क्या यही सच है! इतिहास का क्या यह निर्विवाद नियम है कि अपने दौर को तय करने वाली बड़ी-बड़ी हलचलें समकालीनों को सुनाई नहीं पड़ती? जैसे ‘हिटलर’ नाम की हलचल। 1933 की जनवरी में हिटलर ने सत्ता संभाली जर्मनी की। लेकिन उसने 1923 में ही अपने आने की दस्तक दे दी थी। उसने धमकी के लहजे में अपने आने की धमक दी। जर्मनी और उसके पड़ोसी देशों ने सुनी भी। लेकिन क्यों ऐसा हुआ कि वह धमक लोगों को सुनाई नहीं पड़ी? जिन्होंने सुनकर भी उसकी अनसुनी की, उसे ‘अकारण’ माना जा सकता है? क्या यह संभव है कि कोई घंटी बजे और अपने को ‘विकसित’ माननेवाले या विकासशील कहनेवाले देश-समाज को - जो अपने लम्बे इतिहास एवं अनुभवों के आधर पर ‘घंटी’ की भिन्न-भिन्न आवाजों से यह पहचानने की बौद्धिक क्षमता अर्जित कर चुका हो कि घंटी की कौन सी आवाज खतरे का संकेत है और कौन सी खुशी का या कौन सी गूंज अंतरात्मा को जगाने वाली प्रार्थना है और कौन सी गूंज आत्मा को क्षत-विक्षत करने के लिए बढ़ते आते प्रहार की आहट - उसकी आवाज ही सुनाई न दे। आज यह कहा जा सकता है कि ऐसा होना संभव है, क्योंकि 1923 से 1933 के दौर में वैसा ही हुआ। लेकिन आज किसी के दिमाग में यह बात भी आ सकती है कि उस दौर में जर्मनी में जैसा हुआ, वैसा आज किसी भी देश में हो सकता है। हां, हो सकता है। और, यह भी हो सकता है कि वर्तमान पीढ़ी या नयी पीढ़ी उसे उसमें कोई खतरा ही न दिखाई दे। क्योंकि उसे न इसकी जानकारी हो और ना अनुभव कि जर्मनी में जो हुआ वह क्या हुआ, कैसे हुआ और क्यों हुआ? उस समय विश्व के, मुख्यतः यूरोप के विकसित और विकासशील देशों में असंतोष की लहरें जोर मार रही थीं। वह महामंदी का दौर था - जिसे आज भी पहली और सबके प्रखर ऐतिहासिक मानक के रूप में स्वीकार किया जाता है। महंगाई और बेरोजगारी ने कई आजाद देशों में राजनीतिक संकट पैदा कर रखी थी। लेकिन जर्मनी में यह संकट पिछले महायुद्ध (प्रथम विश्वयुद्ध) से ही सिर पर आ गया था। राजनीतिक संकट के समाधन के प्रति जर्मनी की आम जनता में समझ यह थी कि कायदा-कानून कायम हो जाए। अन्याय है, लेकिन उससे बड़ी चीज है अव्यवस्था। अगर कायदा-कानून बहाल हो जाए, इसको बहाल करनेवाला कोई व्यक्ति इसके लिए कुछ सख्ती करे और वह अन्याय के रूप में प्रगट हो तो उसे भी सहा जा सकता है, लेकिन अव्यवस्था बर्दाश्त नहीं की जा सकती। जर्मनी के तमाम इलाकों में जनता की यही ख्वाहिश जोर पकड़ रही थी कि कायदा-कानून कायम हो जाए क्योंकि उनके लिए कायदा-कानून हमेशा आजादी और इंसाफ से भी ज्यादा मायने रखता था। नाज़ी दल का नेता हिटलर ज़बरदस्त वक्ता था। जर्मन लोग उसके भाषणों से प्रभावित होकर उसके दल में शामिल हुए। 