‘इतिहास गवाह है’ जैसे जुमले हम बहुत सुनते हैं. इतिहास किस बात का गवाह बनता है, उसको भी जानना है. इतिहास तो मानव विकास क्रम में घटित विभिन्न घटनाओं और परिघटनाओं का एक जीवंत दस्तावेज है, जो यह बताता है कि हजारो वर्ष पूर्व से मानव का जो विकास हुआ है, उसमें क्या अच्छा रहा, क्या बुरा रहा और उसमें क्या कमजोरियां रही. समय के साथ मानव ने उन पर कैसे विजय पाई और आज विकास के किस पायदान पर बैठा है. इतिहास केवल राजे-राजवाड़ों की कहानियां नहीं जो अपने बल-बुद्धि-पराक्रम या छल-बल से दूसरे राज्यों पर कब्जा करते थे, कूटनीति का खेल खेलते थे और एक विलासितापूर्ण जीवन बिताते थे. उन राजाओं के साथ-साथ एक पूरा कालखंड भी चलता था जो उस समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक धार्मिक आदि स्थितियों को भी बताता है जो मूल रूप से संपूर्ण शासकीय नीतियों को प्रभावित करते हैं. जब किसी राजा ने केवल साम्राज्य विस्तार की ही न सोंच कर सामान्य जन की सुख शांति का सोचा, काम किया, वह सफल राजा कहलाया. इस बात का इतिहास साक्षी है. सच्चा इतिहासकार निर्लिप्त भाव से उस समय की घटनाओं का वर्णन कर छोड़ जाता है. हम जब उसे पढते हैं तो पता चलता है कि इतिहास की रचना, इसका पठन-पाठन, अविरल चलने वाली मानवीय विकास के लिए कितना अनिवार्य है. यह एक मार्गदर्शक है.

ऐसी बात है तो हम क्यों इस पचड़े में पड़ते हैं कि इतिहास को किसने लिखा? इतिहास में लिखी बात महत्वपूर्ण है, कि इतिहास लिखने वाला? वर्तमान सरकार के सामने ऐसा ही एक पेंचीदा सवाल खड़ा हो गया है. इतिहास से जिस वर्ण व्यवस्था का हमें ज्ञान होता है, वह तो मनु स्मृति रहा है जो हमारे प्रथम इतिहासकार मनु ने लिखा. लेकिन वर्तमान सरकार का कहना है कि यह हो ही नहीं सकता है. जो वर्ण व्यवस्था आज जाति व्यवस्था बन गई है, का लेखन मुगल काल में हुआ. वर्ण व्यवस्था का उल्लेख करते हुए मनु ने लिखा था कि समाज के लोगों को उनके काम के आधार पर चार भागों में बांटा गया. जिन लोगों के पास बुद्धि चातुर्य था, जो समाज को शिक्षित कर सकते थे, वे ब्राह्मण कहलाये. जिस समूह ने अपने शक्ति बल से समाज की रक्षा का बीड़ा उठाया, वे क्षत्रिय कहलाये. लोगों की रोजमर्रा की चीजों को उन तक पहुंचा कर अपना धंधा करने वाला वैश्य कहलाया. अंत में समाज में एक ऐसा तबका रह गया जिसके पास न चातुर्य था, न बनिक बुद्धि, न जीवन के मूल भूत संसाधनों पर अधिकार. उनके पास था तो उनका शारीरिक श्रम जिसे लगा कर वे अन्य वर्णों की सेवा करते थे और जीवन यापन करते थे. उन्होंने खेतों को जोता बोया, धान का उत्पादन किया, उनके पशुओं को चराया, उनके घर आंगन की सफाई की और उनके मल तक को ढोया. यह वर्ण शूद्र कहलाया. कालांतर में इस वर्ण व्यवस्था और उसके पारस्परिक सहयोग से एक उन्नत समाज बनने से तो रहा, यह जाति व्यवस्था के निम्नतम रूप में आज प्रकट हुआ. जिसके पास पैसा और बुद्धि है, वे अपने दबंगई से अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं. अब रहा समाज का सेवा करने वाला व्यक्ति, जिसके पास न पैसा है और न बल व चतुराई, वह सबसे नीच जाति का भी हो गया. उसका काम सबसे निम्न कोटि का. जब तक मल हमारे शरीर के अंदर है ठीक है, उसे जब शूद्र अपने माथे पर ढोता है, वह अछूत हो जाता है. गाय हमारी माता होते हुए भी मरने के बाद हम उसे नहीं छूते हैं. उसके मृत देह को उठाने के लिए किसी दलित को ही आना होगा. यदि वह नहीं आना चाहे तो उसे मारपीट कर जबरदस्ती उससे यह काम कराया जायेगा. उसके द्वारा हमारे खेतों में उपजाया अन्ना देवी अन्नपूर्णा होती है, लेकिन उपजाने वाला भूखा, नंगा, दरिद्र, जिसे छू लेना भी पाप है. यह है हमारी जाति व्यवस्था का इतिहास और उसका वर्तमान वीभत्स रूप. अब हम यह रोना क्यों लेकर बैठा हैं कि हमारी इस जाति व्यवस्था का रूप जरूर किसी विधर्मी राजा ने ही रखी. मानव जाति के विकास क्रम में विकास के नाम पर मानव मानव के बीच अंतर पैदा किया गया, वह आज की जाति व्यवस्था का घृणित चेहरा बन गया है. जरूरत तो इस बात की है कि इस घृणित जति