भाजपा नेता केंद्रीय मंत्री और बेगूसराय में भाजपा प्रत्याशी गिरिराज सिंह ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के समने यह उद्गार व्यक्त किया है कि अगर मुसलमानों को शव दफनाने के लिए जमीन चाहिए तो उन्हें ‘वंदे मातरम’ कहना ही होगा.

इससे मुझे दो पुरानी घटनाएं याद आ गयीं. पहली घटना 2014 की है. अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था. संघ के लोग आगे आकर मुझसे नेतृत्व करने का आग्रह करने लगे. मैंने लता ताई पाटणकर का नाम सुझाया. लेकिन वो शुरुवात करा कर निकल गयीं. मैं सबसे आगे था. जुलूस समाप्त हो गया. उसके बाद वंदे मातरम हुआ. वासंती और उसके साथ की महिलाओं और युवतियों ने पहली कड़ी समाप्त होते ही ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाना शुरू कर दिया. नाट्य कलाकार होनाजी चव्हाण ने भी माइक लेकर लाउड स्पीकर पर ‘ भारत माता की जय’ का नारा लगाना शुरू कर दिया. इस कारण ‘सम्पूर्ण’ वंदे मातरम गीत गाने का हिन्दुत्ववादियों का इरादा धूल धूसरित हो गया.

कार्यक्रम समाप्त होने पर मैं और वासंती दोनों पैदल जा रहे थे. सोचा कि कुछ दूर पैदल चल कर रिक्शा ले लेंगे. तभी सनातन संस्था के लड़कों ने हमें घेर लिया और नारा लगाने लगे- ‘इस देश में रहना है तो, वंदे मातरम कहना होगा.’ हम उनके साथ ‘वंदे मातरम’ नारा लगाने लगे. वे आवाक रह गये. मैंने कहा- जरा बातचीत करते हैं. हमें वंदे मातरम से विरोध है, ऐसा किसने कहा? ‘वंदे मातरम’ तो हमारी स्वतंत्रता के पहले का नारा है. मेरे पिता और दोनों बुआ ‘वंदे मातरम का नारा लगाते हुए ब्रिटिशों के जेल तक गये थे. तुम्हारी आपत्ति क्या है? सनातन संस्था संगठन के युवकों को मुझसे ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. उन्होंने हमारा घेराव कर लिया और ‘इस देश में रहना है, तो वंदे मातरम कहना होगा’ नारा लगाने लगे. हम लोग शंतिपूर्वक घेराव में रुके रहे. इस कारण वो और चिढ़ गये. अक्षरशः पागलों जैसे उग्र चेहरा बना कर संतप्त भाव प्रदर्शित करते हुए, हमारे चेहरे के पास हाथ भांजते हुए पूरे जोर के साथ नारे लगाने लगे. अंत में संघ के विचार रखने वाले यजुवेन्द्र महाजन (दीपस्तंभ के संचालक) आये और हमें खींच कर भीड़ से बाहर निकाला और अपनी गाड़ी से हमें घर तक छोड़ा.

दूसरी घटना एमजे कॉलेज की है, जहां मैं नौकरी करता था. कॉलेज के प्राचार्य बदल गये और संघ के विचार वाले, कट्टरपंथी, मन में प्रचंड ब्राम्हणवादी दुराग्रह रखने वाले अनिल राव अध्यक्ष अण्णा साहेब बेंडाले के नजदीकी होने के कारण प्राचार्य बन गये. कॉलेज में संघ विचार वालों और चुने हुए ब्राम्हणों को प्रतिष्ठा मिलने लगी. उनके प्राचार्य बनने पर पहला कार्यक्रम था. कार्यक्रम सामाप्त होने पर राष्ट्रगीत के नाम पर ‘वंदे मातरम’ हुआ. पहली दो कड़ी समाप्त होने के बाद संघ से संबद्ध गायिका लड़कियों ने तुरत आगे की कड़ी ‘सप्त-कोटि-कंठ-कल-कल-निनाद-कराले’ गाने लगीं. यह शुरू होते ही मैं तुरत वहां से चल दिया, वंदे मातरम की वह कड़ी शुरू ही थी. मैं स्टाफ रूम में जाकर बैठ गया. संपूर्ण वंदे मातरम संपन्न होने के बाद सभी प्राध्यापक आकर बैठे. थोड़ी देर बाद राल सर के नजदीकी रंगा राजे सर आये और मेरी तरफ तमतामाये हुए देख कर बोले - “सोनालकर, आप देशद्रोही हैं, राष्ट्रगीत वंदे मातरम का अपमान कर निकल आये.”

मैंने उत्तर दिया, “अच्छा हुआ, पीठ पीछे न बोल कर, आपने सामने ही यह विषय निकाला. आपका अज्ञान दूर कर देता हूं. वंदे मातलम राष्ट्रगीत (National Anthem) नहीं, बल्कि राष्ट्र गान (Nationwide Song) है. इसे राष्ट्रगीत के समान स्थान प्राप्त है. इसकी दो ही कड़ी राष्ट्रगान के रूप में देश ने मान्य किया है.” मैंने आगे कहा, “अरे, रंगा, नाना साहेब गोरे, जो खुद एक स्वतंत्रता सेनानी थे और जिन्होंने वंदे मातरम गाने के कारण संघ की मंडली का मार खाया है, वो भी सिर्फ दो ही कड़ियों का आदर करते थे और बाद के कार्यक्रम से उठ कर चले जाते थे. संघ के लोगों ने वंदे मातरम का अनेकों बार विरोध किया है. आज वही संपूर्ण ‘वंदे मातरम’ जो दुर्गा स्तुति है, उस गाने को गाने की जिद करते हैं. इसी कारण इसे देवी दुर्गा का गीत समझ कर नासमझ मुसलमान ‘वंदे मातरम’ का ही विरोध करते हैं.”

