अनुकूलता और प्रतिकूलताओं के बीच ही इन्सान रास्ता तय करता रहा हैं. हर दौर की अपनी अपनी चुनौतियाँ रही हैं. समाज के लोगों ने उन कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष के रास्ते नहीं छोड़े. समुदायिक और व्यक्तिगत दोनों ही स्तर पर जीवन को सरल बनाने की कोशिश की गयी.
हम रंग, मजहब, समुदाय, वर्ग, वर्ण और धर्म की चाशनी में डूबे हैं. हमारी पहचान इसी से तय की जाती रही है. पर आज यही पहचान इन्सान को बांट रही हैं. हम कट्टरता की हद में आ गये हैं. हम अपनी पहचान बचाने और उसे बनाये रखने के लिए बंधुता की बात नहीं करते. हम एक दूसरे से टकरा रहे हैं. स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय इन्सान के केंद्रीय भाव हैं. आज भी आप यदि ऐसे आदिवासियों के बीच जायें, जो मुख्य धारा से दूर हैं, वहां आप इन मूल्यों को आत्मसात किये लोगों को पाएंगे. हमें वहां से सीख लेना चाहिए.
आदिवासियों के बीच भी कई ऐसे कारक हैं जिसमें अंधविश्वास और डायन जैसे हथियार हैं, जिससे वे टूटे और बंटे हैं. अब उनके बीच बहुत सारे पंथ और धर्म हैं. धर्म ने भी बांटने और उन्हें तोड़ने का काम किया है. आदिवासियों की सामूहिकता में जो शक्ति थी आज धर्म के ठेकेदारों के कारण टूटी है.
मैं खुद भी ईसाई आदिवासी हूंँ और इस मीठे दर्द से जूझ रही हूँ. हमारे बीच आज सरना, टाना और बिरसायत भी ब्रह्मणवाद से अछूते नहीं हैं. पहली लड़ाई तो यही से है.
आज से 25 -30 साल पहले धार्मिक आतंक नहीं के बराबर था. गांव के अखड़ा में 100 - 200 लोग जुटते रहे थे. विभिन्न समाजिक सास्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए. अब यह संख्या और स्थिति दोनों ही कम हो गयी है. कम होने के अनेक कारण हैं, जिसमे हमारा नजरिया भी कम मह्त्वपूर्ण नहीं है.
हम कितना खुद को जोड़ पा रहे हैं और आदिवासी मूल्यों को आत्मसात कर पा रहे है?