‘बेगमजान’ श्रीजीत मुखर्जी द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म है. इस कहानी का कालखंड 1947 ई. है, जब भारत का विभाजन हुआ था. भारत और पाकिस्तान बनने के और उस समय हुए दंगों को दर्शाते कई फिल्म बने और सराहे भी गये. बेगम जान ऐसी ही एक फिल्म है.

बेगम जान एक कोठे की मालकिन थी. उसके साथ अन्य ग्यारह महिलाएं थी. उनमें से एक महिला मैना थी, जो अपनी नाबालिग बेटी के साथ रहती थी. उनके आय का स्रोत देह व्यापार था. वे सारी महिलाएं देश के कई हिस्सों से आई हुई विभिन्न धर्मों को मानने वाली थीं. लेकिन उनके वहां आने का मुख्य कारण था समाज में उनका शोषण. वे उस कोठे में आकर बेगम जान के संरक्षण में रह कर बेहद खुश थीं. वहां न धर्म का बंधन था, न समाज का शोषण. उस कोठे में दो पुरुष भी थे, एक था कोठे का पहरेदार सलीम और दूसरा उन सबका सेवक सुरजीत. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, लेकिन भारत की आजादी के एवज में लार्ड माउंटबेटन ने धर्म के नाम पर भारत को दो टुकड़ों में बांटने का निर्णय लेता है. इस आदेश का पालन करने में भारत—पाकिस्तान दोनों के सरकारी महकमो को बहुत भारी परेशानी होती है. सीमा रेखा के सामने कोई पहाड़ तो कभी जंगल आ खड़ा होता है. बिना किसी भौगोलिक जांच के बंटवारे की लकीर खींच दी गई थी. ऐसी ही कठिनाई तब हुई जब उस विभाजन रेखा के बीच में बेगम जान की कोठी आ जाती है. दोनों तरफ के सरकारी अफसर कोठी को खाली करवाने के प्रयास में हार जाते हैं, तब वे वहां के स्थानीय गुंडे कबीर की सहायता से कोठी पर आक्रमण की योजना बनाते हैं. कोठी की सारी महिलाएं आने वाली विपदा को जान कर बंदूक चलाने की दक्षता हासिल करती है और कबीर के गुंडों का मुकाबला करती है. लेकिन अंत में वे अपनी हार को जान कर वहां से भागती नहीं, बल्कि कोठी के अंदर ही हथगोलों से लगी आग में जल कर मर जाती हैं.

देश की आजादी का उन महिलाओं के लिए कोई अर्थ नहीं था. क्योंकि उस कोठी के बाहर चाहे वे भारत में हों या पाकिस्तान में, उन पर सामाजिक धार्मिक आदि कई तरह की पाबंदियां ही होगी. कोठी के अंदर वे आजाद थीं, खुश थीं. वहां वे न हिंदू थीं न मुसलमान. उनके पास आने वाले ग्राहक भी किस धर्म को मानने वाले हैं, उसकी चिंता भी उन्हें नहीं थी. कोठी में उन्हें भरपेट भोजन मिलता था, भरण पोषण होता था और वे नाच गा कर अपनी आजादी का भरपूर उपभोग कर रही थीं. इसलिए अपनी इस आजादी को छोड़ कर फिर से गुलाम बनने की अपेक्षा उस कोठी में ही जल कर मर जाना उन्होंने उत्तम समझा.

इस फिल्म में एक संवाद भी है कि कोठी में रहने वाली औरतों को अपने पुरुष ग्राहक के जाति और धर्म से कुछ लेना देना नहीं. ग्राहक से पैस लेती हैं तो उनको संतुष्ट करना ही उनका धर्म है.

यह फिल्म इतना ही संदेश देता तो बेहतर होता. लेकिन फिल्म शुरु होती है 1916 में दिल्ली शहर में रात के समय एक खाली बस में एक युवा लड़की अपने पुरुष मित्र के साथ चढती है. कुछ और युवक उस बस में चढते हैं. लड़की के मित्र को पीट—पीट कर घायल कर देते हैं और लड़की को अपने साथ ले जाना चाहते हैं. लड़की अपने को छुड़ा कर भागती है और सड़क पर जा रही वृद्ध महिला के शरण में जाती है. वृद्धा स्त्री वक्त की नजाकत समझ लड़की को अपने पीछे कर अपने सारे वस्त्र खोल कर लड़कों के सामने खड़ी हो जाती है. लड़के उस वृद्धा को इस अवस्था में देख घबरा कर भाग जाते हैं. फिल्म के अंत में फिर ऐसा ही एक दृश्य सामने आता है.कबीर के आदमी कोठी को घेर लेते हैं तब बेगम जान आने वाली विपदा को जान नैना को अपनी बेटी के साथ पिछले दरवाजे से निकल जाने को कहती है. जब नैना बेटी के साथ पिछले दरवाजे से बाहर निकलती है तो पुलिस दस्ते के लोग वहां आ जाते हैं. दरोगाजी पैंट खोल कर नैना के सामने खड़े हो जाते हैं. नैना की बेटी लाड़ली आपने सारे वस्त्र खोल कर उसके सामने खड़ी हो जाती है. यह देख दरोगा चीखने लगता है कि तुम मेरी बेटी जैसी हो. ऐसा न करो. इस सदमें से उबरने के लिए दरोगा अपनी नौकरी छोड़ देता है.

इन दोनों दृश्यों को इस फिल्म में जोड़ने का निर्देशक का क्या उद्देश्य था यह समझ में नहीं आता. यदि उनका कहना था कि औरत घर के बाहर सुरक्षित नहीं, उस पर कही भी आक्रमण हो सकता है, तो यह कुछ हद तक मान लिया जा सकता है. लेकिन उनके यह कहने का उद्देश्य हो कि पुरुष में अभी भी इतनी नैतिकता बची है कि एक नग्न वृद्धा या नग्न नाबालिग लड़की उनके सामने आ जाये तो वे नैतिकता के दबाव में अपने बुरे विचारों को त्याग देंगे, गलत है. निर्देशक इन दो बातों के अलावा कुछ और कहना चाहते हों तो हमारी समझ में नहीं आई. लेकिन पुरुष की नैतिकता का अनावश्यक प्रदर्शन कुछ अटपटा जरूर लगा क्योंकि प्राय: हर दिन छोटी लड़कियों के साथ बलात्कार की खबरें छपती ही रहती हैं.