पाठकों की जानकारी के लिए :

हैदराबाद रियासत के कांग्रेसी कार्यकर्ता दारूबंदी, सूत कताई, खादी का प्रचार, स्वदेशी प्रचार, राष्ट्र भाषा हिंधी का प्रचार, मातृभाषा में शिक्षा, भारतीय एकता-राष्ट्रीयता काप्रचार, वेकल्पिक विद्यालय खोलने आदि रचनात्मक कार्यों के साथ ही ‘जंगल तोड़ सत्याग्रह’ करके जेल जाते थे. हैदराबाद रियासत की प्रजा नमक सत्याग्रह नहीं कर सकती थी, क्योंकि रियासत से लगता हुआ समुद्री किनारा नहीं था. इस कारण कांग्रेस के आदेशानुसार असंख्य कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने खजूर के, ताड़ के और महुआ के पेड़ों को तोड़ कर ‘जंगल सत्याग्रह’ किया. ताड़ के पेड़ से निजाम को बड़े पैमाने पर राजस्व मिलता था. वकील निजाम के न्यायालय का बहिष्कार करें, विद्यार्थी निजाम के विद्यालयों का बहिष्किर करें आदि प्रकार के आंदोलन करते थे. ‘वंदे मातरम’ पर पाबंदी थी, तो कांग्रेस ने ‘वंदे मातरम आन्दोलन’ चलाया. प्रत्येक शहर में विद्यालय में, महाविद्यालय में, उस्मानिया वि.वि. परिसर में ‘वंदे मातरम’ गाया जाता था. वंदे मातरम की लड़ाई डेढ़ वर्षों तक चली. वंदे मातरम पर पबंदी के कारण अनेक विद्यार्थियों ने वाशिम, वर्धा, नागपुर, जबलपुर, पुणे और शांतिनिकेतन के महाविद्यालयों में नामांकन करके अपनी पढ़ाई पूरी की. तब ‘वंदे मातरम’ गाने का समर्थन प्रोग्रेसिव मुस्लिम स्टूडेंट एसोशियेशन ने भी किया था.

22 सितम्बर 1947 को यानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदू महासभा के कार्यकरताओं की अपील में सावरकर कहते हैं, “हिन्दूडम”(अंग्रेजी के Hinduism शब्द का अनुकरण, अर्थात हिन्दू जगत; इस प्रकार Pan Islam से प्रभावित Pan Hindu शब्द का इस्तेमाल करते हैं. निष्कर्षत: उनके भारतीयत्व का अर्थ है, क्रिश्चियन-मुस्लिम धर्मांधता की कट्टरता का अनुकरण करते हुए उनका नकल करना. उदार हिंदू धर्म को कट्टरपंथी इस्लाम का प्रतिबिंब बनाने का प्रयत्न है.) उद्घोषित करने वाले कुंडलिनी-कृपाणांकित ओम और स्वस्तिक साहित्य का भगवा ध्वज के अलावा अन्य कौन सा राष्ट्र ध्वज नहीं हो सकता है? हिन्दू महासभा की सभी शाखाओं पर यही ध्वज फहराना चाहिए…तिरंगा झंडा खादी भंडार पर भी क्या शोभा देता है !”

विनायक राव सावरकर ने हिंदू राजा को समर्थन दिया. ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाते हुए गोलियां खाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को ढोंगी राष्ट्रवादी कह कर संबोधित किया. 15 अगस्त के दिन स्वतंत्रा दिवस न मनाएं, ऐसा आदेश हिन्दू महासभा की कार्यकारिणी ने हिन्दुओं को दिया.

जिस दिन भारत को स्वतंत्रता मिली, संघ ने उस दिन काला दिन घोषित किया था. नागपुर में 24 जुलाई 1945 को गुरू पूर्णिमा की सभा में सरसंघ चालक गुरू गोलवलकर ने स्वयंसेवकों से कहा कि , “भगवा ध्वज हमारी महान संस्कृति का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है. इस ध्वज का अर्थ है परमेश्वर का मूर्त रूप. मेरा अटूट विश्वास है कि अंतत: एक दिन सारा राष्ट्र भगवा को प्रणाम करेगा.” (श्रीगुरूजी संग्राम दर्शन, खंड 1, 98)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने 14 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र होने वाला था, अपनी बेचैनी व्यक्त करते हुए ‘तिरंगा के पीछे क कोड़ा’ शीर्षक के तहत लिखा था, “दैव योग से सत्ता प्राप्त करने वाली मंडली हमारे हाथ में तिरंगा देगी. लेकिन उस ध्वज को हिंदू कभी अपना ध्वज नहीं मानेंगे, उसका आदर नहीं करेंगे. तिरंगे की तीन संख्या शैतानी संख्या है झंडे का तीन रंग अत्यंत बुरी मानसिकता का निर्माण करेगा. ये तीन रंग देश के लिए घातक सिद्ध होंगे.” (ऑर्गनाइजर, 14 अगस्त,1947)

(मराठी लेख का हिन्दी अनुवाद, सुशील, आरा, ने किया है.)