कामकाजी महिलाओं के लिए बेहतर माहौल बनाने और कार्यस्थल पर उनकी सुरक्षा को लेकर निरंतर प्रयास हो रहे हैं. इसके लिए कानून भी बने हैं. मगर अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. सबसे पहले तो समाज को, ख़ास कर पुरुष को यह समझने की जरूरत है कि एक महिला को घर और बाहर दोहरे दबाव में और संतुलन बना कर काम करना पड़ता है. कदम कदम पर उसे अपनी क्षमता सिद्ध करनी पड़ती है. अपवादों को छोड़ कर परंपरागत सोच में जकड़ा परिवार/पति भी अपनी बहू/पत्नी को अतिरिक्त आय के लिए ही नौकरी करने की अनुमति देता है. बच्चों के प्रति उसकी विशेष जवाबदेही तो होती ही है, उससे परिवार के रूटीन कामों में भी एक घरेलू महिला जैसी भूमिका की अपेक्षा की जाती है. नतीजा. दोनों जगह उसे ताने सुनाने पड़ते हैं.

और अजीब विडम्बना है कि कई बार महिला के पक्ष में बने कानून भी परोक्ष रूप से उसके हितों के खिलाफ चले जाते हैं.

कर्नाटक विधानसभा की एक कमेटी ने एक प्रस्ताव में कहा है कि यदि महिलाएं नहीं चाहतीं, तो उन्हें रात की पाली में काम करने पर बाध्य नहीं किया जाना चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी के एक तबके ने इसका तीखा विरोध किया है. उनके अनुसार इससे कार्यस्थलों में महिलाओं के लिए जगह और कम हो जायेगी. उनका कहना है कि प्रसूती/प्रजनन अवकाश की अवधि 26 माह किये जाने से भी महिलाओं के लिए काम करने के अवसर में कमी आने की आशंका है. इसलिए कि निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठान इस कानून पर अमल की बाध्यता के कारण महिला को नौकरी देने से हिचक सकते हैं. इसके लिए बहाने गढ़ सकते हैं. इसी तरह रात की पली में काम न करने का विकल्प होने पर अधिकतर महिलाएं उसका लाभ लेना चाह सकती हैं. इसमें कुछ असहज या गलत भी नहीं है.

आदिम काल में जब समाज और परिवार का विकास हुआ होगा, तब निश्चय ही स्त्री और पुरुष के बीच कार्य विभाजन में प्राकृतिक न्याय; दोनों की क्षमता और जरूरत का ध्यान रखा गया होगा. मगर कालांतर में जैसे जैसे समाज पुरुष प्रधान होता गया; या कहें पुरुष की नीयत में खोट उत्पन्न होती गयी, इस कार्य विभाजन में और दोनों के रिश्तों में असंतुलन पैदा होता गया. घर के काम करना स्त्री की जवाबदेही से बढ़ कर उसकी नियति/बाध्यता बनती गयी. लेकिन धीरे धीरे परिस्थिति बदली और आज महिलाएं न सिर्फ हर क्षेत्र में अपनी क्षमता सिद्ध कर रही है, बल्कि उनमें बराबरी की आकांक्षा भी जगी है. लेकिन समाज का सोच उस गति से नहीं बदल पाया है. नतीजतन उन्हें नये नये तर्कों से घर की सीमा में बंधे रखने के प्रयास भी होते रहते हैं.

पहली नजर में कर्नाटक की विधायिका का प्रस्ताव महिलाओं के हित में है, लेकिन उसके लिए बच्चे की परवरिश या सुरक्षा का तर्क सही नहीं है. कामकाजी महिलाओं को सहूलियत अवश्य चाहिए. मगर यह उनके काम के अवसर और उनकी प्रगति/तरक्की में बाधा न बने, सरकार को इसे सुनिश्चित करना होगा. सम्बद्ध प्रस्ताव में महिला की सुरक्षा का भी तर्क दिया गया है. मगर अजीब बात है कि उनकी सुरक्षा के लिए जिनसे खतरा है, उन पर सख्ती बरतने को प्राथमिकता देने के बजाय महिलाओं को ही शाम के बाद घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है. लोग तो मानते ही हैं कि पुरुष की बुरी नजर और नीयत से बचने के लिए महिला को ही परदे में रहना चाहिए, मगर यह प्रतिगामी सोच है. कोई प्रगतिशील सरकार भला ऐसा कैसे कर सकती है कि वह अपराधियों/ दुष्कर्मियों को नियंत्रित करने के बजाय महिला को ही घर में बंद रहने की बात करे.