ईरान से आगे रूस के लिए वीसा लेने में उन्हें भारी मशक्कत करनी पड़ी. रूसी अधिकारी उनकी लम्बी पैदल यात्रा के कार्यक्रम से असहज थे, और यह सोच कर परेशान कि बिना मांसाहार और मदिरा के ये दो शांतिदूत रूस की उस खून जमा देने वाली सर्दी का क्योंकर मुकाबला कर पाएंगे कि जिसके सामने हिटलर और नेपोलियन की सेनाओं ने घुटने टेक दिए थे. आखिरकार दोनों को चार महीने का वीसा दे दिया गया और सोवियत रूस में उनका अपेक्षाकृत ज्यादा गर्मजोशी से स्वागत हुआ. लेकिन एक दिन अचानक उनके वीसा की अवधि को घटा कर अधिकारियों ने उन्हें सीधे मास्को से वारसा के हवाई टिकट थमा दिए.

लेकिन सतीश और प्रभाकर अड़ गए - उन्होंने न तो हवाई यात्रा की, न ही अपने वीसा की मौलिक अवधि से पहले रूस छोड़ने के लिए तैयार हुए. अविश्वसनीय ढंग से वे पूरे पैंतालीस दिनों तक सोवियत संघ की अनधिकृत यात्रा करते रहे. लोगों से मिलते जुलते, सभाओं में भाग लेते, इंटरव्यू देते. कहीं भी उन्हें रोका टोका नहीं गया, न ही रूस-पोलैंड की सीमा पर कोई खास परेशानी हुई.

पोलैंड के बाद पूर्वी जर्मनी होते हुए जब वे पश्चिमी जर्मनी पहुंचे तो बर्लिन की दीवार अभी खड़ी ही हुई थी. कम्यूनिस्ट देशों से होकर आने के कारण पश्चिमी जर्मनी में उन्हें संदेह की नजर से देखा जा रहा था और अधिकारियों का व्यवहार रुक्ष था. एक जगह पुलिस ने उनके पर्चे-वर्चे भी छीन लिये. इससे भी बुरी गुजरी फ्रांस में. तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति चार्ल्स द गॉल ने निशस्त्रीकरण के सभी प्रयासों को ठेंगा दिखाते हुए आक्रामक परमाणु कार्यक्रम चला रखा था. उसके खिलाफ दोनों मित्रों ने राष्ट्रपति भवन के सामने ही भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी. नतीजतन न सिर्फ वे गिरफ्तार कर लिये गए, बल्कि फ्रांस सरकार ने उन्हें अवांछित घोषित करके उन्हें दिल्ली वापस भेजने की भी तैयारी कर ली. भारतीय राजदूत अली यावर जंग के हस्तक्षेप के बाद अंततः उन्हें पदयात्रा समाप्त कर ट्रेन और स्टीमर से लंदन जाने की इजाजत दी गयी.

लंदन में माहौल अपेक्षाकृत खुला खुला भी था, और भाषा की समस्या भी नहीं थी. चूंकि आगे अमरीका की यात्रा विमान से करनी थी, तो उन्होंने बीबीसी आदि से साक्षात्कार के बदले पैसे भी स्वीकार किये. अमरीका का वीसा लेने में फिर घनघोर दिक्कत आयी. बारंबार एक ही प्रश्न - आप कम्युनिस्ट तो नहीं ? आखिरकार गांधी के नाम की कुंजी काम आयी. जब उन्होंने बताया कि वे गांधीवादी हैं तो झट से वीसा मिल गया.

इन कठिनाइयों से इतर भी उनकी यात्रा में अनेक स्मरणीय प्रसंग आए. खैबर दर्रे में कंधे पर बंदूक लटकाए एक लहीम-शहीम पठान का सन् 62 में गांधी का कुशल क्षेम पूछना, पाकिस्तान में भारतवर्ष के मुसलमानों के हालात के बारे में और पदयात्रियों की जाति के बारे में कदम-कदम पर दरयाफ्त, एक ईरानी मेजबान का अपने नन्हें बेटे का विवाह सतीश की सद्यजात बेटी से करने का संकल्पय, कुर्ता पजामा पहन कर ईरान के शाह रजा पहलवी से मुलाकात, एक रूसी किसान द्वारा एक बर्फानी रात में उन्हें शरण देना, लेकिन उसकी पत्नी द्वारा आसमान सर पर उठा लेने के कारण उनका पलायनय, एक दूसरे रूसी किसान की बेटी द्वारा स्थानीय परंपरा के अनुसार उनका पांव पखारना, एक मेजबान गांव के सामूहिक अनुरोध पर उनका मदिरा के पात्र को मुंह लगाना, एक पोलिश स्कूल के प्रधानाध्यापक द्वारा उनको स्कूल से निकाल दिया जाना और उसी स्कूल के एक विद्यार्थी द्वारा इस दुर्व्यवहार के परिमार्जन हेतु अपने घर पर भोजन कराना आदि आदि.

ऐसा भी नहीं कि सतीश के संस्करण पूरी तरह पूर्वाग्रह मुक्त हों - वे सोवियत संघ से इस कदर अभिभूत थे कि वहां उनको कहीं भी कहीं दोष नहीं दिखा. न गैर रूसी गणराज्यों का शोषण, न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव, न एकदलीय लोकतंत्र की तानाशाही. जबकि पश्चिमी जर्मनी और अमेरिका आदि की शानदार प्रगति के पीछे उन्हें बस शोषण और साम्राज्यवादी प्रकल्प ही दिखता था. आज यह थोड़ा एकांगी लगता है. फिर भी सतीश और प्रभाकर का संस्मरण उस समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था. अत्यंत रोचक तो खैर था ही.