हमारे कुछ आदिवासी मित्र इस खामखयाली में रहते हैं कि यदि आदिवासी समूह में एकता बन गई तो वे भाजपा को झारखंड में पराभूत कर देंगे. लेकिन सिर्फ झारखंडी एकता काफी नहीं. चुनाव भावनात्मक मुद्दा नहीं, उसका अपना एक गणित होता है. वरना जिस भाजपा का एमरजंसी के पहले झारखंड में एक सीट भी जीनता मुश्किल था, वही अब तीस सीट तक कैसे जीत रही है? उस चुनावी गणित को समझना होगा.

दरअसल, आदिवासी आबादी का अनुपात राज्य में लगातार कम होता गया है. अब वह औसतन 25-26 फीसदी के करीब है. और यह आबादी भी बिखरी हुई. संथालपरगना संथालबहुल इलाका है. छोटानागपुर का इलाका कुरमीबहुल. और दक्षिणी छोटानागपुर आदिवासी- उरांव, मुंडा, भूमिज आदि- बहुल. बावजूद इसके आदिवासी आबादी यदि पूरी तरह एकजुट भी हो गई तो भाजपा को हराना के लिए काफी नहीं. होता यह भी है कि आरक्षित सीट पर यदि भाजपा किसी आदिवासी को प्रत्याशी बनाती है तो आदिवासी मतों का भी विभाजन कमोबेस होता ही है. फिर आदिवासियों के कम वोट प्राप्त कर भी आरक्षित सीटों पर गैर आदिवासी, कुरमी और अन्य अति पिछड़ी आबादी के वोटों की मदद से भाजपा प्रत्याशी जीत जाता है और भाजपा के टिकट पर जीतने वाला आदिवासी विधायक भी भगवा रंग से रंग कर आदिवासी हितों का विरोधी हो जाता है. फिर पैसे का खेल इसलिए भाजपा को हराने के लिए वह राजनीतिक समीकरण बनाना जरूरी है जो जयपाल सिंह ने अपने राजनीति दौर में बनाया था. या कम से कम वह राजनीतिक समीकरण जो एके राय, शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो ने बनाया था.

पिछले दिनों हमारी मुलाकात झारखंड पार्टी के एक शीर्ष नेता और बुद्धिजीवी सीआर मांझी से टाटा में हुई. हम दोनों ने इस मसले पर बातचीत की. श्री मांझी भी मानते हैं कि भाजपा को हराने के लिए आदिवासी, दलित, सदान और अल्पसंख्यको की एकजुटता जरूरी है. लेकिन यह काम आसान नहीं. और वजह यह कि झारखंड के दलित हों या कुरमी या फिर स्थानीय मुसलमान, वे सभी कभी न कभी आदिवासी ही थे. जिन्होंने हिंदुओं की दासता स्वीकार कर ली, वे दलित बन गये. कुरमी आदिवासियों से खुद को श्रेष्ठ समझने लगे और अलग हो गये. अंसारी समुदाय क्या अफगान और इरान से यहां आया था? वे यहीं के आदिवासी थे. लेकिन मुसलमान बनने के बाद दाढी रख ली. सिंहभूम के राजनगर ब्लाॅक के शोभापुर संथालों का गांव है. वहां पांच घर मुसलमान हैं. वे क्या विदेश से आये थे? संथालपरगना के भागनाडीह में सिंधो कान्हूं के घर के बगल में मुसलमान परिवार है. तो क्या वह बाहर से आया? वह वहीं का वाशिंदा था, लेकिन मुसलमान बन गया. और खुद को आदिवासियों से अलग मानने लगा.

बावजूद इसके जयपाल सिंह ने उन सबों को बहुत दिनों तक झारखंड पार्टी के साथ जोड़ कर बहुत दिनों तक रखा. लेकिन कांग्रेस की साजिश की वजह से वे अलग हो गये. 12 गैर आदिवासी विधायक झारखंड पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में चले गये. बाध्य हो कर जयपाल सिंह को कांग्रेस से मर्जर करना पड़ा. उस समय भी जयपाल सिंह ने कई शर्तें रखी थी. झारखंड अलग राज्य बनेगा. आदिवासीबहुल जिलों- संथाल परगना, सिंहभूम, मानभूम, रांची और पलामू- का जिला अध्यक्ष आदिवासी होगा आदि. लेकिन नेहरु के समय ये ही इन शर्तों की अवहेलना होनी शुरु हो गई और अंत में जयपाल सिंह को इस बात का तीव्र एहसास भी हुआ कि उनसे बहुत भारी भूल हुई.

हम लोगों ने कांग्रेस में झारखंड पार्टी के विलय का विरोध किया था और अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का गठन किया था. बागुन सुंबरई उसके अध्यक्ष और एनई होरो उसके महासचिव बनाये गये. 67 के चुनाव में बगैर रजिस्ट्रेशन के हमने 11 सीटें जीती थी. लेकिन बाद के दिनों में हम झारखंडी एकता कायम नहीं रख सके. हालांकि हमने भरसक ईमानदारी से राजनीति की और अब भी कर रहे हैं. एनई होरों की जब मृत्यु हुई तो उनके पास सिर्फ 83 रुपये थे. इसलिए झारखंडी एकता को फिर से कायम करने की कोशिश होनी चाहिए, वरना सब कुछ खत्म हो जायेगा. यह काम कठिन तो है लेकिन उसकी शुरुआत हम हर समुदाय से एक एक प्रबुद्ध और सक्रिय कार्यकर्ता-नेता को जुटा कर शुरु कर सकते हैं. आदिवासी, सदान, अल्पसंख्यक एकता को फिर से बना कर ही हम भाजपा को शिकस्त दे सकते हैं. लेकिन यह आसान नहीं.

सीआर मांझी ने झारखंडी एकता को कठिन कार्य बताया है. लेकिन एसपीटी और सीएनटी एक्ट को लेकर जो तीव्र आंदोलन शुरु हुआ है, उससे शायद एक नई राह निकले. क्योंकि इन भू कानूनों के संशोधन से जो तबाही आने वाली है, उससे सिर्फ आदिवासी नहीं, वे तमाम लोग प्रभावित होंगे जिनका जीवन झारखंड के जल, जंगल, जमीन पर निर्भर है. जरूरी है कि एक बार फिर झारखंड में वह झारखंडी एकता कायम हो जो भाजपा के जहरीली राजनीति के पूर्व यहां कायम थी. झारखंडी नेताओं को तो समझाना मुश्किल है. बाबूलाल मरांडी को कौन् समझाये कि संथाल परगना में वे यदि शिबू सोरेन के मुकाबले चुनाव लड़ेंगे तो लाभ भाजपा को होगा. सुदेश महतो को कौन याद दिलाये कि आजसू भाजपा का राजनीतिक औजार बनने के लिए नहीं बल्कि झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को धार देने के लिए बनी थी. यह काम तो झारखंडी जनता ही कर सकती है सीएनटी और एसपीटी के खिलाफ तीव्र आंदोलन चला कर.