भाजपा की जीत पर खुश होना कठिन है। जिस पार्टी को हर जगह हराने की ख्वाहिश हो उसकी जीत पर खुश हुआ भी कैसे जा सकता है? लेकिन अरविंद केजरीवाल की पार्टी की हार पर निश्चित तौर पर खुशी है। उनका हारना भारतीय राजनीति में मौकापरस्त और मूल्यविहीन राजनीति की हार है।

अन्ना आंदोलन से लेकर आज तक का अरविंद केजरीवाल का सफर देखें तो वह सिर्फ झूठे वादों का सफर है। जन भावनाओं को उभारना और फिर उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना उनकी राजनीतिक शैली रही है।

पाठकों को याद होगा कि अन्ना आंदोलन में सबसे पहले मंच पर भारत माता की बड़ी तस्वीर लगाई गई थी। लेकिन केजरीवाल एंड कंपनी ने जब देखा कि उससे इतना ज्यादा आकर्षण नहीं आ रहा है, तो तुरंत उन्होंने अन्ना हजारे के पीछे महात्मा गांधी का बड़ा चित्र लगा दिया।

आरएसएस के इशारे पर काम कर रहे अरविंद केजरीवाल रातों-रात त्याग तपस्या की मूर्ति और ईमानदारी का चोला ओढ़ कर गांधीवादी बन गए। कई बार उन्होंने राजघाट पर बापू की समाधि पर मौन व्रत और शांतिपूर्ण धरना भी दिया। लेकिन पहला मौका पाते ही उन्होंने अपने मुख्यमंत्री कार्यालय और फिर पंजाब में बनी सरकार के मुख्यमंत्री के कार्यालय से भी महात्मा गांधी की तस्वीर गायब कर दी।

केजरीवाल की मौकापरस्ती का यह बहुत बड़ा उदाहरण है। आरएसएस हमेशा से गांधी की विचारधारा का विरोधी रहा है लेकिन आरएसएस की पार्टी भाजपा के नेताओं ने भी कभी महात्मा गांधी की तस्वीर हटाने की हिम्मत नहीं की। कम्युनिस्ट पार्टियां भी गांधी जी की विचारधारा से अलग हैं, लेकिन उन्होंने भी बापू का चित्र नहीं हटाया। समाजवादी परिवार की पार्टियों और द्रविड़ पार्टियों ने भी यह काम नहीं किया। क्यों, क्योंकि अंततः ये सब खुद को भारत की पार्टियां मानती हैं तो राष्ट्रपिता का चित्र हटाना लगभग वैसी ही बात है, जैसे कोई तिरंगा हटाने लगे।

लेकिन अरविंद केजरीवाल को यह करने में ना तो दिक्कत हुई और ना शर्म आई।

जहां तक विचारधारा का सवाल है, तो देश में कांग्रेस पार्टी गांधीवादी सेकुलर राजनीति की प्रतिनिधि पार्टी है। भारतीय जनता पार्टी सावरकर की हिंदुत्व पर आधारित सांप्रदायिक विचारधारा की पार्टी है। कम्युनिस्ट पार्टियां सेकुलर और मार्क्सवाद को लेकर चलती हैं। क्षेत्रीय पार्टियों सेक्युलरिज्म क्षेत्रीय मुद्दे और जातिगत अस्मिता के आसपास खड़ी हैं।

केजरीवाल की पार्टी की विचारधारा क्या है? उन्हें किसी रूप में सेक्युलर नहीं कहा जा सकता। दिल्ली का मुसलमान उन्हें तीन चुनाव से वोट दे रहा है लेकिन शाहीनबाग में महिलाओं के धरने प्रदर्शन में मुख्यमंत्री केजरीवाल या उनका कोई व्यक्ति नहीं गया। दिल्ली के दंगों में उनकी भूमिका मुस्लिम विरोधी रही। सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर वे खामोश रहे। भारत के इतिहास में जब पहली बार कश्मीर के रूप में किसी राज्य का पूर्ण राज्य का दर्जा छीन कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया तो केजरीवाल ने सबसे पहले उसका स्वागत किया।

और राजनीति में शुचिता और ईमानदारी की बात करने वाले केजरीवाल अंततः शराब घोटाले में फंस गए। मैं नहीं जानता कि वाकई यह घोटाला हुआ या नहीं, इसमें केजरीवाल या उनके लोगों ने पैसा खाया या नहीं, लेकिन इतना तो सब लोग जानते हैं कि उन्होंने दिल्ली के घर-घर में शराब आसानी से उपलब्ध कराने की नीति बनाई थी। कम से कम यह नीति उस नैतिकता के बिल्कुल उलट है, जिसका स्वांग केजरीवाल भरा करते थे। उनके आलीशान सरकारी बंगले की नुमाइश भी उनके सादगी के अभिनय पर भारी पड़ी।

जब इन सब बातों को एक साथ मिला कर देखते हैं तो सोचना पड़ता है कि अगर भाजपा की जगह केजरीवाल जीत जाते तो आखिर भारत के संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को कोई फायदा होने वाला तो नहीं था।

असल में उनकी विचारधारा फासीवाद के अलावा कुछ नहीं है। फासीवाद का मतलब सिर्फ यह नहीं होता की काली शर्ट पहन कर गुंडों की एक फौज देश के शासन पर समांतर कब्जा कर ले। फासीवाद की एक परिभाषा यह भी होती है कि जिसकी विचारधारा सिर्फ सत्ता प्राप्त करना हो, वह फासीवादी है। जो सत्ता प्राप्ति के लिए दुष्प्रचार और चरित्रहत्या को अपना हथियार बनाए, वह भी फासीवादी ही होता है। फासीवाद की इस कसौटी पर केजरीवाल खरे उतरते हैं।

इसलिए कांग्रेस पार्टी ने अच्छा ही किया जो अपने दम पर चुनाव लड़ा 6.4 फीसदी से अधिक वोट पाया और केजरीवाल की पार्टी करीब 2.4 प्रतिशत वोट से भाजपा से हार गई। केजरीवाल ने दिल्ली, पंजाब, गोवा, गुजरात, हरियाणा और उत्तराखंड सब जगह कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाया। इतना नुकसान खाने के बाद कम से कम कांग्रेस की यह नैतिक या रणनीतिक जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं थी कि वह भाजपा की बी टीम केजरीवाल की पालकी अपने कंधे पर ढोये। बाकी दलों को भी केजरीवाल की इन बातों को समझना चाहिए। और उन प्रश्नों की तरफ भी सोचना चाहिए जो राहुल गांधी उठा रहे हैं। यानी संविधान पर हमला, आरक्षण पर खतरा और वोटर लिस्ट में धांधली।