1923 से ही हिटलर नाम से कई उपद्रवों की चर्चा लोगों के जुबान पर चढ़ने लगी थी। हालांकि उसका नाम लोगों के जेहन में टिके बगैर यूंही आया-गया हो जाता था। क्योंकि जर्मनी में उस समय के हालात के प्रति आम समझ यही थी कि ऐसे कितने ही उपद्रवी-इंकलाबी जुगनू रोज पैदा होकर रोज मर-खप रहे हैं। हर तरफ माहौल खटक-भटक रहा होता है, तो ऐसे सैकड़ों पिद्दी बुलबुले दिखलाई पड़ते रहते हैं। मगर फूटने के बाद उनका कुछ नहीं बचता। यह बस चलता ही रहता है। लोगों की इस समझ को कायम रखना हिटलर की ‘स्ट्रैटजी’ थी। वह अपने ‘उपद्रव’ को यूं अंजाम देता था कि लोग इसके जोरदार झटके को तसल्ली की कवच पहनकर झेल लें कि यह तत्काल का झोंका है। आया है तो जाएगा ही। उसका उपद्रव लोगों को हवा का ऐसा झोंका लगे, जो एक तरफा बहाव का मारा होता है, और एक दूरी तय करने के बाद खुद अपना जोर खोकर फना हो जाता है ; इसलिए एक बार झेलकर बचो और तसल्ली करो कि ‘जान बची लाखो पाए।’ इस समझ को सहलाते हुए हिटलर अपने नाम का ‘बवंडर’ उठाता रहा। उसकी पार्टी - नेशनल सोशलिस्ट! उसके नौजवानों की छोटी-छोटी टुकडि़यां जहां-तहां अचानक आतीं रैलियां निकालतीं। गाते-चिल्लाते हुए गलियों में परेड करतीं और निकल जातीं। बूट कसे कत्थई कमीजधारी नौजवानों में हर एक के हाथ में स्वास्तिक होती। वे बड़े-बड़े पोस्टरों से दीवारें भर मारते और उनपर स्वास्तिक की पुताई कर डालते। देखनेवाले लोगों में कौतुहल जगता। उनकी चकाचक वर्दियां देख लोग थम जाते। उनको सैनिकों की तरह परेड करते और हुल्लड़बाजी करते देखते रह जाते। उन ‘हुल्लड़ दस्तों’ के पास नई-नई गाड़ियों, मोटर साइकिलों और चारपहिया वाहनों का बेड़ा होता। उनकी वर्दियां चकाचक होतीं। उनको देखकर कोई भी सामान्य व्यक्ति सहज ही यह अनुमान करता कि इनके पीछे खाते-पीते और दूसरे प्रभावशाली लोगों की ताकत काम कर रही होगी। हजारों छोकरों के महंगे तामझाम को संचालित करने वाले हाथ कद्दावर जरूर होंगे…। यह जगजाहिर था कि वे नौजवान, फौजियों से, उन दांवपेचों में दीक्षित थे, जिसे ‘पैरा मिलिटरी’ कहा जाता था। राइखशर (यानी सेना) की स्थापना 1919 में हिटलर के प्रतिद्वंद्वी श्लाईशर ने की थी, जो बाद में जर्मनी का चांसलर भी बना था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सोवियत सैनिकों को भी उसने प्रशिक्षित किया था। उसीके सेवारत या सेवानिवृत्त अफसरान हिटलर के उपद्रवी जत्थों की परेड करवाते थे। उन अफसरों को ‘राज्य’ या ‘पार्टी’ के रहस्यमय धनिकों का आसरा था। वह 1923 का दौर था – हिटलर की हलचल का दौर।एक दिन वेनिस के सेंट मार्क चर्च के पास एक अनोखा नजारा दिखा। फिर वैसा ही नाजरा सीमावर्ती गांव के पास दिखा। गांव में ‘सोशल डैमोक्रैट्स’ की शांतिपूर्ण बैठक चल रही थी। अचानक वहां चार गाड़ियां दनदनाती हुई आईं - हरेक ‘नेशनल सोशलिस्ट’ के लठैत नौजवानों से लैस। हमला, जोर-जबरदस्ती और खौफ बरपाने के लिए प्रशिक्षित। एक सीटी बजी और हुल्लड़ दस्ते के ये लोग बिजली की मानिंद अपने-अपने वाहनों