व्यवस्था का नाश हो, लेकिन भाजपा ने यह नया टंटा खड़ा कर दिया कि इस जाति व्यवस्था को बनाया किसने? इस बात का विश्लेषण राजनीतिक तौर पर कभी नहीं हो सकता है. इसका विश्लेषण तो केवल सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है, क्योंकि जाति व्यवस्था का सबसे गहरा असर समाज में रहने वाले पिछड़े- दलितों पर पड़ता है. दलित कभी भी सामान्य जीवन नहीं बिता सकता क्योंकि वह घृणित काम करने वाली जाति से आता है. अपने शैक्षणिक या आर्थिक स्थितियों में सुधार के साथ यदि वह सामान्य जीवन जीने की कोशिश करे तो यह उच्च जातियों के अहम को ठेस पहुंचाता है. हाल में सहारनपुर में घटी घटना कुछ इसी तरह की है. ठाकुर अपने जाति नायक महाराणा प्रताप की मूर्ति की स्थापना शोर सराबे के साथ करवा रहे थे. उस गांव के दलितों ने इसका विरोध किया, बस ठाकुरों की दबंगई को ठेस लग गई. औश्र उन्होंने मार काट मचा दी. पढा लिखा नौकरी पेशा दलित युवक घोड़ी पर चढ कर या गाड़ी पर सवार हो कर बारात निकाले, तो यह ठाकुरों को अपना अपमान लगता है और वे दलितों को उनकी औकात बताने पर उतारू हो जाते हैं. तो ऐसा असहिष्णु समाज है हमारा. गुजरात के उना में उंची जाति के आक्रमकता से पीड़ित दलित जातियों ने मृत गायों को ढोने, उनका चमड़ा निकालने से मना कर दिया, तो दबंग जातियों में हड़कंप मच गई. मृत गौ माता का निर्दिष्ट स्थान पर ले जाना, उनका चमड़ा छीलना उनके बूते की बात नहीं थी. दलित यदि यह काम नहीं करते हैं तो उनकी मृत गौ माता को तो मुक्ति नहीं ही मिलती, साथ ही उनका सारा अर्थ तंत्र भी गड़बड़ा जाता है. उनके जूतो के कारखाने को चलाने के लिए गौ चर्म की जरूरत अवश्य होती है. ये सारी घटनाएं हमे यह बताती है कि दलित के नाम पर हम एक बड़ी आबादी को असम्मानजनक जीवन जीने को विवश करते हैं. सबका साथ सबका विकास नारा मात्र से ही देश का कल्याण नहीं होगा.

हमारे राज पुरुषों को इसीबीच इतिहास को लेकर एक और चिंता हो गई. उनके अनुसार इतिहासकारों ने मुगल सम्राट अकबर के लिए ‘महान’ शब्द का प्रयोग किया है और उसे अकबर महान कहा है, जबकि महाराणा प्रताप भी उनके समकालीन और वीर थे, लेकिन उन्हें महाराणा प्रताप महान नहीं कहा गया. राजनेताओं की यह पीड़ा कहां छिपी है, यह कैसे कहा जाये? पहली बात जो समझने की है कि बल पराक्रम समान होते हुए भी इन दोनों राजाओं की तुलना नहीं की जा सकती. अकबर लगभग संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार रखता था, जबकि राणा प्रताप राजस्थान सूबे के मेवाड़ के शासक थे. अकबर ने अपने बल पराक्रम से भारत के विभिन्न प्रांतों को अपने साम्राज्य का हिस्सा ही नहीं बनाया, बल्कि एक सुचारु शासन व्यवस्था भी कायम की. वह अच्छी तरह से इस बात को समझता था कि जब तक साम्राज्य की प्रजा सुख शांति से नहंी रहेगी, तब तक उसका साम्राज्य सुरक्षित नहीं होगा. उसने सर्वधर्म समभाव को अपने शासन का आधार बनाया. विभिन्न धर्मों में तालमेल के द्वारा उसकी अच्छी बातों को स्वीकार किया. राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को इच्छानुसार धर्म और पेशा चुनने का अधिकार था. धार्मिक करों की माफी थी. धार्मिक सहिष्णुता का एक अच्छा उदाहरण तो उसकी हिंदू पत्नी जोधाबाई थी जो अपने महल के भीतर मंदिर बना कर अपने हिंदू देवी देवताओं की पूजा किया करती थी. महाराणा प्रताप की वीरता, त्याग, और दृढ संकल्प को भी हम नहीं भूल सकते. अपनी जाति धर्म तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे मुगलों से लड़ते रहे, लेकिन उनकी गुलामी स्वीकर नहीं की. राज पाट छोड़ कर जंगलों में चला गया और अपने स्वाभिमान की रक्षा करता रहे. इतिहास ऐसे वीर पुरुषों को हमेशा स्मरण करता रहा. अब अकबर तथा राणा प्रताप को बराबरी पर लाकर और एक के हक के लिए इतिहासकारों को सवाल के कठघरे में खड़ा करना केवल राजनीतिक कूटिलता है. कई तरह के समसामयिक समस्याओं से जूझते देश को इतिहास के इस तरह के प्रश्नों में उलझा कर भ्रमित ही करना एक साजिश है जो आगे चल कर सांप्रदायिक तनाव और वैमनष्य का ही कारण बनेगा.