छोटानागपुर पठार आदि काल से आदिवासियों का निवास स्थान रहा है, जहां हो, मुंडा, संथाल, उरांव आदि जनजातिय समुदायों के साथ कुड़मी / कुरमी (महतो) जनजाति भी आदि काल से साथ साथ रहते आ रहे हैं. मगर आज के वर्तमान परिस्थिति में टोटेमिक कुड़मी आदिवासी चौतरफा पक्षपात की नीतियों के बीच पिसते अपने पहचान व अस्तित्व की लड़ाई में जूझ रहे हैं.
कुछ लोग कुड़मियों को मूलवासी कहते हैं तो कुछ सदान कहकर सम्बोधित करते हैं. मगर ये दोनों शब्द की उत्पत्ति कब, कहां और कैसे हुई? झारखंड अलग राज्य बनने से पहले मूलवासी शब्द का अस्तित्व नहीं था. झारखंड अलग होेने के बाद झारखंडियों को बांटो और राज करो की नीति व साजिश के तहत आदिवासी और मूलवासी के रूप में अलग कर दिया गया. रही बात सदान का तो डॉ. राकेश महतो के अनुसार यह शब्द हिन्दी छोड़िए, किसी भी भाषा की डिक्सनरी में नहीं मिलता है. इस शब्द का पहला उपयोग या खोज बी पी केसरी और उनके गुरु जी, जिनके नेतृत्व में केसरी बाबु ने पीएचडी की थी, ने की. केसरी जी ने अपने गुरु जी का सहारा लेकर “झारखंड के सदान” नामक किताब लिखकर कुड़मी को भी जबरदस्ती सदान नामक काल्पनिक समुदाय में ठूंसने की हिमाकत कर डाली. बाद में केसरी जी के इस कोशिश को बीर बीरोत्तम, रांची एक्सप्रेस के संपादक बलवीर दत्त आदि ने शदान शब्द को स्थापित करने में काफी मदद की. क्योंकि इससे कुड़मी जैसे झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी समुदाय को आदिवासी से हटाकर अपने साथ मिलाने का बढिया मौका उन्हें मिल गया था. इससे उन्हें दो फायदा हो रहा था, एक झारखंड में आदिवासी की संख्या कम दिखाया जा सकता था और दूसरा कुड़मी को बाहरी या गैर आदिवासी दिखाने की चिरआकांक्षा की पूर्ती हो रही थी, साथ ही साथ नव कल्पित तथाकथित सदान समूह को बड़ा ताकतवर और प्रभावशाली बनाया जा सकता था.
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात जो कुड़मियों के साथ घटित हुई, वो थी छोटानागपुर (तत्कालीन) के कुुड़मियों को उत्तर भारत के कुर्मियों के साथ जोड़ा जाना. ये सारा दिग्भ्रम शुरू हुआ 1894 में उत्तर प्रदेश में गठित ‘ऑल इंडिया कुर्मी क्षत्रिय महासभा’ के द्वारा फैलाये गये भ्रमजाल से. 1915 में इस संगठन ने भारत के सभी कुर्मियों के लिये क्षत्रिय स्टेटस की मांग की. चूंकि छोटानागपुर के कुड़मियों को भी अंग्रेजी में Kurmi लिखते थे, तो समान नाम लगने के कारण इन्होंने ब्रिटिशों के साथ मिलकर 1922 में इनके लिये भी क्षत्रिय स्टेटस की मांग की एवं 1929 व 31 में राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को इस सम्बन्ध में मेमोरेन्डम दिया. ये मांग बाहरी कुर्मियों की थी, ना कि छोटानागपुर के टोटेमिक कुड़मी जनजातियों की, ये ध्यान देने वाली बात है. मगर कुड़मी आदिवासियों के साथ हुये इस गहरे षडयंत्र को समझने के बजाय पूर्वाग्रह से प्रेरित सभी इसे दरकिनार करने में लगे रहते हैं.
