झारखंड के भूमि रक्षा कानूनों - छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 का भाजपा सरकार के द्वारा जनभावनाओं के खिलाफ किये गये संशोधनों पर ईसाई धर्मगुरू कार्डिलन तेलेस्फोर पी. टोप्पो का हस्तक्षेप ने राज्य में खलबली मचा दिया। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा ने कार्डिनल पर राजनीति करने का आरोप लगाया। लेकिन विपक्षी पार्टियों, सरना समितियों का बड़ा गुट एवं आदिवासी संगठनों के भारी समर्थन को देखकर आदिवासियों को धर्म के नाम पर बांटने और मिशनरियों पर लगातार जुबानी हमला करने वाले झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने इस मामले पर बोलने से साफ मना कर दिया। अब भाजपा को यह डर सता रहा है कि आदिवासियों की राजनीतिक एकता पार्टी को 2019 में सŸाा से बेदखल कर सकता है। चूंकि लोकतंत्र में संख्याबल को ही सबकुछ मान लिया जाता है इसलिए जनसंख्या की दृष्ठिकोण से देखें तो राज्य में ईसाई धर्म मानने वालों की कुल जनसंख्या मात्र 4 प्रतिशत है और सिर्फ 14 प्रतिशत आदिवासी ही ईसाई धर्म मानते हैं। ऐसी स्थिति में इस छोटा सा समुदाय से भाजपा को इतना डर क्यों लगता है? क्या सचमुच ईसाई धर्मगुरूओं में सŸाा पलटने की झमता है? क्या भाजपा अब अपने ही बुने जाल में फंस चुकी है? शेर की तरह दहाड़ने वाले मुख्यमंत्री रघुवर दास क्यों अचानक नरम पड़ गये हैं? भाजपा नेताओं की प्रतिक्रया से यह स्पष्ट झलकता है कि वे इस घनाक्रम से राजनीतिक रूप से भयभीत हैं।

भाजपा के इस ‘पैनिक फायर’ को समझने के लिए झारखंड के इतिहास को पलटकर देखना होगा। झारखंड देश का ऐसा इलाका है जहां स्वायत्तता, प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज) की रक्षा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए आदिवासी लोग पिछले 300 सालों से संघर्षरत हैं। इस संघर्ष को ब्रिटिश हुकूमत भी जमींदोज नहीं कर सका। बिरसा उलगुलान के बाद आदिवासियों के इस संघर्ष में ईसाई मिशनरी सीधे तौर से जुड़ गये। आदिवासियों के जमीन का मुद्दा मिशनरियों के लिए प्राथमिक मुद्दा बन गया। झारखंड के खूंटी इलाके में कार्यरत फादर हाॅफमैन ने छोटानागपुर के आदिवासियों की जमीन रक्षा हेतु ‘छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908’ का ड्राफ तैयार कर ब्रिटिश हुकूमत को सौंपा जो बाद में कानून का रूप लिया। आज छोटानागपुर के आदिवासियों के पास जमीन बची हुई है तो इसी कानून का नतीजा है। इस कानून को आदिवासियों के रक्षा कवच का दर्जा हासिल है। इसी तरह फादर लीवंश ने भी खूंटी इलाके में आदिवासी जमीन से संबंधित सैकड़ों मुकदमा न्यायालय में लड़कर आदिवासियों को उनकी जमीन वापस करवायी। इसी तरह झारखंड आंदोलन में ईसाई धर्मगुरू एवं ईसाई आदिवासियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसलिए भाजपा और संघ परिवार ने यह ओराप भी लगाया था कि ईसाई मिशनरियों का यह अलगावादी आंदोलन है जो देश को तोड़ना चाहते हैं। अंततः झारखंड अलग हुआ और आज भाजपा के लोग ही सŸाा का आनंद उठा रहे हैं। यदि आज के संदर्भ में देखें तो झारखंड के अलग-अलग हिस्से में चल रहे विस्थान विरोधी आंदोलनों, सीएनटी/एसपीटी संशोधन विरोधी आंदोलन और आदिवासी पहचान, भाषा व संस्कृतिक आंदोलनों में ईसाई आदिवासियों की बहुत बड़ी भूमिका है। ईसाई मिशनरियों के कार्य ने उलगुलान के