देश में आदिवासी और दलितों की गिनती सबसे वंचित और पिछड़ी आबादी के रूप में होती है और बदलावकारी ताकतें हमेशा से इनकी एकजुटता की बात करती हैं. किसी बड़े बदलाव के लिए आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यकों की एकजुटता जरूरी भी है. लेकिन एकजुटता के लिए आदिवासी और दलित आंदोलनों के फर्क को समझना होगा. तभी एकजुटता भी कायम हो सकती है. कई ऐसे वस्तुगत कारण है, जिनकी वजह से आदिवासी और दलित आंदोलनों की प्रकृति और स्वरूप में फर्क दिखाई देता रहा है. मसलन, दलित आंदोलन मूलतः इसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करता है. दलित आंदोलन एक तरफ तो मंदिरों में प्रवेश के आंदोलनों में सक्रिय रहा है, तो कभी ‘ठाकुर के कुएं’ से पानी लेने के लिए कानूनों के लिए जद्दोजहद करता है और सबसे बड़ा आंदोलन आरक्षण को कड़ाई से लागू करने की मांग है. उना की घटना के बाद एक नई मांग मजबूती से यह उठी है कि दलितों को खेती के लिए जमीन मिलनी चाहिए. आदिवासी आंदोलन कभी भी मंदिरों में प्रवेश का नहीं रहा और न आरक्षण का रहा है. और सत्ता से वह जमीन की मांग भी नहीं करता. वह तो जल, जंगल और जमीन पर अपने नैसर्गिक हक के लिए, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता और पहचान के लिए सदियों से संघर्षरत रहा है और शहादत देता रहा है. आदिवासी आंदोलनों के इतिहास को देखिये, वह हमेशा से जल,जंगल जमीन पर अपने हक और ‘ अपने देश में अपना राज’ की लड़ाई लड़ता रहा है. चाहे वह सिंधो कान्हू और बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अंग्रेजों के शासन काल में चला रक्त रंजित आंदोलन रहे हों या आजादी के बाद सुवर्ण रेखा के विस्थापितों का या ईचा, तपकारा, नेतरहाट फायरिंग रेंज के खिलाफ चले आंदोलन, सबके सब जल, जंगल,जमीन पर अपने हक को अक्षुण्य रखने की लड़ाई हैं. वर्तमान में सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधनों के खिलाफ चल रहा तीव्र आंदोलन भी जल, जंगल, जमीन पर अपने हक को बचाये रखने का ही संघर्ष है. दरअसल, आदिवासी सही अर्थों में विपन्न भी नहीं. न आर्थिक रूप से और न सांस्कृतिक रूप से. वह मंदिरों में प्रवेश के लिए कभी नहीं लड़ा. वह खुले परिवेश में उंचे दरख्तों के नीचे अपने धार्मिक अनुष्ठानों को पूरा कर खुश है. आर्थिक रूप से भी वह आत्मनिर्भर रहा है, क्योंकि उसके पास उसकी जरूरत भर जमीन है. यह अलग बात कि विकास का चालू माडल उसकी सामाजिक-आर्थिक ढांचे के इस वैशिष्ट को नष्ट कर रहा है और उसे विस्थापन और पलायन के लिए मजबूर, लेकिन उसे कभी भी ‘वासगीत’ के पर्चे के लिए संघर्ष करने की जरूरत नहीं पड़ी. और आज तो वह उस विपुल खनिज संपदा का मालिक है जो प्रकृति के साथ उसके रागात्मक संबंधों की वजह से अब तक बचा हुआ है. विडंबना यह कि सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से वर्ण-व्यवस्था से आक्रांत दलित आंदोलन कभी भी बुनियादी संघर्षों की तरफ गया ही नहीं. हर किस्म का मानवीय श्रम वह करता है, लेकिन वह विपन्न है. सदियों से जमीन पर श्रम और पसीना उसका लगता रहा है, लेकिन जमीन पर उसका हक नहीं. तो दलित आंदोलन की दिशा शारीरिक श्रम को प्रतिष्ठित करने की होनी चाहिए, ‘जो जमीन को जोते बोये, वह जमीन का मालिक होये’ की होनी चाहिए, लेकिन अभी भी वह जमीनी संघर्ष की बजाय आरक्षण के संकीर्ण दायरे में फंसा है या कुछ अन्य सामाजिक ताकतों से गठजोड़ कर इसी शोषण और विषमता पर आधारित इसी व्यवस्था में सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहा है. जरूरत इस बात की है कि दलित आंदोलन आरक्षण व सत्ता में हिस्सेदारी के आंदोलन से मुक्त हो जीवन के संसाधनों पर अधिकार के संघर्ष के लिए, शोषण और विषमता पर आधारित इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में प्रेरित हो. आदिवासी और दलित आंदोलन में एकजुटता की बात तभी अपने मुकाम तक पहुंचेगी.