से उतरे। जो भी रास्ते में पड़ा, उसी को पीटने-खदेड़ने लगे। जब तक पुलिस कुछ करे या लोग एकजुट हों, तब तक वे अपनी गाडि़यों में जा चढ़े और ये-जा और वो-जा हो लिए! 1923 में एक दिन अलसुबह हुकूमत को पता चला कि म्यूनिख को हिटलर ने हड़प लिया। तमाम सरकारी इमारतों पर कब्जा जमा लिया। बंदूक की नोक पर सारे अखबारों से खुशी-खुशी ऐलान करवा लिया गया कि बड़ी कामयाबी से इन्कलाब ला दिया गया है। जर्मनी को जीतने की मंशा का वह मशहूर उपद्रव सुबह शुरू हुआ, लेकिन दोपहर तक खत्म भी हो गया। हिटलर भाग खड़ा हुआ, मगर शीघ्र ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उसीके साथ लोगों को लगा, आंदोलन की कमर तोड़ दी गयी। उस दौरान स्वास्तिक गायब हो गए। हुल्लड़ जत्थों और एडोल्फ हिटलर का नाम गुमनामियत में समा गया। किसी संभावित राजनीतिक विकल्प के रूप में उसका कोई नामलेवा नहीं था। सरकार के तख्तापलट के प्रयास में हिटलर को एक साल की जेल की सज़ा मिली। उसने कारावास के दौरान आत्मकथा लिखी ‘मेरा संघर्ष’। 1924 में किताब छपी। जर्मनी और बाहर दुनिया के कई लेखकों ने वह किताब पढ़ी। लेकिन उसमें उन्हें खतरे की घंटी नहीं सुनाई दी। उन्होंने हिटलर के कारनामों को तवज्जो देने की बजाय उसके खुरदरे गद्य के बड़बोलेपन की खिल्ली उड़ाई…। बड़े-बड़े जनतांत्रिक अखबारों ने अपने पाठकों को आगाह करने की बजाय उन्हें और मुतमइन किया कि बड़े-बड़े कारोबारियों की मदद और उधारी की नींव पर खड़े हिटलर के आंदोलन में इतनी ताकत नहीं कि वह टिके। उसको तीन-तेरह होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। यानी हिटलर और उसकी बढ़ती ताकत को जर्मनी बेहद कम करके आंकता-तौलता रहा! क्यों? संभवतः इसलिए कि जर्मनी हमेशा से ही न सिर्फ एक वर्गसचेत समाज रहा, बल्कि अपने वर्गीय आदर्शों की छांव तले शिक्षा के प्रति हमेशा ही वह अति अंधश्रद्धा और दैवीकरण का बोझ उठाता रहा। चंद जनरलों को छोड़, आला सरकारी ओहदे हमेशा ही तथाकथित अकादमिक शिक्षितों की बपौती रहे। जर्मनी वालों के मगज में नहीं आ सकता था कि कोई ऐसा आदमी जिसने कॉलेज तो क्या हाईस्कूल भी पास नहीं किया हो, जो चालों-चैकड़ियों में रहता आया हो, वह उस कुर्सी की तरफ आंख उठाकर भी देखेगा जिस पर कभी किस्माई, स्टाइन या राजकुमार ब्यूलो बैठा करते थे। जर्मन जहीनों को दूसरी और किसी चीज ने इतना नहीं बरगलाया जितना शिक्षा के दंभ ने। इसके चलते वे समझते रहे कि हिटलर तो कोई नुक्कड़ छाप उपद्रवी है, जिससे कोई खतरा हो ही नहीं सकता। जनता और, उसके जनार्दन प्रभु यही समझते रहे कि वह घड़ी दो घड़ी से ज्यादा का मेहमान नहीं है। ‘नेशनल सोशलिस्टों’ की चांदनी बस चार दिन की है। तभी हिटलर की सनकी मेधा की तरकीब ने अपने पांव पसारे। अपने अदृश्य हथियारों के मार्फत उसने सभी किस्म के हलकों में अपने समर्थक बनाये। सभी पार्टियों में उसने अपने हमदर्द बनाए। वह ताबड़तोड़ वायदे करने की अपनी स्ट्रैटजी पर कायम रहा। हर हमदर्द और समर्थक यही सोचता था कि हिटलर की रहस्यमयी शक्तियों से वह अपना फायदा उठाएगा। हिटलर की तरकीब की यह पहली निशानी थी। बहरहाल एक साल की सज़ा ने हिटलर के कद को और बढ़ा दिया। और, नौ-दस साल में वह उछल कर सत्ता के शीर्ष पर पहुँच गया। 