कांग्रेस का अवसान, जिसका कयास समय समय पर लगाया जाता रहा है और अभी पांच रा’ज्यों के चुनाव नतीजों के बाद और जोर से लगने लगा है, मेरी समझ से कोई आह्लादकारी परिघटना नहीं होगी। यह मैंने तब लिखा था, जब ममता बनर्जी कांग्रेस के बगैर एक राष्ट्रीय विकल्प बनाने की मुहिम चला रही थीं और कांग्रेस से चिढ़ने वाले कुछ सेकुलर व उदार भाजपा विरोधी उस पर गदगद थे। अब फिर वह मुहिम शुरू हो सकती है, लेकिन मेरी राय में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। कांग्रेस को किनारे कर भाजपा का कोई कारगर विकल्प बनना अब भी मुमकिन नहीं लगता। बनेगा भी तो भाजपा को तत्काल उसका लाभ ही मिलेगा। हां, ऐसे गंठजोड़ में अब कांग्रेस की हैसियत कमजोर जरूर होगी।

’गैर कांग्रेसवाद’ नहीं, ‘गैर भाजपावाद’ है वक्त की जरूरत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत पहले ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ को अपना लक्ष्य घोषित कर चुके हैं। मगर आश्चर्य कि अनेक घोषित मोदी विरोधी नेता और दल भी समय समय पर परोक्ष रूप से मोदी जी के सुर में सुर मिलाने लगते हैं। यह लंबे समय से उनके जेहन में बसे ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का नतीजा है या इसी बहाने वे भाजपा की मदद करना चाहते हैं, पता नहीं। इनमें कुछ कथित समाजवादी हमेशा रहे हैं। फिलहाल यह झंडा कभी कांग्रेसी रही ममता बनर्जी ने उठा रखा है।

ऐसे में सहज सवाल उठता है कि यह गैरकांग्रेसवाद प्रकारांतर से 2024 में मोदी की राह तो प्रशस्त नहीं करेगा? सवाल यह भी है कि 67 में वह महज चुनावी रणनीति थी या उसके पीछे कोई सिद्धांत भी था?

ऐसा नहीं लगता कि उस गैर कांग्रेसवाद ने ही बाद में कथित समाजवादियों को भाजपा से गंठजोड़ करते रहने का तर्क या बहाना मुहैया करा दिया?

जो ममता बनर्जी आज इस मुहिम में लगी हैं, उनको इंदिरा गांधी के वंशवाद, उनके अधिनायकवादी चरित्र और अंदाज से लेकर इमरजेंसी में कुछ गलत नहीं दिखा। राजीव गांधी से कोई परेशानी नहीं हुई। हमें याद है कि 74 में जब ये यूथ कांग्रेस में थीं, कोलकाता में जेपी की कार के बोनट पर चढ़ कर नाच रही थीं। बेशक किसी में बदलाव हो सकता है। ममता भी बदलीं, लेकिन किस दिशा में? कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस बनाया, जो एनडीए का हिस्सा बनी। वाजपेयी सरकार में शामिल रहीं। याद नहीं कि मोदी जी के संरक्षण में हुए गुजरात दंगों के समय वे केंद्र में मंत्री थीं या नहीं और थीं तो वे कुछ बोली भी थीं या नहीं।

फिर वे सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली यूपीए में शामिल हो गयीं। मंत्री बनीं और सेकुलरिज्म का झंडा थाम लिया।

तो सवाल है कि उनका यह नया रूप केंद्रीकृत अधिनायकवाद के खिलाफ ही है, यह भरोसा कैसे किया जाये? क्या पता, कांग्रेस की कमजोरी और नेतृत्व विहीनता को देख कर खुद उनमें प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जग गयी हो! ऐसा तो नहीं कि इसके लिए 24 में भले ही मोदी जीत जायें, कांग्रेस को और कमजोर करने की रणनीति पर चल रही हैं!

मगर ध्यान रहे, कांग्रेस आज जिस भी गर्त में हो, तीन राज्यों- पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़- में वह सत्ता में थी। झारखंड और महाराष्ट्र में वह साझा सरकार का हिस्सा है। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा और केरल में वह मुख्य विपक्षी दल है। पूर्वोत्तर राज्यों को फिलहाल छोड़ दें। संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तो है ही। पिछले लोकसभा चुनाव में वह दो सौ सीटों पर भाजपा से सीधे मुकाबले में थी।

धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता संदिग्ध हो सकती है। मगर सच यह भी है कि देश के प्रमुख दलों में माकपा और राजद के अलावा सिर्फ कांग्रेस ही है, जिसने कभी भाजपा से प्रत्यक्ष गंठजोड़ नहीं किया है। ऐसी पार्टी को किनारे कर यदि कोई भाजपा- मोदी का विकल्प खड़ा करने की बात भी करता है, तो उसकी समझ और मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है। वैसे फिलहाल यह दूर की कौड़ी है। शिवसेना ने कह दिया है कि कांग्रेस के बिना कोई विपक्षी एकता-गंठजोड़ बेमानी है। शरद पवार ने भी उनको कुछ ऐसी ही नसीहत दी है।

लोकतंत्र, बहुलतावाद, सेकुलरिज्म और संविधान की महत्ता में यकीन करने वाले किसी भी जागरूक शख्स को इस बात से असहमति नहीं हो सकती कि ‘गैर कांग्रेसवाद’ नहीं, आज की जरूरत ‘गैर भाजपावाद’ है, जिसका स्पष्ट विचारधारात्मक आधार भी है।

कोई शक नहीं कि उसका मौजूदा नेतृत्व अक्षम और दिशाहीन साबित हो रहा है, मगर कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन का मामला उस पार्टी का आंतरिक मामला है। दिक्कत यह भी है कि ‘परिवार’ का खूंटा न रहे, तो वह बिखर भी सकती है। कोई वैकल्पिक नेतृत्व इतनी आसानी से मान्य भी नहीं होगा। ऐसे सभी संभावित दावेदार एक दूसरे की टांग खींचेंगे. इसलिए भी शीर्ष पद का ‘रिजर्व’ रहना बहुतेरे कांग्रेसियों को सूट करता है। और यह आशंका भी निराधार नहीं है कि वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति बनाने की प्रक्रिया में कहीं पार्टी एक और टूट का शिकार न हो जायेगी। कांग्रेस नहीं, ‘कांग्रेस विचार’, जो मध्यमार्गी है और समन्वय पर टिकी है, को खत्म होते देखना भी शायद बहुतों की आकांक्षा है।