ज्वाला को बुझने नहीं दिया हैं और यही भाजपा के गले की फांस बनी हुई है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि झारखंड में भाजपा की राजनीति आदिवासियों के विभाजन पर निर्भर है। भाजपा को झारखंड की सत्ता दिलाने में छोटानागपुर इलाका का बहुत बड़ा हाथ है और आदिवासियों के बीच सरना बनाम ईसाई का विवाद भी सबसे ज्यादा यहीं पर है, जिसका सीधा फायदा भाजपा को चुनाव में मिलता है। इसलिए आदिवासियों के बीच जिस दिन धर्म आधारित विवाद समाप्त हो जायेगा उसी दिन भाजपा की राजनीति भी समाप्त हो जायेगी। ऐतिहासिक रूप से देखें तो यह इलाका कभी कांग्रेस का गढ़ हआ करता था। आदिवासी लोग कांग्रेस के पारंपरिक वोटर थे। आदिवासियों के बीच मिशनरियों का पकड़ और कार्य करने का तरीका तथा कांगे्रस को उनके राजनीतिक समर्थन को संघ परिवार ने गहराई से अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्हें यह समझ में आया कि धर्म आधारित विभाजन ही उन्हें सŸाा तक ले जा सकता है। वे वनवासी कल्याण केन्द्र एवं विकास भारती जैसे एनजीओ के माध्यम से सरना धर्म मानने वाले आदिवासियों के घरों में घुसकर उनके मन में यह अवधारना बैठाने में सफल हो गये कि ईसाई आदिवासी ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि उन्हें मिशनरी शिक्षण संस्थानों से सहयोग मिलता है और नौकरी में आरक्षण का लाभ ले लेते हैं तथा उन्हें कांग्रेस का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। इसलिए यदि उन्हें अपना हिस्सा चाहिए तो भाजपा के छात्रछाया में आना होगा। वहीं संघ से जुड़े संगठनों ने धर्मांतरण को बड़ा मुद्दा बना दिया। वे बार-बार एक ही बात को बोलते रहते हैं कि ईसाई मिशनरी आदिवासियों को धोखे, लालच और डरा-धमका कर उनका धर्म परिवर्Ÿान कराते हैं लेकिन इस तथ्य को अबतक वे साबित नहीं कर पाये हैं। भाजपा को पता है कि छोटानागपुर से उनको कोई उखाड़ सकता है तो वह हैं सरना-ईसाई आदिवासी एकता और मिशनरी लोग इस दिशा में सघन कार्य करते दिखाई पड़ते हैं। भाजपा को यह डर सता रहा है कि आदिवासियों की एकता जहां कायम हुई वहां उसका सूर्य अस्त होना निश्चित है।

तीसरा मामला है ईसाई मिशनरियों के द्वारा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वस्थ्य सेवा उपलब्ध कराना। ईसाई मिशनरी लोग झारखंड में बड़े पैमाने पर शिक्षा और स्वस्थ्य सुविधाओं के द्वारा अपनी सेवा उपलब्ध करा रहे हैं। राज्य के सुदूर इलाकों से लेकर राजधानी में स्थित मिशनरी संचालित शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करना तथा मिशनरी संचालित स्वस्थ्य केन्द्रों में उपचार कराना लोगों की प्राथमिक सूची में है। ऐसा इसलिए हैं क्योंकि राजसŸाा लोगों को शिक्षा और स्वस्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने में पूर्णरूप से असफल हो चुका है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि मिशनरी शिक्षण संस्थानों एवं स्वस्थ्य केन्द्रों से सेवा लेने वाले बहुसंख्य लोग गैर-ईसाई हैं, जिन्हें सेवा के बादले धर्मांतरण करने की जरूरत नहीं है जैसे कि भाजपा और संघ परिवार मिशनरियों पर आरोप लगाते हैं। इसलिए मिशनरियों पर ईसाई आदिवासियों की तरह ही गैर-ईसाई आदिवासी और गैर-आदिवासियों का विश्वास कायम है। इस विश्वास को भाजपा और संघ परिवार नहीं तोड़ पा रहे हैं तथा ईसाई मिशनरियों के शिक्षण, स्वस्थ्य एवं प्रबंधन का उनके पास कोई तोड़ नहीं है। एक तरह से कहें तो राज्य में चर्च दूसरी सŸाा है जो किसी भी समय भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है।