1933 आते-आते हिटलर सत्ता में आ गया। जर्मनी में बढ़ते असंतोष की लहर पर सवार होकर। उस लहर ने उसे रातों-रात शोहरत दिला दी। यानी उसने अपने नेतृत्व में 1923 से जो सुनियोजित हुल्लड़बाजी शुरू की, वह सत्ता तक पहुंचने की कारगर स्ट्रैटजी साबित हुई। उस स्ट्रैटजी के तहत वह हुकूमत के कायदे-कानून में खलल डालता था और गायब हो जाता था। वह कायदे-कानून तोड़ रहा है, यह समझ हुकूमत को अपने वजूद के लिए खतरे की घंटी न लगे, इसके लिए वह अपनी ‘हुल्लड़बाजी’ को उस सीमा तक पहुंचा देता था, जहां वह कुछ सिरफिरों का ‘पागलपन’ या ऐसी तात्कालिक समस्या लगे, जिसका समाधन मौजूदा कायदा-कानून से संभव है। हिटलर जर्मनी का चांसलर बन बैठ गया! राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने श्लीचर को चांसलर पद से हटाकर हिटलर को चांसलर बनाया। दो महीने में नया चुनाव हुआ। उसमें हिटलर विजयी हुआ। दूसरे साल अगस्त में राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग की मृत्यु हो गयी। हिटलर ने अपने हाथ में राष्ट्रपति के सभी अधिकार ले लिये। फिर राष्ट्रनायक फ्यूहरर की उपाधि धारण कर वह जल्द ही जर्मनी का तानाशाह बन गया। हिटलर ने अपनी स्ट्रैटजी के तहत गत सालों में अपने वायदे इतनी खूबी से बांटे थे कि उसके सत्ता संभालते ही हर तरह के खेमे में खुशियां मनाई जाने लगीं। फिर तो उसने दुनिया भर में इस स्ट्रैटजी का इस्तेमाल किया। उसने जर्मन झंडे और सौगंध के सहारे उन लोगों के साथ करार किए, जिन्हें वह नेस्तनाबूद और बधिया कर देना चाहता था। डूर्न की राजशाही ने सोचा कि वह काइजर का सबसे वफादार एजेंट है। बावेरिया में विटलवाख के राजघराने ने म्यूनिख में खुशी मनाई यह समझकर कि हिटलर उसका अपना आदमी है। जर्मन के राष्ट्रवादी मान बैठे कि हिटलर उनकी झोली में है क्योंकि उनके नेता ह्यूजेनबर्ग को हिटलर के मंत्रिमंडल में सबसे अहम कुर्सी दी गयी। (हालांकि तमाम तरह के करार और सौगंध के बावजूद कुछेक हफ़्तों बाद उसे निकाल फेंक दिया गया!) हिटलर के सत्ता में आते ही बड़े उद्योगों को लगने लगा कि उनको बोल्शविक के खतरे से निजात मिल गयी। इधर फटेहाल जनता खुश थी कि वही हिटलर सत्ता की कुर्सी पर विराजमान है, जिसने सैकड़ों सभाओं में ‘सूद की गुलामी’ से मुक्ति दिलाने का वादा किया था। फुटकर दुकानदार हिटलर नाम की माला जपने लगे, क्योंकि उसने बड़े डिपार्टमेंटल-स्टोर्स और उनके बीच लंबे समय से जारी तनातनी को