हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी देश के वित मंत्री ने संसद में वित्तीय वर्ष 17- 18 के लिए बजट प्रस्तुत किया. बजट के एक दिन पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद वित मंत्री ने विगत वर्ष की आर्थिक उपलब्धियों को गिनाने के लिए आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सदन के सामने रखा. रिपोर्ट में कहा गयाकि महात्मा गांधी के सपने को साकार करने के लिए हर आंख से हर आंसू को पांेछना है. इसके लिए आवश्यक है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम-यूबीआई- को अमल किया जाये. इससे गरीब को भी कुछ आय हो जायेगा. आर्थिक सरर्वेक्षण में यह कहा गया कि यह गरीबी को कम करने का एक शक्तिशाली विचार है, यद्यपि इसको लागू करने का परिपक्व समय अभी नहीं आया है. लेकिन उस पर विचार करने या बहस चलाने का अब समय आ गया है. सर्वेक्षण में यह भी कहा गया कि आजादी के समय की 70 फीसदी गरीबी सरकार के प्रयासों से वर्ष 11-12 तक 22 फीसदी पर आ गई. यह एक बड़ी उपलब्धि है, ऐसा तेंदुलकर कमेटी का कहना है. सरकार के बजट का उद्देश्य हर मुंह तक भोजन पहुंचाना है, न कि भोजन की कैलोरी की चिंता करनी है. यूबीआई को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना गया कि अब तक सरकारों ने जितनी भी कल्याणकारी योजनाएं बनाई हैं, उनमें कई तरह की खामियां रही हैं. ये योजनाएं या तो गरीबों तक पहुंचती नहीं हैं या भ्रष्टाचार की बली चढ जाती हैं. या फिर सही तरीके से लागू नहीं हो पाती हैं. केंद्रीय सरकार द्वारा 950 योजनाएं चलाई जाती हैं जो स्वयं केंद्र सरकार या उसकी मदद से राज्य सरकारें चलाती हैं. लेकिन ये सारी योजनाएं प्रभावकारी ढंग से कहीं भी नहीं चलाई जा रही हैं. इसका मुख्य कारण यह माना जाता है कि केंद्र तथा राज्य सरकारों में सामंजस्य की कमी है. राज्य सरकारें योजनाओं को चलाने में कमजोर पड़ जाती हैं. आर्थिक सर्वेक्षण का सुझाव है कि गरीबी दूर करने की दिशा में उत्तम प्रयास यही होगा कि यूबीआई के माध्यम से आर्थिक संसाधनों पर गरीबों को प्रत्यक्ष अधिकार दिया जाये. आर्थिक सर्वेक्षण में यूबीआई की योजना को चलाने की सलाह सरकार को देते हुए इस पर विचार की बात कही गई है. इस योजना की रूप रेखा या अमल करने के तरीकों पर कोई बात नहीं की गई. गौर करने वाली बात यह है कि गरीब या सबसे गरीब किसको कहा जाये, सरकार ने इसका निश्चित मापदंड अब तक तय नहीं किया है. महात्मा गांधी के विचारों को आधार बनाते हुए यह जरूर कहा गया है कि सबसे गरीब व्यक्ति को आय प्राप्ति का साधन दिया जाये तो गरीबी हटेगी. महात्मा गांधी ने जब कहाकि समाज का अंतिक जन ही आर्थिक प्रगति का आधार है, तो इसका अर्थ यह होगा कि जब अंतिम व्यक्ति की सभी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होंगी, तभी वह समाज आर्थिक रूप से उन्नतिशील होगा. महात्मा गांधी की आर्थिक परिकल्पना ग्रामीण अर्थ व्यवस्था से जुड़ी है. जबकि, आजादी के बाद से ही हम जिस अर्थ व्यवस्था की कल्पना करते हैं, उससे संबंधित सारी योजनाएं शहरों पर आधारित है. उद्योगों पर निर्भर योजनाएं हैं. इस तरह की अर्थ व्यवस्था में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढती जाती है. संगठित क्षेत्र में काम करने वाले तो आर्थिक रूप से सुरक्षित होते जाते हैं और उद्योगों में पूंजी लगाने वाले लोगों के पास पूंजी केद्रीकृत हो जाती है. इसके