छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम - सीएनटी और एसपीटी- को लेकर सरकार और विपक्ष, दोनों सियासत-सियासत का खेल खेल रही है. दोनों एक दूसरे को घेरने, दबोचने, डुबोने पर आमदा हैं, लेकिन कड़वा सच यह है कि हमाम में सभी नंगे हैं. झारखंड में पहली सरकार बाबूलाल मरांडी की बनी थी. स्वयं बाबूलाल मरांडी ने आदिवासी हित के नाम पर सीएनटी और एसपीटी से संबंधित भूखंडों की खरीद बिक्री को हर किसी के लिए फ्री करने का प्रस्ताव दिया था. उसमें विपक्ष के कई विधायकों की भी अपरोक्ष सहमति थी. परंतु शिबू सोरेन ने खून की नदी बहाने की धमकी दे कर सबको चुप कर दिया था. यह बात दीगर है कि जब शिबू सोरेन और उनके पुत्र, दोनों मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भी सीएनटी, एसपीटी वाले भू खंड में खरीद- बिक्री के प्रतिबंध को संशोधन करने का प्रस्ताव रखा था. उनका प्रस्ताव था कि थाना का बेरियर हटा कर किसी भी आदिवासी को किसी भी आदिवासी से भूखंड खरीदने का अधिकार होना चाहिये. उनके इस प्रस्ताव पर बहुत शोर नहीं हुआ, इसलिए कि शोर कर सकने वाले आदिवासी भी इससे सहमत थे. इसी से मिलता जुलता प्रस्ताव अपने मुख्यमंत्रीत्व काल मे अर्जुन मुंडाने भी रखा था. लेकिन इन सबकी सरकारों में बहुमत का टोटा था, जोड़-तोड़ कर सरकार बनी थी, सभी एक दूसरे को पटखनी दे कर सरकार बनाने में लगे थे. मधु कोड़ा भी चूके नहीं. 2014 के विधानसभा चुनाव में पिछले 14 सालों के खंडित जनादेश की तरह ही जनादेश आया. परंतु रघुवर दास ने अपने पुराने मित्र बाबूलाल मरांडी की पार्टी के विधायकों को मंत्री पद और न जाने क्या-क्या लालच दे कर बहुमत हासिल कर ली. केद्र के मुखिया नरेंद्र मोदी की तरह यहां भी भाजपा का एकछत्र राज स्थापित कर लिया. ग्लोबलाईजेशन के बाद से सभी राजनीतिक दलों की समझ यही है कि उद्योगपति ही उद्धार कर सकते हैं. मित्तल के खिलाफ दयामनी बारला के नेतृत्व में हुए आंदोलन से मित्तल को वापस जाना पड़ा था, जबकि अर्जुन मुंडा ने मित्तल को लाने के लिए हवाई अड्डा में रेड कारपेट बिछवाया था. रधुवर दास उस समय मंत्री थे, शायद उसी समय उन्होंने तय कर लिया था कि सरकार बनी तो भू कानूनों में संशोधन जरूर करेंगे. उन्होंने कर दिया. यह भी एक तथ्य है कि सीएनटी, एसपीटी के प्रावधानों को ठीक से नहीं जानते हुए भी आदिवासियों को यह लगता है कि इसी कानून से वे बचे हुए हैं. उनकी इस भावना का विपक्ष भरपूर लाभ उठा रहा है. हालत तो यह हो गई है कि सरकर में शामिल आदिवासी विधायकों को भी अपने इलाके में इस मुद्दे पर अपने वोटरों से जूझना पड़ रहा है. लेकिन रघुवर दास का कहना है कि संशोधन विधान सभा में पारित हुई, सड़क पर लड़ाई करके वापस नहीं हो सकता. लेकिन उन्होंने क्या क्या तिकड़में की वह देखने लायेक है. पहले तो संशोधन विधान सभा में ले जाने के बजाय अध्यादेश जारी कराया, लेकिन राष्ट्रपति ने अध्यादेश लौटा दिया. सरकार ने यह कहा कि जनजातीय सलाहकार पर्षद- टीएसी- में इस संशोधनों को पारित कराया गया था. जबकि टीएसी के सदस्यों ने कहा-‘उन्हें बोलने ही नहीं दिया गया.’ राष्ट्रपति के यहां से लौटने के बाद संशोधनों को शीतकालीन सत्र में पेश किया गया. परंतु विपक्ष ने इस मुद्दे पर सदन चलने ही नहीं दिया. तब भी सरकार ने संशोधन बहुमत के बल पर पारित करा लिया. विपक्ष सड़क पर उतर गया. फिर बजट सत्र आया. यह सत्र भी नहीं चला. सरकार ने विपक्ष के मुख्यमंत्री रहे नेताओं के विरोध के नाटक का पर्दाफाश अखबारों में विज्ञापन और खबर छपा कर किया. परंतु, इस मुद्दे पर आदिवासियों का आक्रोश लगातार जोर पकड़ता जा रहा है. आजसू सरकार का समर्थन दे रहा है. उसके विधायक मंत्री भी हैं. आजसू सुप्रीमो को मंत्री का दर्जा मिला हुआ है. तब भी आजसू संशोधन के खिलाफ सड़क पर सड़क पर उतर गया है. यह नौटंकी की पराकाष्ठा है.