हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी जून का महीना आ गया. दसवीं तथा बारहवीं कक्षा के रिजल्ट का समय. विद्यार्थियों का सारा भविष्य उसके अंकों पर निर्भर है. जिसके अंक जितने अधिक होंगे, उतने ही अच्छे कालेज में उनका प्रवेश होगा. पढाई खत्म होने के बाद अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा और सुखमय जीवन. अपने बच्चों के लिए माता पिता के सपनों को वास्तविक बनाने का समय भी यही होता है.

यह वार्षिक ड्रामा, अफरातफरी और अंकों का खेल कब से और कैसे शुरु हुआ, इसका अंदाजा भी लोगों को नहीं है. जून का महीना मतलब कहीं अधिक अंक पाने वाले खुशियां मना रहे हों, तो कही फेल हो कर आत्महत्या करने वाले विद्यार्थी भी होते हैं. बारहवीं के बाद उच्च शिक्षा में जाने वाले विद्यार्थी दो तरह के होते हैं. तकनीकि शिक्षा पाने के इच्छुक विद्यार्थी ज्यादातर प्रवेश परीक्षाओं के रिजल्ट पर निर्भर हैं. इसमें सफल होने पर उन्हें अच्छे तकनीकि विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिल जाता है. जो विद्यार्थी अच्छे अंक से पास हो पाते हैं, वे साधारण कालेजों में जाते हैं, जो उनकी उच्च महत्वाकांक्षा को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाता है. अब ऐसे विद्यार्थी जो इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण न हो पाये हों, या फिर सामान्य ढंग से विज्ञान, कला या वाणिज्य संकायों में प्रवेश चाहते हैं, तो उनके लिए बारहवीं के परीक्षाफल महत्वपूर्ण हो जाते हैं. अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश करना हो तो अधिकतम 95-96 फीसदी से लेकर कम से कम 70 फीसदी अंकों का होना जरूरी हो जाता है.

यहां से शुरु होता है अंकों का खेल. भारत में दसवीं तथा बारहवीं की परीक्षाओं का संचालन तीन तरह के बोर्डों के द्वारा होता है. हर वर्ष लाखों बच्चे परीक्षा देते हैं. एक बोर्ड है आइएससी- इंडियन स्कूल सर्टीफिकेट-, दूसरा सीबीएससी - सेंट्रल बोर्ड आॅफ सेकेंडरी एजूकेशन- और फिर भारत के विभिन्न राज्यों के अपने सेकेंड्री बोर्ड. देखा यह गया है कि विगत पांच वर्षों से आइएससी बोर्ड के रिजल्ट 95 फीसदी से घटे नहीं हैं. सीबीएसई का औसत 80 फीसदी रिजल्ट रहा है. राज्य बोर्डों में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओड़ीसा, पंजाब, हरियाणा तथा बिहार को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों के परीक्षा फल 80 से 90 फीसदी रहे हैं. इस प्रकार हर वर्ष परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ रही है, तो अच्छे अंकों से पास करने वालों की संख्या भी बढ रही है.

भारतीय शिक्षा नीति के अनुसार हर बोर्ड के लिए यह जरूरी है कि वे अपना प्रश्नपत्र तैयार करें, परीक्षाओं का संचालन करें और निष्पक्ष उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करवा कर रिजल्ट प्रकाशित करें. यही आकर हमारी शिक्षा नीति का खोखलापन शुरु होता है. बारहवीं के बाद भारत के सभी विद्यार्थियों को एक ही तरह की तकनीकि शिक्षा या गैर तकनीकि शिक्षा ग्रहण करनी है और बारहवीं में प्राप्त अंक उसके आधार बनते हैं. तो फिर क्यों विभिन्न बोर्डों के द्वारा ये परीक्षायें ली जाती हैं जिनका पाठ्यक्रम, पढाई का स्तर, परीक्षा पद्धति, प्रश्नपत्र, जांच और रिजल्ट, सबमें अंतर होता है? इस दृष्टि से विभिन्न बार्डांे के परीक्षार्थियों के अंकों में अंतर क्यों नहीं आयेगा. अंततोगत्वा इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है विद्धार्थियों को. भारत के विभिन्न राज्यों में और केंद्र शासित राज्यों में दो तरह के स्कूल चलते हैं - सरकार द्वारा संचालित स्कूल तथा निजी स्कूल. सरकारी स्कूलों में सरकार की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर चयनित शिक्षक या पैरवी के बल पर, घूस के बल पर चुन कर आये अयोग्य शिक्षकों द्वारा सरकारी स्कूल चलाये जाते हैं. इन स्कूलों में समाज के निम्न आय वर्ग के लोगों के बच्चे पढने जाते हैं, क्योंकि वहां निःशुल्क शिक्षा है. दूसरी ओर निजी स्कूल मोटी फीस लेकर तथाकथित अच्छी शिक्षा देते हैं. इन दोनों तरह के स्कूलों के विद्यार्थियों के पढाई के स्तर और अंकों में अंतर सहज है.

