क्या आप जानते या समझते हैं कि झारखंडी राजनीति का मूल संकट क्या है? मूल संकट है कि आदिवासी अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं. इसे हम 1901 की जनगणना के आंकड़ों में देख सकते हैं. 1901 की जनगणना के अनुसार, उस वक्त छोटानागपुर में विभिन्न धार्मिक समुदायों की आबादी कुछ इस प्रकार थी:

हिंदू मुसलमान क्रिश्चियन मूलवासी/आदिवासी
471540
40.03%
41972
3.53%
124958
10.51%
546415
45.93%

और आज की तारीख में पूरे झारखंड में आदिवासियों की औसतन आबादी 24 से 26 फीसदी के करीब रह गई है. यानि, करीबन सौ वर्षों में आदिवासी अपने ही घर में आधे के करीब रह गये हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासियों की आबादी बढ नहीं रही. यह सही है कि पलायन, कुछ आदिम जनजातियों की आबादी निरंतर कम होने आदि की वजह से कुल आबादी में आदिवासी आबादी का अनुपात कम हुआ है, लेकिन प्रमुख आदिवासी समुदायों की आबादी बढ रही है. बावजूद इसके आदिवासी आबादी का अनुपात घट रहा है तो मूल वजह यह है कि आदिवासी इलाकों में भी गैर आदिवासी आबादी तेजी से बढ रही है. और इस तरह आदिवासी आबादी अपने घर में भी अल्पसंख्यक बनती जा रही है. और यह संकट सिर्फ झारखंड का नहीं, पूरे पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न आदिवासीबहुल राज्यों का है.

लेकिन इस पर आप यदि सवाल उठायेंगे तो समाज का अभिजात तबका, प्रभु वर्ग, प्रबुद्ध वर्ग भी चीखने लगेगा- कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है. क्या भारत के नागरिक की हैसियत से सभी नागरिकों को यह अधिकार नहीं कि वह देश के किसी भी भाग में जायें, वहां विचरण करे और बसे? तो जवाब है, जरूर जाईये, लेकिन यदि किसी के घर में घुस कर आप वहीं ठिकाना बना लें, तो वहां के मूल निवासी कहां जायेंगे? और यदि ऐसा होता रहा तो यही होगा जैसा तमाम आदिवासी राज्यों में हो रहा है. अपने ही घर में आदिवासी अल्पसंख्यक बनता जा रहा है.

यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि लोग उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश में जाकर क्यों नहीं बसते? तो जवाब मिलेगा कि वहां क्यों जायें. प्राकृतिक संसाधन, खनिज संपदा, शुद्ध पानी, हवा तो आदिवासीबहुल इलाकों में ही है. तो जनाब, आपके पास विशाल समतल और उपजाउं जमीन है, नदियों का विशाल जाल है, अपने इलाकों को विकसित कीजिये. लेकिन यह कठिन है. आसान तो है किसी इलाके को उपनिवेश बनाना. वहां की प्राकृतिक संपदा और श्रम का दोहन करना और दावा यह करना कि हम तो पिछड़े इलाकों का विकास कर रहे हैं. अब सवाल यह कि पिछड़ों का विकास हो रहा है या परभक्षी विकास के लिए पिछड़े बनाये जा रहे हैं आदिवासी? ​इसका खतरनाक परिणाम यह कि इन राज्यों में लोकतंत्र भी बेमतलब बन कर रह गया है. क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की मूल संरचना संसदीय लोकतंत्र है- यानि वयस्क मतों पर आधारित चुनाव. और किसी इलाके की सामाजिक आर्थिक संरचना, वहां आबादी के अनुपात को बदल कर आप उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का भी एक तरह से हनन करते हैं. और चुनाव में आदिवासी मत निरंतर निरर्थक बनते जा रहे हैं. उनकी कोई अहमियत नहीं. वे अपने बलबूते चुनाव जीत ही नहीं सकते. सत्ता पर काबिज होना उनके लिए निरंतर मुश्किल होता जा रहा है.

और यही वह वजह है जिससे झारखंडी राजनीति घुटने टेकने पर मजबूर हो जाती है. हर आदिवासी नेता सीएनटी-एसपीटी एक्ट का समर्थक होने के बावजूद उन राजनीतिक दलों की शरण में पहुंच जाता है जो आदिवासी जमीन को लूटने के लिए सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन चाहते हैं. इसलिए झामुमो सत्ता में रह कर भी डोमेसाईल पर फैसला लेने में हिचकती है. इसी वजह से अपमान का घूंट पीकर भी सुदेश महतो भाजपा के साथ गठजोड़ करते हैं.

तो क्या कोई रास्ता नहीं?

रास्ता तो है. वह रास्ता जिस पर जयपाल सिंह चले थे, शुरुआती दिनों में झामुमो चली थी. यानि सिर्फ आदिवासी नहीं, झारखंडी एकता को बनाना. आदिवासी, सदान, और अल्पसंख्यक एकता को बनाना. सिर्फ आदिवासी एकता नहीं, वंचितों की एकता को बनाने की राजनीति.

लेकिन अभी तो हालत यह है कि झारखंड आंदोलन से जुड़े झारखंडी दलों में भी एकता नहीं. तमाम शीर्ष झारखंडी नेता- बाबूलाल, सालखन, शिबू सोरेन, सुदेश महतो आदि एक दूसरे के खिलाफ राजनीति कर रहे हैं. एक दूसरे के प्रबल आलोचक हैं. साथ बैठना भी जिन्हें गंवारा नहीं.

पिछले कुछ दिनों से सालखन बेहद सक्रिय हैं. वे तेज तर्रार नेता हैं, प्रबुद्ध भी. लेकिन सवाल है कि वे कर क्या सकेंगे चुनावी राजनीति में. क्या वे वह मास अपील रखते हैं कि भाजपा को टक्कर दे सकें? चलिये हम मान लेते हैं कि वे भाजपा के साथ नहीं जायेंगे. बाबूलाल ने भी ऐलानिया कहा है कि वे अब भाजपा के साथ किसी कीमत पर नहीं जायेंगे. लेकिन यदि एक-एक झारखंडी दल किसी राष्ट्रीय या बाहरी दल की पूंछ पकड़ कर चुनाव मैदान में उतरेंगे भी तो क्या वे भाजपा को पराजित कर पायेंगे? झामुमो कांग्रेस के साथ गठजोड़ करेगी, सालखन ने संकेत दिया है कि वे जदयू से गठजोड़ करेंगे और हो सकता है वे सुदेश महतो को भी अपने साथ आने के लिए मना लें. हालांकि हमे उम्मीद नहीं कि सुदेश भाजपा का दामन छोड़ेंगे. हां यह संभव है कि भाजपा उनका दामन छोड़ दे या अपनी शर्ताें पर समझौता करे. बाबूलाल पता नहीं क्या करेंगे. हो सकता है, वे कांग्रेस से उम्मीद लगाये हों. फिर वाम दल हैं. उनका रुख क्या रहेंगा, पता नहीं. यानि, चुनाव तो बहुकोणीय होंगे. तो, जब पूरे देश में अब राजनीति का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका है, वैसे में भाजपा विरोधी मतों के विभाजन से लाभ किसका होगा?

तो अपने अहंकार का, अपनी टुच्ची राजनीति का परित्याग कीजिये. मिल कर बैठिये और भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए मुद्दा आधारित राजनीति के लिए गठजोड़ बनाईये. वरना उछल-कूद करते रहिये और अगले चुनाव में भी मुंह के बल गिरने के लिए तैयार रहिये.