एच एच रिजले के ‘कास्ट्स एंड ट्राइब्स ऑफ बंगाल’ में साफ उल्लेख किया गया है, कि छोटानागपुर के कुड़मी बिहार के कुर्मियों से अलग द्रविड़ प्रजाति के आदिवासी समुदाय के लोग हैं. सर ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में इसे और क्लीयर किया है, कि प्रिंट/प्रोनाउनसेशन मिस्टेक के वजह से छोटानागपुर के कुड़मी और बिहार के कुर्मी, जिन्हें दोनों को अंग्रेजी में ‘KURMI’ लिखा गया, लेकिन यहां छोटानागपुर के जनजाति कुड़मियों के लिये Hard ‘R’ (चूंकि अंग्रेजी में ‘ड़’ अक्षर का सब्सटिच्युट नहीं होता) और बिहार के कुर्मियों के लिये Soft ‘R’ का उपयोग किया गया है. कुमार सुरेश सिंह ने तो अपने बिहार वॉल्यूम में ‘KUDMI’ और ‘KURMI’ दोनों को सेपरेट चैप्टर देकर पूरी तरह अलग कर दिया है. इससे साबित होता है, कि छोटानागपुर के कुड़मी शेष भारत के कुर्मियों से पूर्णतया भिन्न हैं. इनके भाषा, संस्कृति, परंपरा, रीति रिवाजों एवं अन्य किसी भी प्रकार से कोई मेल नहीं है. सबसे बड़ा फर्क इनके गुस्टिधारी (कुड़मी) और गोत्रधारी (कुर्मी) होने में है. इसलिये छोटानागपुर के कुड़मियों का शिवाजी महाराज और सरदार पटेल से भी किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है. कालांतर में छोटानागपुर के कुड़मियों के लिये Kurmi शब्द में सुधार कर Kurmi Mahto किया गया एवं झारखंड सरकार द्वारा Kurmi/Kudmi (Mahto) किया गया, हालांकि प्रस्ताव Kudmi/Kurmi (Mahto) का था, यहां भी गड़बड़ किया गया.
कुड़मी आदिवासी समुदाय को 1950 में बिना किसी नोटिफेकशन के अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने से छोड़ दिया गया, जबकि वो पूर्व की जनगणना में आदिम जनजाति की सूची में शामिल थे, मगर 1950 में क्यों छोड़ दिया गया, इसके कारण अज्ञात हैं. आखिर कुड़मी जनजाति के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया गया? ये एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा थी, जिसका मकसद आदिवासियों की जनसंख्या व प्रतिशत कम करना एवं कुड़मियों के जमीनों का हस्तांतरण करने की एक सोची समझी चाल थी. उदाहरणस्वरूप इस शांतिप्रिय कृषिजीवि समुदाय को अन्नायपूर्वक विकास के नाम पर अपने जमीनों से नाना प्रकार से बेदखल किया गया एवं यह परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है. यह बेदखल कल-कारखाना, जलाशय (डैम), भूगर्भ (माइन्स) खनन, शिक्षण-प्रशिक्षण संस्था, ताप-विद्युत संस्था एवं महानगर निर्माण आदि के नाम पर किया गया है. इसका ज्वलंत उदाहरण हैं - जमशेदपुर, बोकारो, धनबाद, रांची, हजारीबाग, पुरूलिया, रायरंगपुर, राउरकेला आदि नगरें एवं चाण्डिल, हीराकुंड, मैथन, तिलैया, कंसावती आदि जलाशय तथा टाटा, बीएसएल आदि जैसे प्लांट, जहां सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं कुड़मी समाज के लोग और बदले में मिला है सिर्फ और सिर्फ विस्थापन. इन 67 सालों में इस समुदाय का जो हर क्षेत्र में नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी? तब से लेकर निरंतर अविराम कुड़मी आदिवासी समुदाय को अ.ज.जा. की सूची में शामिल करने के प्रयास जारी हैं. जाने कितने मेमोरेंडम दिये गये, कितने आंदोलन किये गये, मगर धोखा, छल व ठगी के अलावे अब तक कुछ नहीं मिला. लोग इसे आरक्षण से जोड़कर देखते हैं, मगर ये सिर्फ आरक्षण के लिये नहीं, वरन हमारे असल पहचान को बनाये रखने व अस्तित्व को बचाये रखने के लिये भी है. ये किसी के हक छीनने के लिये भी नहीं, ये तो हमारा संवैधानिक अधिकार है एवं इससे किसी का हक किसी रूप में नहीं छिनेगा, बल्कि आदिवासियों की शक्ति और सामर्थ्य बढ़ेगी व छठवीं अनुसूची के मापदंड पूरे होंगे. कुड़मी आदिवासियों एवं अन्य आदिवासियों को एक ना होने देने के मकसद से इनके बीच दरार पैदा करने के लिये गलतफहमी फैलाई जाती है. अन्य आदिवासियों से कहा जाता है, ये आपका हक छीनना चाहते हैं और कुड़मी आदिवासियों से कहते हैं, ये आपको आपका हक देना नहीं चाहते.
