इस वर्ष भी हम आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने जा रहे हैं. 18 वीं शताब्दी में कपड़ा मिलों में काम करने वाली महिलाओं द्वारा पुरुषों के बराबर वेतन के लिए आंदोलन किया गया था जो कालक्रम में औरत की आजादी, स्त्री-पुरुष समानता और महिला उत्पीड़न को समाप्त करने के आंदोलनों के रूप में प्रकट हुआ. आठ मार्च के दिन हम बार-बार यह विचार करते हैं कि क्या समाज में स्त्री को पुरुषों के बराबर अधिकार और सम्मान प्राप्त है? कहा जाता है कि समय बदला है. शिक्षा, तकनीकि ज्ञान तथा आधुनीकीकरण आदि के चलते विश्व भर में जो आर्थिक उन्नती हुई है, उससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति में भी बहुत परिवर्तन आया है. वे भी अब पढ लिख कर पुरुषों के बराबर काम करती हैं. आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं. महिलाओं की परिस्थितियों में आ रहे ये सारे बदलाव क्या सचमुच स्त्रियों को पुरुषों के बराबर ला खड़ा करता है? अश्वेत लेखिका ऐलिस वाकर का ‘कलर पर्पल’ है तो उपन्यास, लेकिन वह एक तरह से हमे अमेरिका की अश्वेत महिलाओं के नारकीय जीवन के रूबरू करता है. 80 के दशक में लिखी और प्रकाशित यह पुस्तक जब यह बताता है कि उपन्यास की नायिका शेली या दूसरे पात्र गोरे लोगों की तुलना में निम्न कोटि का जीवन बिताते हैं और गोरों के शोषण का शिकार होते हैं तो उसका मुख्य कारण उनके शरीर का रंग काला होना है. गोरे लोगों की तुलना में हर तरह से निपुण और योग्य ये काले लोग अपने शरीर के रंग के चलते अमेरिका जैसे देश में दोयम दर्जे का जीवन बिताते हैं. गुलाम बनाने से पहले ही उन्हें ईसाई बना कर उनके अंदर यह भय पैदा किया गया कि उन्हें हर परिस्थिति में अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना चाहिए अन्यथा उन्हें भगवान के कोप का भाजन बनना पड़ेगा जो अंततोगत्वा उनके जीवन के कष्टों को और बढायेगा. शारीरिक और मानसिक रूप से घायल इन काले लोगों में अपने शोषण का विरोध करने की ताकत भी नहीं रह गई थी. इसलिए उपन्यास की नायिका शेली अपने जीवन की यातनाओं का वर्णन भगवान को संबोधित पत्रों में करती है. हर दिन उसे काली, मोटी, बदसूरत आदि कह कर अपमानित किया जाता है. स्कूल छूट जाता है, क्योंकि साल दर साल बच्चे पैदा करने के कारण अस्वस्थ मां की उसे सेवा करनी है. अपने छोटे भाई बहनों की देख भाल करनी है. अपनी छोटी बहन को सौतेले गोरे बाप की कुदृष्टि से बचाने के लिए स्वयं ही उसकी वासना का शिकार बनती है. बढते हुए पेट को देख कर मां के पूछने पर वह उस पुरुष का नाम तक नहीं लेती जो पिता न सही पिता के स्थान पर है. वह नाबालिग अवस्था में ही दो बच्चों की मां बन जाती है, जिन्हें पैदा होते ही उससे अलग कर दिया जाता है. बच्चों के बारे में मां के पूछने पर उसका जवाब होता है कि भगवान उसके बच्चों को ले गया. फिर उसके जीवन में वह पुरुष आता है जो उसकी बदसूरती के बावजूद उससे शादी कर लेता है, क्योंकि अपनी पिछली पत्नी की मृत्यु के बाद उसके बच्चों को पालने, उसके घर की देख भाल करने और उसके द्वारा दी गई यातनाओं को सहने वाला कोई नहीं रह गया है. उसकी इस सहनशक्ति को उसका अवगुण ही माना जाता है, क्योंकि वह काली है. भावना शून्य है और कड़ी जान है. वैसे, शेली भगवान से कहती है कि इन सारे अपमानों और कष्टों का विरोध वह इसलिए नहीं करती है ताकि वह जीवित रह सके और अपनी प्यारी बहन को कष्टों से बचा सके. उपन्यास की दूसरी अश्वेत पात्र सोफिया कर्मठ महिला होते हुए भी विद्रोही स्वभाव की है. एक दिन बाजार में मेयर की पत्नी से लड़ कर उसे चोट पहुंचाती है. उसे जेल जाना पड़ता है और वहां की यातनाओं को सहना पड़ता है. उसके गोरे पति और उसकी दूसरी बीवी के प्रयास से जेल की यातनाओं से तो उसे मुक्ति मिलती है, लेकिन मेयर के यहां रह कर बेगारी करनी पड़ती है. अपनी कर्मठता और मिलनसार व्यक्तित्व के कारण वह उस घर के बच्चों की प्रियपात्र बनती है. उपन्यास की तीसरी पात्र शग अवेरी, पेशे से गायिका, शेली के पति अल्बर्ट की प्रेमिका. बीमार और कमजोर शग को घर लाकर अल्बर्ट शेली से उसकी सेवा करवाता है. शेली उसकी सुंदरता से अभिभूत होती है और अपनी सेवा से उसे स्वस्थ बना देती है. शेली की सेवा से शग खुश होती है लेकिन अपने जीवन के प्रति कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं रखने वाली शेली से उसे सहानुभूति होती है. वह शेली को अपने घर ले जाती है. उसे आर्थिक रूप से सक्षम बनाती है. उसे अपने लिए अपनी जरूरतों के बारे में सोचना सिखाती है. शेली में आत्मविश्वास पैदा होता है और वह अपने ढंग से जीना शुरु करती है. एलिस वाकर के इस उपन्यास से यह बात स्पष्ट होती है कि राष्ट्र कितना भी उन्नतिशील हो, प्रगतिशील हो, औरत के जीवन में कोई अंतर नहीं आता है. ‘लड़की बचाओ, लड़की पढाओं’ जैसे नारे देने से या लोकतंत्र का वास्ता देने से स्त्री-पुरुष में बराबरी नहीं आ सकती. औरत के रंग या शरीर के अवयवों को लेकर उसे अपमानित नहीं कर उसे जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी का अवसर मिले, तभी हम नारी मुक्ति की कल्पना कर सकते हैं और इसके लिए औरत को खुद से प्रयत्नशील होना होगा.