आदिवासी युवाओं, बुद्धिजीवियों का एक तबका पेसा, पांचवी और छठी अनुसूची, सीएनटी-एसपीटी जैसे कानूनों के प्रति बेहद आस्थावान है और इन्हें इस कदर छाती से लगाये घूमता है जैसे आदिवासियों की अस्मिता व पहचान या जल, जंगल, जमीन पर उसका नैसर्गिक अधिकार इन्हीं कानूनों पर निर्भर है. यदि इन कानूनों को सत्ता बदलने में कामयाब हो गयी, तो आदिवासियों का अस्तित्व ही मिट जायेगा. हम यह नहीं चाहते कि इन कानूनों में किसी तरह का ऐसा परिवर्तन हो जिनसे आदिवासियों को मिले अधिकार में तनिक भी कमी आये. लेकिन यह भी एक हकीकत है कि इन कानूनों के नहीं रहने पर भी अपने संघर्ष के बल पर आदिवासी समुदाय ने जल, जल, जमीन पर अपने अधिकार और अपनी स्वायत्ता के सामने खड़ी होने वाली हर चुनौती का मुंहतोड़ जवाब दिया है. यदि कोई शक हो तो इतिहास के बियावान जंगल में मशाल की तरह जलते आदिवासी संघर्ष के इतिहास को देखें जो आर्य-अनार्य युद्ध से शुरु हो कर वर्तमान में सीएनटी एक्ट के खिलाफ चल रहे जुझाड़ु संघर्ष तक आता है. विडंबना यह कि एक लिखित संविधान, तमाम संरक्षणवादी कानूनों के रहते आजाद भारत में आदिवासी अधिकारों का सबसे अधिक अपहरण हुआ है. हमें इस बात को समझना होगा कि इन कानूनों में अनेकानेक चोर दरवाजे हैं जिनका फायदा सत्ता और समाज का प्रभु वर्ग उठाता रहा है. कभी हमने समझने की कोशिश की है कि पेसा, पांचवीं और छठी अनुसूची, सीएनटी-एसपीटी कानून, तमाम वन कानूनों के बावजूद अपने ही घर में आदिवासी अल्पसंख्यक क्यों बनते जा रहे हैं? जिन इलाकों में आदिवासी आबादी का अनुपात हाल तक पचास-पचपन फीसदी था, वहां अब वे 26-28 फीसदी पर कैसे सिमट गये? ऐसा सिर्फ झारखंड में नहीं, संपूर्ण मध्य भारत और उत्तर-पूर्व के राज्यों में हो रहा है. और यह रफ्तार जारी रही तो संसदीय चुनावों पर आधारित यह लोकतंत्र ही आदिवासियों के लिए सबसे भारी विनाशकारी बन जायेगा. चुनावी प्रणीली बेमतलब हो जायेगी. कानून के छिद्रो पर सक्षिप्त चर्चा करके हम सीएनटी-सीपीटी एक्ट की सीमाओं और सरकार की नीयत पर चर्चा करेंगे. मसलन, पेसा कानून को हम बड़ी श्रद्धा से याद करते हैं और गर्व से नारा लगाते हैं - ‘लोकसभा न विधान सभा, सबसे बड़ी ग्राम सभा’. क्या है पेसा कानून का मूल तत्व? इस कानून की धारा 4 सी के अनुसार ग्राम स्तर पर पंचायत द्वारा सामाजिक आर्थिक विकास के लिए कार्यक्रम और योजनाएं क्रियान्वित करने से पहले ग्रामसभा द्वारा स्वीकृति दी जायेगी. ग्राम सभा का उत्तरदायित्व होगा कि वह गरीबी उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के तहत लाभार्थी लोगों की पहचान करेगा. अब गौर से देखें तो हमें इन दोनों अधिकारों के खोखलेपन का पता चलेगा. हम मान लेते हैं कि कार्यक्रमों की स्वीकृत करने के अधिकार में ही उन्हें अस्वीकृत करने का अधिकार भी शामिल है. लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं. क्योंकि, तार्किक रूप से तो ग्राम सभा का मुख्य कार्य योजना, कार्यक्रम और रणनीति तैयार करना और लागू करना होना चाहिए, यह मुख्य रूप से संसाधनों के मोबिलाईजेशन और युटिलाईजेशन के लिए पारंपरिक व्यवस्था से जुड़े होने चाहिए. पारंपरिक स्रोतों के प्रबंधन के मुख्य कार्य की अनुपस्थिती में ये अधिकार बेमतलब और आलंकरिक भाषा मात्र हैं. इसी तरह इस कानून के सेक्सन 4 आई में कहा गया है कि अनुसूचित इलाकों में विकासवादी कार्यो के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए ग्राम सभा से परामर्श लिया जायेगा. लेकिन इसमें यह नहीं कहा गया है कि ग्राम सभा से स्वीकृति लेनी होगी. लेकिन सरकार ने तो परियोजनाओं की स्वीकृति और एमओयू करने के पहले ग्राम सभा से पूछना जरूरी ही नहीं समझा. या फिर फर्जी ग्राम सभाओं से स्वीकृति लेने का नाटक किया. इसका मतलब साफ है कि मूलभूत संसाधनों पर जनाधिकार के लिए आदिवासी समुदाय को हमेशा संघर्ष करना होगा, जैसा नियमगिरि के डोगरिया कौंधों ने किया, जैसा भूषण और जिंदल-मित्तल के खिलाफ झारखंड