समय समय पर कई आदिवासी बुद्धिजीवियों एवं नेताओं ने भी कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल ना करने को अनुचित करार दिया है और कुड़मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की वकालत की है, जिसमें डॉ रामदयाल मुंडा से लेकर डॉ निर्मल मिंज, शिबू सोरेन, सूर्य सिंह बेसरा आदि प्रमुख हैं. जेएमएम पार्टी की मेनुफेस्टो में हमेशा ये मुद्दा शामिल रहा. झारखंड के वर्तमान सीएम रघुवर दास (भाजपा) भी 2009 लोक सभा चुनाव के दौरान इसके समर्थन में बात कह चुके हैं. अर्जुन मुंडा सरकार (भाजपा) दो बार केंद्र से अनुशंसा कर चुकी है. जमशेदपुर के दिवंगत सांसद शहीद सुनील महतो (झामुमो), जमशेदपुर की पूर्व सांसद आभा महतो (भाजपा) और उड़ीसा के सांसद रवींद्र कुमार जेना संसद में आवाज उठा चुके हैं. इसके अलावे कई विधायकों (गुरूचरण नायक, जगरनाथ महतो आदि) और सांसदों ने समय समय पर विधान सभा और संसद में इसके समर्थन में बात रखी है. मगर फिर भी 67 साल बीत जाने के बाद भी कुड़मी समुदाय को अब तक एसटी सूची में शामिल ना कर इसपर सिर्फ राजनीति करना बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है और सम्पूर्ण कुड़मी समुदाय को उसके वाजिब हक से महरूम रखकर उनके विश्वास पर कुठाराघात है. मगर ये अन्याय सिर्फ कुड़मी आदिवासियों के प्रति नहीं, बल्कि गौर से सोचा और समझा जाय तो सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय के साथ है. ऐसा लगता था, झारखंड अलग राज्य बनने के बाद इनकी स्थिति पर ध्यान दिया जायेगा, मगर उल्टे उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया।
ज्ञात हो, कि बिहार एवं उड़ीसा सरकार द्वारा जारी अधिसूचना संख्या 3563-J दिनांक 08 दिसंबर 1931 के द्वारा उक्त अधिसूचना संख्या नोटिफिकेशन नं. 550 (दिनांक 02 मई 1913) में दर्ज जनजातियों (मुण्डा, उरांव, हो, संथाल, भूमिज, खड़िया, घासी, गोंड, कान्ध, कोरवा, कुड़मी, माल-सौरिया और पान) को जनजाति घोषित करते हुए भारतीय उत्तराधिकार कानून 1865 एवं 1925 के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है. अर्थात् ये सभी भारत में लागू हिन्दु लॉ या मुस्लिम लॉ के बजाय आदिवासियों के अपने पारम्परिक सामाजिक शासन व्यवस्था “कस्टमरी लॉ” से संचालित/शासित होते हैं, जिसके अंतर्गत कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका तीनों शासन तंत्र अंतर्निहित हैं। यहां तक कि “झारखंड मामलों से सम्बन्धित समिति की रिपोर्ट मई 1990”, जो 30 मार्च 1992 को तत्कालीन गृह राज्यमंत्री एम. एम. जैकब ने संसद के दोनों सदनों में पेश की थी, में झारखंड के कुड़मी / कुरमी (महतो) समुदाय को “गैर सरकारी आदिवासी” के रूप में नामित/चिन्हित किया गया है. यहां उल्लेख करना आवश्यक है, कि आदिवासी तो आदिवासी ही होते हैं, सरकारी और गैर सरकारी का क्या तात्पर्य? सम्भवत: कुड़मी आदिवासी को, जो सरकारी सूची (एसटी सूची) में शामिल ना होने के कारण उक्त रिपोर्ट में गैर सरकारी आदिवासी कहा गया है।
