भारत कृषि प्रधान देश है. इसकी लगभग साठ फीसदी आबादी गांव में रहती है और उनका पेशा खेती है. सकल राष्ट्रीय उत्पादन का 16 फीसदी कृषि से आता है और 10 फीसदी कृषि उत्पादन का निर्यात भी होता है. दूसरी सच्चाई यह है कि किसान गरीब है. हर साल कृषि कार्य के लिए उसे ऋण लेना ही पड़ता है. बैंकों से कृषि कार्य के लिए ऋण की व्यवस्था होने के कारण वह महाजनी शोषण से बच जाता है. किसान न कार बनाता है, न मोबाईल बनाता है, न लौह अयस्क का खनन करता है, न हवाई जहाज ही उड़वाता है, जिसके लिए अरबों के कर्ज की जरूरत होती है और लाभ भी उसी अनुपात में होता है. किसान के कर्ज की जरूरत तो हजार या लाख तक सीमित है. इसी अल्प कर्ज से वह खेती का काम करता है और देश की 130 करोड़ जनता के भोजन की जरूरत को पूरा करता है. कृषि कार्य के साथ प्राकृतिक आपदायें जुड़ी रहती है. सूखा, बाढ, आंधी तूफान जैसी आपदाओं से फसल का नाश होना आम बात है, क्योंकि कृषि कार्य के लिए हम अब भी मानसून पर निर्भर हैं. सिंचाई की व्यवस्था हर जगह नहीं. ऐसी आपदाओं के समय सरकार किसानों के कर्ज को माफ कर अपने दायित्व का निर्वाह करती है. लेकिन कर्ज माफी का एक और नायाब तरीका सरकार ने इजाद किया है. जिस वर्ष जिस राज्य में चुनाव होने को रहते हैं, विभिन्न राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किसानों से कर्ज माफी का वायदा करते हैं. जीत के बाद सरकार बनते ही दल विशेष किसानों के कर्ज को माफ कर देता है. किसी राजनीतिक दल का चुनाव से पहले अपने लाभ के लिए इस तरह का वादा करना और सरकार बनने के बाद राजकीय कोष का भट्ठा बैठाना कैसे उचित है, यह समझने की बात है.

उत्तर प्रदेश के चुनाव के समय बीजेपी ने किसानों से कर्ज माफी का वादा किया. जीत कर आई बीजेपी सरकार ने किसानों के कर्ज को माफ भी कर दिया. कृषि की समस्याओं से जूझते अन्य राज्यों के किसानों में भी कर्ज माफी की आशा जगी. बीजेपी शासित मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किसानों ने कर्ज माफी के लिए आंदोलन शुरु कर दिया. उनकी मांगों में कर्ज माफी तो है ही, साथ ही अपने कृषि उत्पाद के उचित मूल्य निर्धारण तथा कृषि उत्पाद को नष्ट होने से बचाने के लिए भंडारण करने की भी मांग की. बिना किसी राजनीतिक पार्टी की मदद के किसानों ने शांतिपूर्ण आंदोलन शुरु किया. धरना, प्रदर्शन आदि के द्वारा अपनी मांग को सरकार तक पहुंचाने की कोशिश की. आठ दिन तक सरकार की तरफ से पहल न होने और सेना पुलिस के द्वारा आंदोलन को समाप्त करने की कोशिश से आंदोलन और भी उग्र हो गया. किसानों ने साग, सब्जी, दूध तथा दूसरे अनाजों को सड़कों पर बहाना और फेंकना शुरु किया. आगजनी तथा तोड़फोड़ की घटनाएं भी होने लगी. अंत में वही हुआ जो हर आंदोलन में होता है. पुलिस की गोली से छह किसान मारे गये.

किसान आंदोलन का दूसरा चेहरा यह है कि सारे राजनीतिक दलों को बैठे बिठाये मुद्दा मिल जाता है. सभी राजनीतिक दलों का यह प्रयास होता है कि आंदोलन में घुसे और राजनीतिक रोटी सेंके. इससे होता यह है कि पूरे आंदोलन का चेहरा ही बदल जाता है. पक्ष तथा विपक्षी राजनीतिक दलों के आरोपों- प्रत्यारोपों के बीच आंदोलन का असली मुद्दा ही गायब हो जाता है.

आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी एक कृषि प्रधान देश में किसानों के सामने इतनी सारी समस्याये ंहैैं जिसकी तरफ सरकार का ध्यान नहीं. किसानों को इसके लिए आंदोलन करना पड़ता है. बावजूद इसके सरकार कभी यह समझने का प्रयास नहीं करती है कि आंदोलन की मूल समस्या क्या है और उसके समाधान का क्या प्रयास हो. खाद, बीज, सिंचाई समय पर उपलब्ध हो. फसल नष्ट होने पर फसल बीमा के जरिये किसान को चिंता मुक्त किया जाये. कर्ज माफी कृषि समस्या का समाधान नहीं. यह तो केवल राजनीतिक स्टंट है जिसके द्वारा राजनीतिक दल अपने वोट को सुरक्षित करते हैं. वास्तव में कृषि संबंधित समस्यायें सरकार के लिए दोयम दर्जे की समस्यायें हैं. कर्ज नहीं चुकाने वाले किसान आत्महत्या करते हंै. ये आत्महत्यायें भी उन राज्यों में ज्यादा हैं जो राज्य आर्थिक रूप से उन्नतिशील माने जाते हैं. जैसे महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब आदि. इन आत्महत्याओं के पीछे सिर्फ प्राकृतिक विपदा ही नहीं है, बल्कि वे व्यावसायिक फसल हैं जिनकों उपजाने के लिए किसान कर्ज लेकर ज्यादा पूंजी लगाता है. ये फसले नष्ट होती हैं तो पूरा का पूरा उपज ही खत्म हो जाता है. ऐसी स्थिति में किसान आत्महत्या कर कर्ज न चुका पाने की ग्लानि से मुक्त हो जाता है. उसके पास उतने पैसे नहीं होते हैं कि विदेश भाग जाये और ऐश करे.

कृषि कर्ज के संबंध में एक और तथ्य ध्यान देने की है. बड़े किसान जिनके पास सैकड़ों एकड़ भूमि है, वे स्वयं खेती नहीं करते हैं. वे बटाई पर जमीन को देते हैं और बिना किसी श्रम के लाभ का हिस्सा लेते हैं. किसानी में एक वर्ग ऐसा है जिसके पास जमीन है ही नहीं. या कोई छोटा टुकड़ा है. ऐसे किसान दूसरों की जमीन पर दिहाड़ी कर खेती का काम करते हैं. उनके सामने कर्ज का कोई प्रश्न ही नहीं. अब बचे मध्यम श्रेणी के किसान जिनके पास अपनी कुछ जमीन है, तो बटाई की भी कुछ जमीन है जिन पर खेती के लिए उन्हें कर्ज लेना पड़ता है. अधिक लाभ कमाने की महत्वाकांक्षा से खेतों में ज्यादा पूंजी लगायी जाती है, व्यावसायिक फसले लगाई जाती हंै और प्रतिकूल परिस्थितियों में ज्यादा नुकसान भी होता है. ऐसे ही किसान आत्महत्या करते हैं. तब यह तथ्य एक बार फिर सामने आ खड़ा होता है कि कृषि समस्या के मूल में भूमि का असमान वितरण भी है. ‘जो जमीन को जोते-बोये, वही जमीन का मालिक होवे’, केवल नारा न हो कर जमीनी हकीकत में कब बदलेगा, इसका इंतजार है.