अलावा आर्थिक संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों का आधिपत्य हो जाता है जबकि दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र के मजदूर आर्थिक रूप से पिछड़ते जाते हैं. इसकी पुष्टी विश्व आर्थिक सम्मेलन के समय आॅक्सफोम द्वारा जारी सर्वेक्षण से भी हुई है जिसके अनुसार भारत के सबसे धनी एक प्रतिशत व्यक्तियों के पास देश की कुल संपत्ति का 58 फीसदी जमा है जो विश्व रिकार्ड से भी अधिक है. विश्व के आठ फीसदी धनी व्यक्तियों के पास विश्व की 50 फीसदी जनसंख्या की संपत्ति के बराबर संपत्ति है. संपत्ति के इस असमान बंटवारे के बीच हम कल्पना करें कि देश के संसाधनों पर सबसे गरीब लोगों का भी अधिकार होगा, तो यह अतिशयोक्ति ही होगी. इस वित्तीय वर्ष की योजना के संबंध में सरकार ने यह ऐलान किया कि यह योजना गरीब किसान मजदूर आदि को ध्यान में रख कर बनाया गया है, लेकिन आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह योजना केवल सरकार अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए बनाई है. योजना के पूर्व सरकार ने नोटबंदी कर कालेधन को एकत्रित करने का दावा किया था. लेकिन इस योजना में कहीं इसका जिक्र नहीं आया है कि नोटबंदी से कितना काला धन जमा हुआ और उसका प्रभाव हमारी अर्थ व्यवस्था पर कैसा पड़ेगा. नोटबंदी का सबसे ज्यादा विपरीत असर गांव से आये गरीब मजदूर, छोटे और मंझोल उद्योगों पर पड़ा. मजदूरों की नौकरियां चली गई और उन्हें गांव लौटना पड़ा, क्योंकि छोटे उद्येग बंद हो गये. इसलिए सरकार ने नरेगा में अब तक कि सबसे ज्यादा राशि 48 हजार करोड़ आवंटित कर ज्यादा से ज्यादा काम गरीबों को देने का आश्वासन दिया. यद्यपि यही लोग पिछले सरकार की नरेगा योजना की कटु आलोचना करते रहे हैं. मंझोले ओर छोटे उद्योगों के करों में 5 फीसदी की कमी कर उन्हें पुनरजीवित करने की बात कही है. किसानों के कर्ज की सीमा बढा कर या सिंचाई के लिए पांच लाख तालाब बनाने का आश्वासन देकर सरकार ने गांवों के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन किया है. शहरी वेतन भोगी, उद्योगपतियों को दी गई सुविधाओं का वर्णन यहां अनावश्यक है, जबकि नोटबंदी का उन पर सबसे कम असर पड़ा. ठीक बजट की घोषणा के पहले यूबीआई शगूफा छोड़ कर सरकार ने भले ही गरीबों के प्रति अपनी हमदर्दी जताना चाहा है, लेकिन यह मात्र लोगों का ध्यान भटकाना है. आजादी के सत्तर बहत्तर साल बाद भी देश के अंतिम व्यक्ति को खाना देने की बात पर सरकार विचार करने का आश्वासन देती है, यह उसकी महानता है. जिस सरकार को यह भी पता नहीं कि गरीबी का क्या मापदंड है, उनके देश में कितने फीसदी लोग गरीब है, वैसी सरकार भला गरीबों के लिए क्या योजना बनायेगी. महात्मा गांधी के विचारों को ग्रहण करने की राजनीतिक नाटकबाजी अब लोगों को समझ में आ रही है. केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए गरीब, आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर और औरत की भलाई की बात करके नारेबाजी करना ही राजनीतिक दलों का काम रह गया है. महात्मा गांधी का अंतिम व्यक्ति तो यह सब समझता भी नहीं है. उसके आंख के आंसू सूख चुके हैं. वह जानता है कि उसे अपनी मदद खुद करनी है. इसलिए वह अपने श्रम की पूंजी ले कर एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है और अपना जीवन यापन कर लेता है. सरकार उसके आंसू पोंछने के लिए घड़ियाली आंसू न बहाये.