कुड़मी जनजातियों की सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ, शादी-विवाह, नरता-कामान आदि वैसे ही हैं, जैसे अन्य जनजातियों के हैं. छोटानागपुर के कुड़मी / कुरमी(महतो) समुदाय और अन्य जनजातियों में व्याप्त समानता निमन्लिखित है :
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कुड़मी समुदाय और अन्य जनजातीय समुदायों मे सबसे बड़ी समानता है उनका टोटेमिक होना. प्रत्येक जनजाति या आदिवासी समुदायों की पहचान उनके टोटेम से ही होता है, जो उनके आदि-पुरखों ने समाज को वर्गीकृत करने के लिए पेड़-पौधौं, पशु-पक्षियों या अन्य प्राकृतिक आधारित नामों पर रखा था. उदाहरण के लिये जिस प्रकार संताल में सोरेन, मुर्मु, टुडु आदि टोटेम होते हैं, वैसे ही कुड़मी जनजाति में काड़ुआर, हिंदइआर, बंसरिआर, काछुआर, केसरिआर, बानुआर, पुनअरिआर, डुंगरिआर, केटिआर, डुमरिआर आदि 81 मूल टोटेम (गुस्टि) पाये जाते हैं तथा कुछ के सब-टोटेम (उप-गुस्टि) मिलाकर लगभग 120 टोटेम हैं. प्रत्येक टोटेम का एक टोटेम चिन्ह एवं निषेध होता है, जैसे - काछुआर टोटेम वालों का टोटेम चिन्ह कछुआ होता है एवं ये कछुआ को मारते या खाते नहीं, कहीं मिलने पर तेल सिंदुर लगाकर वापस पानी में छोड़ देते हैं. अन्य जनजातियों की तरह इनमें समान टोटेम में रिश्ता (शादी-ब्याह) वर्जित है.
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अन्य जनजातीय समुदायों की मांझी महाल की तरह कुड़मी समुदाय की भी अपनी अलग सामाजिक शासन व्यव्स्था होती है, जिसे महतो परगनैत व्यवस्था कहते हैं. गांव के मुखिया को महतो और परगना के मुखिया को परगनैत कहते हैं. समाज के किसी भी प्रकार के सभी समस्याओं का निष्पादन व निबटारा परगनैत के पदाधिकारियों द्वारा ही की जाती है.
3.कुड़मी जनजातियों की पूजा पद्धति भी अन्य जनजातियों के समान ही है. ये प्रकृतिपूजक अपने सभी पूजा स्वयं द्वारा ही करते हैं तथा सामूहिक पूजा लाया/पाहन/देउरी द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है. ये देवता के रूप में निराकार गराम, धरम, बसमाता, बड़अपहाड़ आदि की आराधना करते हैं और आदिपुरूष व आदिमाता के रूप में बुड़हाबाबा और महामाञ को अपना आराध्य मानते हैं. संताल में बुरूबोंगा यानि मरांगबुरू, जिसे कुड़मी बड़अपहाड़ कहते हैं, उसी प्रकार हातुबोंगा जिसे गराम ठाकुर, सिंगबोंगा यानि धर्मेश जिसे सुरजाहि यानि धरम व सारना थान को जाहेर थान कहा जाता है. जाहेरथान में गराम ठाकुर व जाहिरमाञ के अराधना में गांव के पूर्वजों को याद किया जाता है व बसमाता के रूप में धरती माता की अराधना की जाती है.
