कन्यादान हिंदू समाज की एक बड़ी प्रतिष्ठित परम्परा है. हर व्यक्ति कन्यादान की कामना पालता है, भले बेटी बोझ हो. कन्यादान को महादान माना गया है. इसीलिए जिसे अपनी बेटी न हो, वह रिश्दार की बेटी का दान कर भी अपनी इच्छा पूरी करता है. स्त्री के जीवन की भी यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है जब वह अपने पिता या किसी अभिभावक के हाथों किसी और को सौंप दी जाती है - लो मैंने अपनी प्यारी बिटिया तुम्हें सौंप दी, अब यह मेरी नहीं तुम्हारी जिम्मेदारी है. सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं तुमहारी सम्पत्ति भी, या यों कहे तुम्हारा ‘सामान’ भी. तुम इसका जैसे चाहो इस्तेमाल करो. इसे ठीक से रखो या तोड़ो या फेंक दो, हम कुछ नही कहेंगे. भले हमे दुख हो, हम दुख का इजहार भी नही करेंगे, क्योंकि वह तुम्हारे अधिकार क्षेत्र का मामला है, तुम्हारा विषेशाधिकार है. अगर इसे गोद में लेकर दान कर पाते तो और भी पुण्य मिलता. पर खैर, समय से समझौता करते हुए कन्याओं को -दान दिये जाने से पहले वयस्क होने का मौका मिलने लगा है. विवाह की उम्र बढ़ गयी है, 18 से 30 हो गयी है. मगर दान तो अभी भी होना है. पहले अबोध कन्या पिता की गोद में बिठा कर दान कर दी जाती थी, अब पूर्ण वयस्क और नौकरी करने वाली कन्या भी परम्पराओं के मोह में दान की जाती है अब देखिए, आज दासप्रथा समाप्त है, बंधुआ मजदूरी गैरकानूनी है. कोई स्त्री या पुरुष किसी की सम्पत्ति नहीं, मगर स्त्री को दान किया जाना किसी को भी अटपटा या गैरकानूनी नहीं लगता! यह हमारी परंपरा है और परंपरा पर सवाल उठाना उचित नहीं. हमारी विवाह पद्धतियां ढोल बाजे के साथ एलान करती हैं कि स्त्री किसी भी अन्य संपत्ति (पशु,जमीन या सोना-चांदी) की तरह दान की जा सकती है. यहां तक कि सरकारें भी कन्यादान महादान का गौरव गान करते हुए कन्यादान योजना बनाती हैं. एक तरफ स्त्री के मानवाघिकारों को मान्यता दी जाती है, ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ’ का नारा दिया जाता है, दूसरी तरफ पंडाल लगाकर कन्यादान योजना के तहत लड़कियों को दान में दिये जाने का इंतजाम किया जाता है. दहेज विरोधी सरकार बेटियों को सरकारी दहेज देती है, वाहवाही लूटती है और प्रकारांतर से सार्वजनिक तौर पर एलान करती है कि स्त्री दोयम इंसान है और उसको किसी को दान में दिया जा सकता है. अब दान हुई वस्तु के अधिकार तो कोई भी समझ सकता है. अब आप निर्भया योजना लाएं या स्त्री सशक्तीकरण की बात करें, जब तक कन्यादान को महादान माना जाता रहेगा, तब तक महिलाओं को सम्मान और बराबरी का स्थान देने की बात ओर दावा करना एक दिखावा ही रहेगा. क्योंकि, लड़की/औरत को वस्तु मानने से जुड़ी इस प्रथा का जारी रहना बताता है कि हम उसे जिंदा इंसान नहीं मानते.