भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए एक दलित रामनाथ कोविंद को अपना प्रत्याशी बनाया है. विपक्षी दलों से बातचीत की बात तो हुई पर, सत्ता पक्ष ने किसी नाम का सुझाव देकर सहमति बनाने का प्रयास किये बिना अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया. इसे ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा गया, जिससे विपक्ष हतप्रभ रह गया. ‘दलित’ प्रत्याशी होने से विरोधी दलों में भी फूट पड़ गयी. कहा जा रहा है कि इस तरह भाजपा ने अपना दलित प्रेम दिखाया है. कुछ लोगों का मानना है कि दलितों का वोट बटोरने के लिए किया जा रहा है. खास कर अगले वर्ष गुजरात में होनेवाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से. इस संदर्भ में एक बात यह भी सामने आयी है कि भाजपा प्रत्याशी रामनाथ कोविंद जिस कोली समुदाय से आते हैं, वह गुजरात में एक बडी आबादी या वोट बैंक है. वहां वह अनुसूचित जाति नहीं, ओबीसी की श्रेणी में है, जबकि यूपी में दलित। इस तरह मोदी-शाह की जोडी ने एक साथ दो निशाने साधे हैं. एक तो देश के स्तर पर एक दलित को राष्ट्रपति पद पर आसीन कराने का श्रेय, दूसरी ओर गुजरात के कोली समुदाय को साथ लाने का उपक्रम! और 2019 में होनेवाले संसदीय चुनाव के मद्देनजर ‘अपना’ राष्ट्रपति होने के अपने फायदे तो हैं ही, जो शायद विपक्षी दलों की सहमति से सर्वसम्मत उम्मीदवार ढूँढने से नहीं मिलता.

किंतु क्या राष्ट्रपति पद के चुनाव को इस तरह जातीय समीकरण साधने के लिए इस्तेमाल करना सही है? इसके अलावा क्या कोविंद को प्रत्याशी बना देने से ही भाजपा का दलित प्रेम सच साबित हो जाता है। अभी अभी सहारनपुर में दलितों के साथ वहां के ‘ठाकुरों’ के व्यवहार; उस टकराव में पुलिस की पक्षपाती भूमिका को भूला जा सकता है? क्या वहां के दलितों को न्याय मिल गया? भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर ‘चमार’ की गिरफ्तारी के बाद दलितों ने एक बार दिल्ली के जंतर मंतर पर जो आक्रोशपूर्ण प्रदर्शन किया, उससे तो यही संकेत मिलता है कि उप्र के दलित लंबी लडाई के लिए तैयार हो रहे हैं? तो क्या श्री कोविंद की उम्मीदवारी से यूपी के दलितों का गुस्सा थम जायेगा? राजनीति में इस तरह के दांव पेंच कोई नयी बात नहीं, फिर भी देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद ऐसे तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ साधन का जरिया बन जाये, यह कोई अच्छी स्थिति तो नहीं ही है.

और भाजपा और इसके सहयोगी संगठनों के दलित प्रेम का नजारा तो लगातार दिखता रहा है. हाल के वर्षों की सबसे लोमहर्षक घटना हरियाणा के झझ्झर में हुई. वैसे हरियाणा में दलित उत्पीडन कोई नयी बात नहीं है. लेकिन भाजपा सरकार बनाने के बाद से इसमें और तेजी आयी है. जबसे बीफ और गो-रक्षा के मुद्दे ने जोर पकड़ा है, मुस्लिमों के साथ ही दलितों पर भी कथित गो-रक्षकों के हमले बढ़ गये हैं. वर्ष 2015 में झझ्झर में पांच दलितों को जिन्दा जला दिया गया. स्थानीय पुलिस की भूमिका भी पक्षपातपूर्ण थी. शायद यह सरकार और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के प्रभाव का भी नतीजा रहा हो. राज्य के एक मंत्री ने तो दलितों को जलाये जाने की घटना पर यहां तक कह दिया था कि गाय के सामने किसी आदमी की जान की कोई कीमत नहीं है. उस हादसे में भाजपा से सम्बद्ध विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की लिप्तता की बात भी सामने आई. बाद में जन दबाव में मामले की उच्च स्तरीय जांच में पुलिस की लापरवाही की बात पुष्ट हुई और पांच पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई भी हुई. लेकिन असली हत्यारों का कुछ नहीं बिगड़ा. ऐसे में समझा जा सकता है कि इन लोगों के दलित प्रेम की सच्चाई क्या है!

फिर गुजरात और महाराष्ट्र में भी गो-रक्षा के नाम पर ही दलितों की सरेआम पिटाई की कई घटनाएं हुईं. उनके खिलाफ दलितों में आक्रोश भड़कने लगा. दलितों ने मृत पशुओं के चमड़े उतरने आदि कामों का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी. अंततः प्रधानमंत्री श्री मोदी की चुप्पी टूटी और उनका मंच से दिया गया वह नाटकीयभाषण सामने आया, जिसमें उन्होंने कथित गो-रक्षकों में से अधिकतर के अपराधी होने की बात कहते हुए भावुक अंदाज ने कहा कि ‘..यदि आपको मारना ही है, तो किसी दलित को मरने से पहले मुझे गोली मार दें!’

उधर कांग्रेस भी दलितों का एक प्रतीक की तरह इस्तेमाल करती रही है. कांग्रेस की अगुआई में भाजपा के इस दलित कार्ड के जवाब में विपक्षी दलों ने भी मीरा कुमार को प्रत्याशी बना कर यही जताया है कि वे भी ऐसे महत्वपूर्ण चुनाव में जाति से परे नहीं देख सकते. ऐसा नहीं है कि मीरा कुमार किसी भी तरह कमतर हैं, बल्कि कई मायनों में बेहतर ही हैं. फिर भी उनको उम्मीदवार बनाने के पीछे उनकी शेष खूबियों के बजाय उनका दलित होना मूल कारण है, यह तो तय है. हमारी समझ से और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से किसी का जन्मना दलित या किसी भी जाति का होना, न तो कोई विशेष गुण हो सकता है, न इसे अवगुण माना जाना चाहिए. लेकिन आज की भारतीय राजनीति का सच यही है कि हर कोई दूसरे पर तो जाति का कार्ड खेलने का आरोप लगाता है, लेकिन चुनाव के समय खुद वही हथकंडे अपनाता है. इस मामले में भाजपा के आचरण में, तुलना में, ज्यादा ही दोहरापन नजर आता है. यूपीए खेमे के अनेक दल तो घोषित या बदनाम जातिवादी हैं, जबकि भाजपा खुद को इस ‘क्षुद्रता’ से परे होने का दावा करती है. ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भी लगाती है. पर व्यवहार में वह भी वह सब करती है, जिसके लिए दूसरों की आलोचना करती है.

जो भी हो, इतना कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद (हालांकि व्यवहार में यह पद एक अलंकरण का पद ही है, क्योंकि भारतीय संसदीय प्रणाली में वास्तविक सत्ता तो सरकार,यानी प्रधानमंत्री के पास ही होती है) के चुनाव को दलित बनाम दलित का रूप देकर पक्ष और विपक्ष ने इस पद की गरिमा का क्षरण ही किया है.