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प्रत्येक जनजातीय समुदायों की अपनी कबिलावाची भाषा है, जैसे - संताल की संताली, मुंडा की मुंडारी, हो की हो, उरांव की कुड़ुख आदि. उसी तरह कुड़मी समुदाय की भी अपनी स्वायत्त कबिलावाची भाषा है - कुड़माली.
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कुड़मी जनजातियों की संस्कृति भी अन्य जनजातियों के समान है, जो पूर्णतया व विशुद्ध रूप से कृषि एवं प्रकृति पर ही आधारित है, जिन्हें “बारअ मासेक तेरअ परब” के नाम से जाना जाता है. इनमें आखाईन में हाइर पुनहा से लेकर सिझानअ/पथिपुजा, सारहुल/फुलपुजा, रहइन, मासंत परब, चितउ परब, गमहा परब, करम, जितिआ, जिल्हुड़, बांदना/सोहराय और टुसु थापना (आगहन सांक्रात), टुसु भासान (पूस सांक्रात) तक सभी विशिष्ट आदि संस्कृति के परिचायक हैं. सभी परब का एक विशेष कारण व महत्व होता है एवं इनके तिथि में कभी कोई परिवर्तन या फेरबदल नहीं होता, क्योंकि ये तिथि आधारित नहीं बल्कि महीने के दिनों की गणना के अनुसार होता है, जैसे - शुक्ल पक्ष के भादर एकादशी में ‘करम’ और यही इनके आदिमता का परिचायक भी है.
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कुड़मि आदिवासियों के रीति-रिवाजों में भी शादी-ब्याह जैसे मौके पर विशिष्ट आदि परंपरा का अनुपालन किया जाता है, जो कनिया देखा से शुरू होकर बर देखा, दुआइर खुंदा, लगन धरा, माड़ुआ बांधा, सजनि साजा, नख टुंगा, आम बिहा, मउहा बिहा, आमलअ खिआ, गड़ धउआ, साला धति, डुभि खिआ, थुबड़ा (हांड़ी) बिहा, सिंनदरादान, चुमान, बिदाई, केनिया भितरा, पितर पिंधा से लेकर समधिन देखा तक के नेग में दृष्टिगोचर होता है.
कुड़मी आदिवासी समुदाय, जो पूरे छोटानागपुर पठार में दो करोड़ से भी अधिक जनसंख्या में है, पिछले 50 सालों से भी अधिक समय से एक भी उच्च प्रशासनिक पदाधिकारी (आईएस) का ना होना एवं अन्य क्षेत्रों के उच्च पदों पर ना होना एवं आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक हर स्तर में अत्यंत पिछड़ा होना इनके ‘बैकवर्डनेस’ को दर्शाता है. इसके अलावे देश व प्रदेश के प्रति कुड़मी समाज के बलिदानों और योगदान को भूले से भुलाया नहीं जा सकता. मगर जमींदारी मालगुजारी प्रथा व ब्रिटिश हुकुमत के विरूद्ध हुये प्रथम आंदोलन ‘चुहाड़ विद्रोह’ के महानायक अमर शहीद क्रांतिवीर रघुनाथ महतो (आंदोलन : 1767 - 78) को भुला दिया गया व इतिहास में कहीं कोई स्थान नहीं दिया गया. झारखंड आंदोलन के पुरोधा बिनोद बिहारी महतो, क्रांतिदूत शक्तिनाथ महतो, मसीहा निर्मल महतो जैसे अनेकों ज्ञात अज्ञात आंदोलनकारियों के योगदान और शहादत को उचित सम्मान दिये जाने की जरूरत है. इन सबके लिये आवश्यकता है, तो सिर्फ राजनीतिक सोच, पूर्वाग्रह व एकतरफा विचारधारा की मनोभावनाओं को त्यागकर इनके लिये न्यायोचित कदम उठाने की, न की राजनीति का शिकार होने की.