजित करते समय भी कहा गया था कि सीडीएस का दायित्व तीनों सेनाओं और सरकार के बीच समन्वय का काम करना भी होगा. ठीक ठीक नहीं कह सकता कि उसकी हैसियत पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जैसी ही है. फिर भी मेरी समझ से यह अच्छा फैसला नहीं है, यदि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ तीनों सेनाओं के कमांडर होता है.

प्रसंगवश, यह बात भी ध्यान में रखें- कायदे से धर्म के नाम पर हुए देश के बंटवारे के कारण भारत को भी हिंदू राष्ट्र बन जाना चैये. ऐसी भावना और मांग स्वाभाविक थी. संघ और हिंदू महासभा के लोग ऐसा चाहते ही थे. लेकिन तब उनकी कोई खास हैसियत नहीं थी. गांधी और नेहरू-पटेल पर जनता को विश्वास था.

लेकिन संकीर्ण हिंदूवादी अपने प्रयास में लगे रहे. इसी प्रयास के तहत भारत की मौजूदा सत्तारूढ़ जमात योजनाबद्ध ढंग से शासन प्रशासन के हर अंग को अपनी कथित विचारधारा के समर्थकों से भरने का, पुलिस और सेना में अपने संकीर्ण हिंदुत्व के सोच को फैलाने का काम कर रही है. वह एक हद तक सफल भी हुई है. जिस चर्चित मालेगांव बम विस्फोट कांड में लिप्त होने का आरोप गोडसे भक्त प्रज्ञा सिंह ठाकुर (अब भाजपा सांसद) पर लगा है, उसमें ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था का भी नाम आया था. उसके संस्थापक कर्नल पुरोहित सेना में ही थे. उन पर लगे आरोपों में जरा भी सच्चाई हो, तो सहज ही शंका होती है कि सेना का सेकुलर चरित्र कब तक बचा रहेगा.

इसलिए भविष्य में कभी सैन्य तख्ता पलट हुआ भी, तो पूरी सम्भावना (या आशंका) है कि वह इस जमात के अनुकूल ही होगा. हां, सहमत हूं कि अभी सत्ता पर आसीन लोगों को यह अंदाजा नहीं है कि वे आग से खेल रहे हैं.

कथित खुदा और भगवान न करे कि भारत भी कभी पाकिस्तान के रास्ते पर चल पड़े.