अश्वेत लेखिका एलिस वाकर के द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘कलर पर्पल’ का प्रकाशन 1983 ई में हुआ. प्रकाशन के तीन वर्ष बाद उन्हें इस पुस्तक के लिए पुलत्जर तथा नैशनल बुक एवार्ड मिले. इसके पाठक करोड़ों की संख्या में हैं. यह किताब अंग्रेजी साहित्य का एक सर्वकालिक किताब माना जाता है और पीढी दर पीढी इसे पढती आ रही है और इसे पढेगी. लेखिका ने अपने इस उपन्यास को मुख्य रूप से अमेरिका के काले लोगों की त्रासदी पर केंद्रित किया है. लेकिन उपन्यास पढते वक्त आपको लगेगा कि आप झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों की आज की कहानी पढ रहे हैं. उपन्यास की नायिका सेली के द्वारा भगवान को लिखे गये पत्रों से अमेरिका के अश्वेत लोगों के जीवन की परत दर परत खुलते जाते हैं. लेकिन बाद में जब सेली ने स्वयं को और अपनी ताकत को पहचाना, तो उसे भगवान पर से विश्वास उठने लगता है और तब वह अपनी एकमात्र प्रिय बहन नेटी के नाम पत्र लिखने लगती है. लेखिका ने नेटी के पत्रों से अफ्रीका के अपने उन पूर्वजों को याद किया है जो 15 सौ इस्वी में अफ्रीका से जहाजों द्वारा गुलाम बना अमेरिका लाये गये थे. जहाजों में चढाने से पहले ही उन्हें ईसाई बना कर उनके नाम तक बदल दिये गये. अमेरिका पहुंच कर उन्हें न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे शहरों का निर्माण करना था. अफ्रीका से लाये गये ये अश्वेत गुलाम मूल रूप से खेतिहर थे. अपनीे खेतों में कपास, नील, धान आदि का उत्पादन करना उनका काम था. पशुपालन, कपड़ा बुनने और इंट बनाने में भी वे कुशल थे. उनमें से कई कलाकार, संगीतकार, शिक्षक, विद्वान और व्यापारी भी थे. ऐसे लागों को ले जा कर उन्हें केवल आज्ञा मानने वाले गुलाम या काम करने के मशीन के रूप में प्रयोग शुरु हुआ. अमेरिका के कई भव्य शहरों का निर्माण इन्होंने ही किया. श्रम से चूक गये तो भूखे प्यासे मरने के लिए छोड़ दिया गया. लेखिका के अनुसार न्यूयार्क के वाल स्ट्रीट में मिली हड्डियां इन गुलामों की ही होंगी. उपन्यास की पात्र नेटी जब मिशनरियों के साथ अफ्रीका के एक गांव ओलिंका पहुंचती है तो वहां के लोग काले मिशनरियों को देख कर आश्चर्य करते हैं. इसके पहले उन्होंने केवल गोरे मिशनरियों को ही देखा था. उनकी भाषा, उनका रहन-सहन, रीति रिवाज, सब प्रकृति पर निर्भर थे. प्रकृति से मिली उन सारी चीजों को वे अपना देवता मानते थे, जो उनके जीवन को सुरक्षित और सुखमय बनाता था. इस संबंध में वहां एक कहानी भी प्रचलित थी. उनके बीच का ही एक व्यक्ति लालच से अपने लोगों का जमीन हड़पना शुरु करता है. ज्यादा से ज्यादा फसल उपजा कर व्यापार कर धन कमाना ही उसका उद्देश्य था. इसके लिए उसने उन पेड़ों को भी कटवा दिया जिसके पत्तों को ग्रामवासी छतों को छाने के लिए करते थे. उस वर्ष बरसात के मौसम में भारी आंधी-तूफान आया. लोगों के छत उड़ गये. वर्षा के बाद लोगों ने जब अपने घरों को छाने के लिए पत्तों की खोज की तो वे उपलब्ध ही नहीं थे. पांच वर्षों तक बिना छत के जीवन बिताना लोगों के लिए कठिन था. आधा गांव बीमार होकर समाप्त हो गया. पांच वर्षों के बाद नये पेड़ों के पत्तों से घरों के छत बने इसलिए वहां के लोग इन पेड़ों की पूजा करते हैं. नये आये अतिथियों को ऐसी झोपड़ी देकर वे अपने यहां प्रचलित रश्म का पालन करते थे. खेतों की उपज को भोजन के रूप में प्रयोग करना, प्राकृतिक आपदाओं में प्रकृति से मिले औषधियों का सेवन कर जीवन को बचाना उनके जीवन शैली का हिस्सा था. उनकी अपनी सांस्कृतिक धरोहर थी, अपने नृत्य और गीत थे जिसे प्रस्तुत कर वे खुश होते थे. इस तरह के खुशहाल गांव में एक दिन कंक्रीट और सिमेंट से लदे ट्रक, बुलडोजर आदि पहुंचते हैं. गारे लोगों का एक दल जमीन का नापजोख शुरु कर देता है. लोगों को पता चलता है कि सड़क बनने वाली है. गांव के भोले लोग यह समझते हैं कि उनकी भलाई के लिए ही सड़क बन रही है. इस खुशी में उन्होंने सड़क बनाने वाले दल के लिए विशेष भोज का भी आयोजन किया, लेकिन बाद में जब उनके खेत और घर इस सड़क की बलि चढ गये तो उनके होश उड़ गये. गांव के मुखिया ने बंदरगाह तक जा कर पता लगाया, तो यह बात खुली कि वह सड़क तो गोरे लोगों की उस कंपनी के लिए बन रहा है जो जंगलों को काट कर रबर के वृक्ष लगाना चाहती है. वहां की सरकार ने उन्हें रबर वृक्ष लगा कर रबर के उत्पादन की अनुमति दे दी है. ..अब न वहां ओलिंका गांव रहा, न वहां की खुशियाली. जमीन से वंचित वहां के निवासी किराया दे कर वहां रहने लगे. पानी जो उन्हें मुफ्त में मिलता था, उसके लिए उन्हें टैक्स देना पड़ता था. जंगल, जिन पर उनका अधिकार था, वे अब कट चुके थे और वहां अब रबर के पेड़ लग चुके थे. अफ्रीकी गांव में सदियों से लोगों को इसी तरह विस्थापित बनाया गया था. क्या आपको सुदूर अफ्रीका की कहानी अपने झारखंड में घटित हो रही कहानी से मिलती जुलती नहीं लगती?