ओड़िसा के नियमगिरि पहाड़ी क्षेत्र में बसे डोंगरिया कौंध आदिवासियों का ग्लोबल कंपनी वेदांता के खिलाफ संघर्ष जारी है. उन्होंने अपनी बेमिशाल संघर्ष से वेदांता को उस इलाके में बाक्साईट का उत्खनन करने से रोक दिया है. अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए पिछले चार पांच वर्षों से वे फरवरी के 24, 25 और 26 को अपने पुश्तैनी घर, नियमगिरि पर्वत के शीर्ष पर जमा होते हैं और इस वर्ष भी वहां मौजूद है. उनके साथ बड़ी संख्या में उनके समर्थक और देश के विभिन्न हिस्सों से आये आंदोलनकारी साथी जमा हुए हैं. इस बार उनलोगों ने प्राचीन आदिवासी, गणतंत्र को मजबूत करने की दिशा में एक और कदम आगे बढाया है. वह यह कि राज्य में हुए पंचायती चुनाव में अपने उम्मीदवारों का सामूहिक चयन प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित करने काम. पहले इन पंचायतों में तथाकथित राजनैतिक पार्टियों के कठपुतले प्रार्थी खड़े होते थे और नागरिकों को इन्ही में से किसी को चयन करना पड़ता था. वे लोग इन्हें ज्यादातर धोखा ही देते थे. ऐसे धोखे से लोहा लेने की ठान ली इन आदिवासियों ने और निकल पड़े गणतंत्र को मजबूत करने की दिशा में. नतीज़ा ३ पंचायतों में कोई चुनाव की ज़रूरत नहीं हुई, क्योंकि प्रतिनिधियों को पहेले ही गाँव में सार्वजानिक सभा करके, उनको नामांकन के लिए भेजा गया और नतीजा वे निरद्वंद चुने गए जन-प्रतिनिधि. जो समझदारी इन शांतिप्रिय आदिवासियों ने दिखाया है, वह संघर्ष को बढाने की एक नई राह दिखाता है. उनका जश्न तो नियमगिरि की चोटी पर, करीब 2 घंटे और 4 किलोमीटर की पहाड़ी की चढ़ाई, व समुद्रतल से लगभग १००० मीटर की ऊंचाई पर हो रहा है, लेकिन ठीक इसी वक्त बिहार के चंपारण में भी एक सत्याग्रह सभा हो रही है जो गोरे निलहो के खिलाफ गांधीजी के चंपारण आंदोलन के शताब्दी समारोह का एक हिस्सा है.आप सबों को पता होगा कि दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद नील की जबरन खेती कराने वाले नीलहे जमींदारों के खिलाफ किसान आंदोलन से ही गांधी ने भारत में अपनी राजनीति की शुरुआत की थी. अंग्रेज प्लांटर्स किसानों को बाध्य करते थे कि वे नील की खेती करें और उपज उनके सुपुर्द करें. इस अत्याचार से किसान तबाह थे और उनके खिलाफ सत्याग्रह की शुरुआत के सौ वर्ष् पूरे हुए हैं. इस अवसर पर एक बड़ा जुटान चंपारण में हुआ है. उल्लेखनीय यह कि गांधी के आंदोलन से वह जुल्म तो उस वक्त एक हद तक खत्म हो गया लेकिन जमींदारी प्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई. कलांतर में उस इलाके में दलितों को भूमि के पर्चे भी मिले, लेकिन उस जमीन पर उन्हें बिहार सरकार कब्जा दिलाने में असफल रही. तो, उसी संघर्ष का शताब्दी समारोह और आगे के आंदोलन—संघर्ष की रणनीति तय बनाने के लिए 26 फरवरी को को देश के विभिन्न इलाकों के आंदोलनकारी साथी इकट्ठा हुए हैं. तो, नियमगगिरि पहाड़ी की छत पर आदिवासियों द्वारा मनाये जा रहे जश्न और चंपारण के समतल क्षेत्र में चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी समारोह के बीच समानता क्या है? समानता है यह कि दोनों जगह शांतिमय संघर्ष की मशाल जल रही है, दोनों जगह जमीन पर मालिकाना हक का सवाल प्रमुख है, दोनों का नेतृत्व गांधी—जेपी आंदोलन से निकले शांतिमय संघर्ष में विश्वास करने वाले लोग कर रहे हैं. नियमगिरि में किसन पटनायक के समाजवादी जन परिषद के लोग तो बेतिया में लोक संघर्ष समिति, पर्चाघारी संघर्ष वाहिनी एवं विस्थापित मुक्ति वाहिनी. यह सही है कि अखबारों की सुर्खियों में माओवादी हिंसा की खबरे ज्यादा जगह पाती हैं, लेकिन देश भर में कारपोरेट के खिलाफ संघर्ष हो या सत्ता के खिलाफ संघर्ष, शांतिमय संघर्ष की मशाल ही आपको नजर आयेगी. कोयलकारों में फायरिंग रेंजे के खिलाफ संघर्ष हों या पश्चिमी सिंहभूम में जिंदल, मित्तल, भूषण के खिलाफ संघर्ष, हर जगह शांतिमय संघर्ष की मशाल की लौ ही दिखाई देगी. आईये शांतिमय संघर्ष की इस मशाल को जलाये रखने का हम संकल्प लें, क्योंकि आगे की राह यही प्रशस्त करेगा.