में हुआ. हम झारखंड के विशेष भू कानूनों की महत्ता को स्वीकार करते हैं और उसके लिए चलने वाले संघर्ष का समर्थन करते हैं. लेकिन हमे इस बात को हमेशा याद रखना होगा कि इन विशेष कानूनों के बावजूद झारखंड में सार्वजनिक कारखानों के लिए बड़े ही विकराल रूप से भूमि का अधिग्रहण हुआ. दामोदर वैली कारपोरेशन, सिंदरी खाद कारखाना, बीसीसीएल की तमाम खदाने, बोकारो स्टील प्लांट, एचईसी समेत नूहरुयुगीन तमाम कारखाने तो आदिवासी-मूलवासी के गांवों को उजाड़ कर, उन्हें घर से बेघर कर ही हुआ. इन औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना के पूर्व यह सब्जबाग दिखाया गया था कि इन प्रतिष्ठानों में आदिवासियों को रोजगार मिलेगा, उनके क्षेत्र का विकास होगा. लेकिन हम सभी जानते हैं कि इन औद्योगिक प्रतिष्ठानों में नाम मात्र का रोजगार मिला. इन कारखानों-खदानों की बदौलत समृद्धि के अनेकानेक द्वीप तो बने, लेकिन वहां से आदिवासी उजड़ गये. उनकी आवासीय कालोनियों को जगमग रौशनी मिली, लेकिन उनके गांव अभी भी आदिम अंधकार मे डूबे हुए हैं. उनकी कालोनियों के एक एक फ्लैट में अलग अलग नल के टोटियों से पानी आता है, लेकिन आदिवासी आबादी को मिली प्रदूषित सुवर्णरेखा और जहरीली दामोदर. सबसे बड़ी बेशर्मी तो यह कि सभी भूमि अधिग्रहण समझौते की एक सामान्य बात यह थी कि जमीन का अधिग्रहण एक कार्य विशेष के लिए हुआ था और यह भी प्रावधान था कि यदि कारखाना बंद हुआ और उसकी उम्र पूरी हुई तो जमीन मूल रैयतों को लौटा दिया जायेगा. लेकिन ऐसा एक भी उदाहरण नहीं जहां जमीन मूल रैयतों को वापस करने की बात भी कही जा रही हो. एचईसी की जमीन का इस्तेमाल सरकार स्मार्ट रांची शहर के लिए करने जा रही है. बोकारो स्टील की जमीन पर कई कोआपरेटिव कालोनियां बन गई, पतरातु थर्मल पावर स्टेशन बंद ही हो गया, लेकिन उसके पहले से ही वहां जिंदल का कारखाना लगने लगा है. धनबाद, बोकारो, टाटा, रांची तमाम शहर तो आदिवासियों के गांव-बस्ती की कब्र पर ही बने. हमारे बहुत सारे आदिवासी युवाओं को भी लगता है कि यह जो शहरों का विकास होगा तो उनकी जिंदगी भी बदलेगी. गौर से देख जाईये, रांची के तमाम बहुमंजिली इमारातों को, मल्टी स्टोरी वाले नये किस्म के फ्लैटों को और खोजिये, उनमें से कितनों में आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं? सिर्फ आदिवासी नहीं उजड़े, यहां के सादान भी उजड़े. पूरा धनवाद और जगमग बैंक मोड़ महतो समुदया की बस्तियों का था. अब वे नहीं रहे. उन्हें जमीन निकल गई या आसमान? तो, समझने की बात यह है कि हमें सीएनटी-एसपीटी कानूनों के लिए लड़ना और उन्हें बचाना तो है, लेकिन इस तथ्य को याद रखना है कि कानून बदल जाने या उसमें संशोधन हो जाने मात्र से हमारी हार नहीं हुई है. भाजपा सरकार और कारपोरेट जगत के गिद्धों को एक इंच जमीन के लिए आदिवासियों से संघर्ष करना होगा. और यह तभी होगा जब हम नेतरहाट, तपकारा, ईचा, काठीकुंड, कलिंगनगर, बहड़ागोड़ा, पोस्को में जली संघर्ष की मशाल को मजबूती से हाथ में थामें रहें. हमे राजनीतिक दलों से सहयोग की उम्मीद तो है, लेकिन यहां याद रखने की जरूरत है कि सत्ता में रहते या आते ही झारखंडी दलों का मिजाज भी बदल जाता है, चाहे सवाल सीएनटी एक्ट का हो या डोमेसाईल का. बाबूलाल, अर्जुन मुंडा, हेमंत सोरेन- सभी के मिजाज के इस दोहरेपन को झारखंडी जनता ने देखा है. बाबूलाल मरांडी ने ही ग्रेटर रांची के नाम पर झारखंड के विशेष भू कानूनों में परिवर्तन/संशोधन की चर्चा शुरु की थी. अर्जुन मुंडा के शासन काल में ही झारखंड सरकार ने बिना ग्राम सभाओं से स्वीकृति लिये सबसे अधिक एमओयू किये. अपने मुख्यमंत्रित्व काल में हेमंत सोरेन डोमेसाईल नीति नहीं बना सके. सत्ता से बाहर होते ही ये नेता अब डोमेसाईल नीति में हुई गड़बड़ियों व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में हुए संशोधनों को लेकर राजनीति करने में लगे हैं. इसलिए भरोसा तो व्यापक गोलबंदी वाले जन संघर्षों पर ही करना होगा.