अब रहा बोर्ड परीक्षाओं को संचालित करना और उत्तर पुस्तिकाओं की जांच. परीक्षायें कितने ढंग से ली जाती हैं, इसका ब्योरा समाचार पत्र तथा टीवी चैनल हमें बताते ही हैं. उत्तर पुस्तिकाओं की जांच भी उतनी ही लचर होती है. हिंदी के शिक्षक उर्दू की कौपियां जांचते हैं और समाजशास्त्र के शिक्षक विज्ञान की कौपियों को जांचेंगे. समय पर कौंपियों की जांच हो, लाखों विद्यार्थियों का परीक्षाफल निकाल कर अपनी पीठ ठोंकने के लिए बोर्ड के अधिकारी किसी भी हद तक जा सकते हैं. अपने विषय से इतर विषय की कौपियों को जांचने से इंकार करने वाले शिक्षकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करने तक की धमकी दी जाती है. बिहार बोर्ड ने इस बार 36 फीसदी विद्यार्थियों को सफल घोषित किया है. बड़ी संख्या में विद्यार्थियों को असफल घोषित करना बिहार बोर्ड की गलत नीति है, क्योंकि इसमें विद्यार्थियों की गलती कहीं नहीं है. शिक्षकों की अयोग्यता, स्कूलों में पढाई- लिखाई का अभाव, जो विद्यार्थियों को नकल करने के लिए प्रेरित करता है. बिहार सरकार में अपने शैक्षणिक स्तर को सुधारने के लिए विद्यार्थियों को फेल करती है तो यह उनका अंतिम कदम होना चाहिये. सबसे पहले तो स्कूलों में योग्य शिक्षकों की बहाली हो, पठन-पाठन का स्तर उंचा हो तथा परीक्षा तथा परीक्षाफल निष्पक्ष हो. यही स्थिति कमोबेस उन सारे राज्यों के बोर्डों का है जिनके परीक्षाफलों का प्रतिशत गिरा है. यही कारण है कि कई शिक्षाविद 90 फीसदी या उससे अधिक कट आफ माक्र्स को कालेज में प्रवेश का आधार बनाना गलत मानते हैं, क्योंकि यह विद्यार्थियों की योग्यता का पैमाना नहीं है.

हमारे बोर्ड परीक्षाओं तथा प्रतियोगिता परीक्षाओं में मूल अंतर यह है कि बोर्ड परीक्षा में विद्यार्थी को अपने विषयों में कितना ज्ञान है, इसको आंका जाता है. दूसरी ओर प्रतियोगिता परीक्षाओं में कमजोर विद्यार्थियों को छांट दिया जाता है. ऐसा देखा गया है कि कभी-कभी बोर्ड परीक्षा में बहुत अच्छे अंक प्राप्त करने के बावजूद विद्यार्थी प्रतियोगिता परीक्षा में असफल हो जाते हैं. इसलिए बोर्ड परीक्षाओं और प्रतियोगिता परीक्षाओं के पाठ्यक्रम, प्रश्नपत्र आदि में तालमेल होना चाहिये, नहीं तो कोचिंग सेंटरों का पनपना और दोहरी पढाई के दबाव में बच्चों की निराशा और आत्महत्या की घटनाएं रोकी नहीं जा सकती.

अब हमारे बोर्डों के लिए एक सुविधाजनक स्थिति मौर्डरेशन की, उदारतावादी नीति की है. अक्सर हमारे प्रश्न पत्रों में ऐसे प्रश्न आ जाते हैं जो हमारे सिलेबसों में नहीं होते या कठिन होते हैं. इन स्थितियों में बोर्डों को यह निर्देश दिया जाता है कि बच्चों के कुल अंकों को बढ़ा कर परीक्षा फल दिया जाये. इस मार्डरेशन के नाम पर कई बोर्ड 16 अंको तक बढा देते हैं, जिससे उनके विद्यार्थियों के अंको का प्रतिशत बढ जाता है. अब प्रश्न यह है कि प्रश्न पत्र सावधानी से क्यों नहीं बनते. दो तीन स्तरों पर उनकी जांच क्यों नहीं होती. इस मौर्डरेशन का खेल केवल अंकों का प्रतिशत बढाना तो नहीं हैं?

इतने स्तरों पर इतनी सारी खामियों के साथ हम एक लचर शिक्षा व्यवस्था को चला कर लाखों विद्यार्थियों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, तो यह हमारे लिए जघन्य अपराध है. इसलिए हमेशा से यह मांग उठती रही है कि एक समान शिक्षा नीति, पाठ्यक्रम और एक बोर्ड के अधीन पूरे देश की शैक्षणिक संस्थाये हों. यह भी जरूरी है कि शिक्षक संस्थाओं में अंतर न हो. सभी आय वर्ग के बच्चों के लिए एक ही तरह के विद्यालय हों जिसमें स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था हो, जैसा कि फिनलैंड, जर्मली और जापान में है. यहां तक कि अमेरिका के एक राज्य कैलिफोर्निया में भी इस तरह की व्यवस्था.

और अंत में शिक्षा और ज्ञान में सामंजस्य हो. शिक्षा केवल अंक प्राप्त करना ही न हो. आधुनिक युग में सब चीजें ‘इंस्टैंट’ हो गई है तो शिक्षा भी ‘इंस्टैंट’ बन कर न रह जाये. शिक्षा प्रयोग की चीज नहीं, ज्ञान का स्रोत भी है.