एक वैचारिक समूह (वाहिनी मित्र मिलन), धर्मनिरपेक्षता के प्रति जिसकी निष्ठा असंदिग्ध है, पर कर्नाटक के हिजाब विवाद पर हुई चर्चा के क्रम में वाहिनी समूह पर दो मुसलिम साथियों ने मुस्लिम संकीर्णता और इसे बढ़ावा दे रहे एक संगठन का मुद्दा उठाया है. उनमें एक शाहिद कमाल हैं, जो संभवतः ‘सजप’ से जुड़े हुए हैं. उससे उत्साहित होकर मैंने भी कुछ लिखा, पर सार्वजनिक करने से हिचकता रहा हूं. वह हिचक छोड़ रहा हूं. वैसे, उस समूह पर यह चर्चा आगे बढ़ गयी है- ‘देर आये, दुरुस्त आये’ शाहिद कमाल जी. सोचा था कि कर्नाटक हिजाब के बहाने उत्पात से उठा गर्दो-गुबार थोड़ा थम जाये, तभी इस पर कुछ लिखना उचित होगा. मगर आपका और जाहिद के पोस्ट देख कर लगा कि कोई हर्ज नहीं है. वैसे, भी यह समूह सही मायनों में सार्वजानिक नहीं है. हम एक वैचारिक सांगठनिक धारा से जुड़े लोग हैं. कम से यहाँ इस तरह के मुद्दों पर खुले मन चर्चा हो सकती है. होनी चाहिए. इसी बीच एक समूह पर अपने रामशरण जी का एक पोस्ट दिख गया, जिसमें उन्होंने हिजाब की तुलना सिखों की पगड़ी से की है. उनका जवाब लिख रहा था. अब उसे यहीं परोस रहा हूं.

माफ कीजिये, पगड़ी और हिजाब एक समान नहीं है. सिख धर्म में बाल नहीं कटवाने की शर्त है. इस कारण पगड़ी जरूरी है. इसीलिए संविधान में उनको कहीं भी पगड़ी पहनने का अधिकार दिया गया है. हिजाब उसी तरह इसलाम की अनिवार्य शर्त नहीं है. यदि है तो हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को क्या इसलाम विरोधी या गैर मुसलिम माना जाता है? माना जा सकता है? नहीं. फिर यह भी देखिये कि कितनी फीसदी मुस्लिम महिलाएं हिजाब या बुर्के का इस्तेमाल करती हैं? और जो करती हैं, उनमें से भी कितनी ‘स्वेच्छा’ से करती हैं? या कि परिवार और समाज के दबाव में ऐसा करती हैं.

यह भी पता करने, देखने की बात है कि हाल के वर्षों में मुसलिम महिलाओं में बुर्के या हिजाब का चलन-शौक कैसे और क्यों बढ़ गया है. छोटी बच्चियां तक हिजाब में दिखने लगी हैं. जो परिवार या अभिभावक अपने घर की लड़कियों को बिना बुर्का या हिजाब लगाये बाहर जाने से रोकता है, उसकी पढ़ाई छुड़वा देता है, उनक क्या कहेंगे? आज मुसलिम लड़कियां भी उच्च व तकनीकी शिक्षा हासिल कर रही हैं. नौकरी कर रही हैं. खेल, कला और फैशन की दुनिया में नाम कमा रही हैं. सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं.

जाहिर है कि उस समाज में भी आधुनिकता आ रही है. तब यह ट्रेंड क्या सहज और समर्थनीय है? आज बैंक में खाता खुलवाना हो, मतदाता पहचान पत्र या पासपोर्ट बनवाना हो, कोई महिला धर्म की आड़ में चेहरा ढंके रहने की जिद नहीं कर सकती. अब करती भी नहीं है. मगर हिजाब और बुर्के के चलन के मामले में विपरीत स्थिति है. बीस, तीस वर्ष पहले की तुलना में नजारा एकदम बदल गया है. ऐसा स्वेच्छा से हुआ या इसके लिए बाकायदा प्रयास किया गया? अफगानिस्तान युद्ध के कारण या बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद हुआ हो, इसे सकारात्मक बदलाव तो नहीं ही कह सकते. सवाल है कि हिजाब का बढ़ता चलन स्वेच्छा का नतीजा है या कंडीशनिंग/अनुकूलन का? इसी अनुकूलन के कारण तो शिक्षित व ‘आधुनिक’ हिंदू महिलाएं भी पुरुष श्रेष्ठता को स्थापित करनेवाले तीज-जितिया और करवा चैठ जैसे त्यौहार उत्साह से मनाती हैं और उनके समर्थन में तर्क भी देती हैं.

वैसे भी धर्म की आड़ में किसी तरह के भेदभाव का समर्थन हम कैसे कर सकते हैं! हिजाब के नाम पर उत्पात कर रहे तत्वों का मकसद हम समझते हैं. उसका विरोध करते हैं. हिजाब के कारण किसी को प्रताड़ित किया जाता है, तो हमें जरूर उसके पक्ष में खड़े होना चाहिए. मगर इस कारण मूलतः स्त्री विरोधी नियमों परंपराओं के पक्ष में खड़ा होना क्या सही होगा?