खत्म करने का वायदा कर रखा था। हिटलर के सत्ता में आते ही ‘सेना’ को भी जैसे मुंहमांगा वरदान देनेवाला भगवान मिल गया, क्योंकि उसका नजरिया ‘सैन्यवादी’ है और ‘शांतिवाद’ पर वह थूकता है। और तो और, मुख्य प्रतिद्वंद्वी सोशल डैमोकेट्स भी सत्तासीन हिटलर से उतने गैर-दोस्ताना नहीं थे, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि हिटलर उनके जानी दुश्मन यानी कम्युनिस्टों का सफाया कर देगा। कम्युनिस्टों के लिए भी पहला टारगेट हिटलर नहीं, बल्कि सोशल डैमोक्रेट्स हैं। इस तरह परस्पर विरोधी पार्टियां ‘दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त’ की पॉलिसी की मारी थीं। इसलिए हिटलर को अपना दोस्त समझती थीं। उनकी इस समझ को हिटलर सौगंध देकर पक्का करता था। इसके परिणामस्वरूप हर पार्टी हिटलर के प्रति बेफ़िक्र बनी रही। यहां तक कि यहूदी तक भी बेफ़िक्र थे। उन्होंने यह सोचकर तसल्ली कर ली कि एक उपद्रवी चांसलर बन गया तो नीच हरकतों से बाज आयेगा ही। देश में कानून का दबदबा रहेगा, तो उसकी जोर-जबरदस्ती नहीं चलेगी। देश के हर बाशिंदे को पूरा यकीन था कि उसकी निजी आजादी और बराबरी के अधिकारों को संविधान का कवच हासिल है। हिटलर ने उसी संविधन की सौगंध जो ली! एक दिन जर्मनी की संसद - ‘राइशटेग’ - में आग लग गयी। संसद स्वाहा हो गयी। दुनिया भौंचक रह गयी। हिटलर का दायां हाथ ‘गोरिंग’ ने अपने गुरगे खुले छोड़ दिये। गोरिंग नाजीपार्टी की पुलिस का कर्ता-धर्ता था। उसीने ‘गेस्टापो’ (ख़ुफ़िया पुलिस) की स्थापना की। हिटलर मानता था कि प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार के लिए यहूदी दोषी हैं। सो उसके सत्ता सँभालते ही जर्मनी में जंगी तैयारियों के साथ नाज़ी यातना कैम्प क़ायम होने लगे। जर्मन लोगों को यहूदी दुकानों का बहिष्कार करने का हुक्म सुनाया गया। जर्मनी में ट्रेड यूनियनों पर पाबन्दी लगा दी गयी। बाक़ी सभी राजनैतिक पार्टियों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया। यहूदी सहित नाज़ी विरोधी बुद्धिजीवियों और विज्ञानियों को निशाना बनाया जाने लगा। हिटलर ने अपनी जातीय श्रेष्ठता के बहाने पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया। उसने ऐलान किया : “शुद्ध रक्तवाला व्यक्ति मुश्किल पड़ने पर व्यावहारिक तथा सुसंगत निर्णय लेने में सक्षम होता है। इसके विपरीत मिश्रित रक्त वाला परिस्थितियों को देखते ही घबरा जाता है। राज्य’ का फैसला है कि स्वस्थ्य दम्पति को ही सन्तानोत्पत्ति का अधिकार है, तथा बीमार अथवा वंदूषित रक्तवाला व्यक्ति शुद्ध रक्तवाले प्राणी से निम्न होता ही है। साथ ही वह पतनोन्मुख भी शीघ्रता से होता है। ‘शानुगत दोष होने पर प्रजनन न करना अति सम्माननीय होगा। ऐसे लोगों को प्रजनन के अयोग्य घोषित कर सभी व्यावहारिक गतिविधियों को तीव्र करना होगा।”