यह आज के दौर का सबसे लोकप्रिय फैशन है- पूंजीवादी व्यवस्था के गर्भनाल से जुड़ कर तर माल खाना और क्रांति के गीत गाना. मतलब यह कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इसी व्यवस्था में ब्यूरोक्रैशी, शैक्षणिक संस्थानों, अकादमियों या फिर किसी बड़ी गैर सरकारी संस्था से जुड़ कर खुद तो सुविधापूर्ण जीवन जीता है, सुरक्षित जोन में रहता है और यही से हांका लगाता रहता है उस युद्ध के लिए जिसमें वह स्वयं कभी नहीं मारा जाता, गरीब आदिवासी मारा जाता है. कभी पुलिस की गोली से तो कभी माओवादियों की गोली से. अभी अभी किसी पुलिस अधिकारी का एक पत्र फेसबुक पर घूम रहा है जिसमें यह बताया जा रहा है कि माओवादियों ने कितना मारा और सत्ता ने कितना मारा. यह भी बताया जा रहा है कि यह पूरी व्यवस्था, यानी भारतीय लोकतंत्र में सेना, पुलिस, न्यायपालिका आदि की भूमिका किस कदर जन विरोधी है.

तो हम यह स्पष्ट कर दें कि हम शोषण और विषमता पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक नहीं. न इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के ही कायल हैं. हम तो आदिवासियों की उस परंपरागत शासन व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कायल है जो बगैर थाना और शहर कोतवाल के सदियों से चला आ रहा है और आज के दौर में भी भरसक अपने तरीके से और अपने शर्तों पर चल रहा है. लेकिन यह व्यवस्था गैर आदिवासी समाज को मान्य नहीं होगी. माओवादियों को भी नहीं. वैसी स्थिति में दुनियां में चल रही शासन व्यवस्थायें- सैन्य शासन, तानाशाही, सर्वहारा की तानाशाही, राजशाही और संसदीय लोकतंत्र के अनेक रूपों में अनेक खामियों के बावजूद हमे संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार्य है. एक बार फिर स्पष्ट कर दें कि स्वीकार्य होने का अर्थ उसे मुकम्मल मानना कदापी नहीं.

अब आईये हम पिछले चार दशकों से चल रहे उस युद्ध की बात करें जिसके लिए हम इस सुरक्षित जोन में रहते हुए हांका लगाते हैं, आंसू बहाते हैं, कविता और कहानी लिखते हैं. और इन सब बातों से परे जो चलता जा रहा है.

सवाल यह नहीं कि सत्ता पक्ष ने कितना मारा और माओवादियों ने कितना ? यह तो युद्ध है. जिसकी मारक क्षमता ज्यादा होगी, वह ज्यादा मारेगा. सवाल यह कि इस अनवरत चलती हिंसा से भी हम इस सामाजिक- आर्थिक ढांचे को बदलने की दिशा में कितना आगे बढ़े?

सवाल यह भी कि मारा कौन जा रहा है? सेना या पुलिस के आक्रमण में भी निरीह आदिवासी मारा जाता है, क्योंकि माओवादियों का प्रशिक्षित गुरिल्ला दस्ता तो कार्रवाई कर खिसक लेता है. और माओवादी भी किसे मारते हैं? सेना या पुलिस के सामान्य जवान को ही जो किसी किसान और मजदूर का ही बेटा होता है. या फिर वह माओवादियों के हिसाब से हर बार पुलिस का मुखबिर होता है. यानी, गांव- कस्बे में रहने वाला कोई गरीब गुरबा ही. कम से कम वह अंबानी, अदानी, टाटा बिड़ला या उनके इलाके का कोई कोई धन्ना सेठ और बड़ा उत्पीड़क नहीं. माओवादी आज बस्तर में संकेंद्रित दिखते हैं, लेकिन उनकी राजनीति झारखंड और बिहार के संधिस्थल कैमूर और पारसनाथ की पहाड़ी श्रृंखला से सत्तर के दशक में शुरु हुआ और अपने शुरुआती दौर में उन्होंने चुन-चुन कर झामुमो नेताओं की हत्या की, इस रणनीति के तहत कि जब तक वह लड़ाकू लीडरशिप खत्म नहीं होगा, तब तक माओवाद का बिस्तार नहीं होगा.

अहम सवाल यह भी है कि क्या आप जिसका संघर्ष उसका नेतृत्व में विश्वास करते हैं? नहीं? तो कोई बात ही नहीं. हम विश्वास करते हैं कि संघर्ष जिसका होगा, नेतृत्व भी उसी का. और हम देखते हैं कि माओवादी राजनीति के शीर्ष नेतृत्व में आदिवासी नहीं, टाॅप दस नेताओं में से आठ आंध्र प्रदेश के एक जिला विशेष के हैं और वे भी सवर्ण.

माओवादियों और उनके समर्थकों का दावा है कि माओवादी आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं? कृपया यह बतायें कि विस्थापन के खिलाफ किस लड़ाई में माओवादी हैं? नियमगिरि में माओवादी हैं? नेतरहाट, तपकारा, ईचा, का संघर्ष माओवादियों का है? नर्मदा, सुवर्णरेखा के विस्थापितों के हक की लड़ाई माओवादी लड़ रहे हैं? पोटका में भूषण और जिंदल के खिलाफ, खूंटी में मित्तल के खिलाफ कौन लड़ रहा है?

स्पष्ट करें कि क्या माओवादियों की संघर्ष परंपरा क्या आदिवासी संघर्ष परंपरा है? आदिवासी समाज जीवन और संघर्ष में साथ साथ रहता है. तिलका मांझी, सिधो कान्हू, बिरसा मुंडा में से किसी ने वेतनभोगी हिरावल दस्ता तैयार नहीं किया. युद्ध हुआ तो समाज का बच्चा, बूढा, औरत मर्द, सभी पोटली में रशद और पीठ पर बच्चा बांध युद्ध के लिए निकल पड़ा.

इसलिए यह मत बतायें कि सेना और पुलिस क्या-क्या जुल्म करती है. सेना खौफ का ही नाम है. आपकी करनी से सत्ता को वह मौका मिलता है कि वह नागरिक क्षेत्र में सेना का इस्तेमाल करे. झारखंड में बड़े- बड़े जन आंदोलन हुए. अलग राज्य का आंदोलन हुआ नेतरहाट का आंदोलन तो सेना के फायरिंग रेंज के ही खिलाफ था. लेकिन सेना को हस्तक्षेप का मौका नहीं मिला, क्योंकि उन आंदोलनों में जनता की व्यापक भागिदारी थी. अभी सीएनटी और एसपीटी में संशोधन के खिलाफ व्यापक जन आंदोलन छिड़ा हुआ है.

आपको तय यह करना है कि सत्ता के खिलाफ व्यापक जन भागिदारी वाला आंदोलन चाहिये, जिसमें आप यदि चाहें तो भाग ले सकते हैं या गुरिल्ला युद्ध, जिसमें आप कभी भाग नहीं लेते हैं या लेंगे, बस सुरक्षित जोन में बैठ कर हांका लगाते हैं. क्योंकि यह सबसे आसान है- पूंजीवादी व्यवस्था के गर्भनाल से जुड़ कर तर माल- मोटा वेतन, पेंशन, स्वास्थ वीमा, एलटीसी आदि- खाना और क्रांति के गीत गाना.