चौथी बात यह है कि राज्य में आदिवासियों के बीच मिशनरियों का बहुत बड़ा नेटवर्क है। वे सैकड़ों सामाजिक संस्थानों के माध्यम से आदिवासियों के बीच उनके मुद्दों को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करते हैं। झारखंड सरकार ने इन संस्थानों में से 96 संस्थानों पर धर्मपरिवर्Ÿान का आरोप लगाकर उनके अर्थव्यवस्था पर कानूनी हमला करने का प्रयास किया लेकिन अंततः कुछ निकल कर सामने नहीं आया। सरकार को लगा कि मिशनरियों के सामाजिक संस्थानों पर कानूनी हमला करने से वे डर जायेंगे। इस तरह से उनके उपर लगाम लगाया जा सकता है लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। चर्च नेतृत्व ने सीएनटी/एसपीटी मामले को अपने अस्तित्व के साथ जोड़ लिया। इन्हें पता है कि झारखंड में चर्च का अस्तित्व आदिवासियों के अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए यदि चर्च आदिवासियों कीे जमीन बचाने का संघर्ष में साथ नहीं देता है तो लोग चर्च से विमुख हो सकते हैं। 15 सितंबर 2015 को रांची में हुई रैली ने सरकार को सख्ते में डाल दिया था क्योंकि लगभग 70 से 80 हजार आदिवासी लोग अचानक राजधानी पहुंच गये, लेकिन खुफिया एजंेसियों तक को इसकी भनक नहीं लगी। यह चर्च के नेटवर्क का ही कमाल था। अब सरकार को यह बात मालूम है कि मिशनरी लोग किसी भी समय लाखों लोगों को राजधानी में जुटा सकते हैं और उन्हें जागरूक करने का अभियान बहुत तेजी से चल रहा है। इसलिए जिस दिन आदिवासी समाज का राजनीतिकरण हो गया, वे ब्राहमणवाद और पूंजीवाद के गंठजोड़ तथा धर्म के नाम पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को समझ गये उस दिन राज्य में भाजपा राजनीतिक रूप से बहुत कमजोर हो जायेगा।

पांचवी बात यह है कि 16-17 फरवरी 2017 को रांची में आयोजित ‘ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट’ के बाद सीएनटी/एसपीटी का मामला ठंढा पड़ गया था। भाजपा और झारखंड सरकार ने यह मान लिया था कि स्थानीय नीति की तरह ही यह मामला भी धीरे-धीरे ठंढ़ा पड़ जायेगा और हस्ताक्षर किये गये 210 एम.ओ.यू. को धरातल उतारने में उन्हें कठिनाई नहीं होगी। लेकिन जब मीडिया में खबर आयी कि सीएनटी/एसपीटी का मामला राज्यपाल के पास अटका हुआ है तो उसपर तुरंत हस्तक्षेप करते हुए कार्डिनल ने बिशपों के साथ राज्यपाल से मिलकर सीएनटी/एसपीटी कानूनों में किये गये संशोधन को रोकने का आग्रह किया। यह कार्डिनल का मास्टर स्ट्रोक था, जिसने इस मुद्दे पर जान फूंक दी। इतना ही नहीं कार्डिनल का यह कदम सरना-ईसाई आदिवासी एकता में संजीवनी का काम करेगा क्योंकि लोगों के बीच यह संदेश गया है कि ईसाई धर्मगुरू धर्मपरिवर्Ÿान के बजाये आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए संघर्षरत हैं। अब जमीन बचाने का संघर्ष और तेज होगा तथा ग्लोबल ईवेस्टर्स समिट में किये गये समझौतों को जमीन पर उतारने के लिए आदिवासियों की जमीन लेना बहुत कठिन हो जायेगा। अब भाजपा के लिए एक तरफ कुंआ है तो दूसरे तरफ खाई है क्योंकि जनभावना को समझे बगैर भाजपा नेताओं ने सीएनटी/एसपीटी नामक मधुमक्खी के छाते को छेड़ दिया है।