शरद यादव ने फिर एक विवादित बयान दिया है. उनका कहना है कि बेटी की तुलना में वोट ज्यादा इज्जत की चीज है, अतः इसका इस्तेमाल ध्यानपूर्वक किया जाना चाहिए. बेटी तो महज घर की इज्जत है, वोट से समाज की इज्जत जुड़ी है. इस बयान की आलोचना होने पर भी कहा कि उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा है. पर राजनीतिक हलके और सोशल मीडिया में हंगामा मचा है. बहुतों का इरादा तो यही है कि कैसे इस आधार पर उन्हें स्त्री विरोधी साबित कर दें और कुछ राजनैतिक लाभ उठा सकें. उधर जदयू नेता केसी त्यागी जी बता रहे हैं कि श्री यादव के कहने का गलत अर्थ निकाला जा रहा है. मान लेते हैं कि शरद जी की मंशा स्त्री के अपमान की नहीं रही होगी. पर सवाल यह है कि वोट की तुलना बेटी या स्त्री से करने की जरूरत क्या थी? क्या हमेशा अपनी बात के बीच स्त्री को लाना जरूरी है? अभी भाजपा नेता विनय कटियार ने भी प्रियंका गांधी पर गैरजरूरी, बल्कि फूहड़ टिप्पणी कर दी है. कहा, प्रियंका से भी अधिक खूबसूरत प्रचारक हमारे पास हैं! यानी, उनके मुताबिक प्रियंका गांधी की एकमात्र विषेशता उनकी खूबसूरती है. साथ ही उनके कथन का अर्थ यह भी है कि भाजपा में जो महिला हैं, अपनी ‘सुंदरता’ के कारण ही पार्टी में उनका महत्व है. कुल मिला कर, चुनाव में महिलाएं प्रचार करें तो उनके रंग रूप की चर्चा जरूरी है. बेटी की इज्जत की तुलना वोट से करना आवष्यक है. कुछ न कुछ ऐसा बोलना आवश्क है, जिससे कुछ गर्मागर्मी हो, वातावरण में कुछ हल्कापन आये और इसके लिए औरत सबसे अच्छा विषय है. जैसे कुछ लोग बिना गाली दिये कुछ नहीं बोल पाते, उसी तरह औरत के संदर्भ में कुछ घटिया बात बोले अपनी बात कह ही नहीं पाते. न तो विनय कटियार अकेले हैं न ही शरद यादव. अब कटियार का यह भी कहना है कि वे प्रियंका का अपमान नहीं कर रहे हैं, बस स्टार प्रचारक के गुणों में सुंदरता को भी माना है. इसीलिए तो राजनीति में हिरोइनों को लाने की होड़ रहती है. क्योंकि प्रचार के लिए सुंदर औरतों का अपना महत्व है. और स्त्री की संुदरता क्यों? क्योंकि आम लोग सुंदर स्त्री को देखने का मजा ले सकें. असल में स्त्री का राजनीति में आना भी उसे ‘मजे’ की वस्तु से बहुत ऊपर नहीं उठा पाता. अब एक जायज सवाल है- क्या पुरुषों का सौंदर्य उन्हें अच्छा प्रचारक नहीं बनाता है? यहां एक पुरानी बात याद आ रही है. श्री शरद यादव राजनीति में बलकटी औरतों के प्रति भी अपना रोष पूर्व में जाहिर कर चुके हैं. आपको याद होगा, जब महिलाओं को आरक्षण देने के विरोध में यह तर्क दिया गया था कि वर्तमान महिला आरक्षण बिल से बालकटी महिलाएं ही आयेंगी. अब पता नहीं, शरद यादव शयद राजनीति में महिलाओं की एक योग्यता लंबे बाल भी मानते हों. कभी बलात्कार पीड़ित किसी स्त्री को बाहर न निकलने की सलाह देनेवाले, कभी ऐसे या वैसे कपड़े पहनने की सलाह देनेवाले दरअसल समाज की उस मानसिकता को ही ध्वनित करते हैं, जो बेटी को परिवार की ‘इज्जत’ तो मानती है, पर इंसान नहीं. यह समाज (जाहिर है, यह धारणा पुरुष् की है, जिसे सामान्य महिला भी मानती है.) उसे ‘देवी’ का दर्जा तो देता है, पर साथ ही उसे पुरुष के मदसेरंजन और ‘उपभोग’ का साधन भी मानता है?