मुख्यमंत्री आवास से एक किमी दूरी की इन दोनों तस्वीरों को गौर से देखिये. दोनों तस्वीरे बरसात के इन्हीं शुरुआती दिनों की है. तस्वीरें लेने का स्थान एक ही है. यानि, एक छत के एक ही कोण से ली गई तस्वीरें. बस, काल का फर्क है. पहली तस्वीर करीबन दस वर्ष पुरानी है. दूसरी आज की. थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो दोनों में समेटी गई धरती, आसमान, पेड़- पौधे, दूर फैली चट्टानें एक जैसी है. लेकिन इन दस वर्षों में परिवेश बिल्कुल बदल चुका है. एक में दूर तक फैली है हरियाली, खेत, दूसरे में कंकरीट का बनता जंगल, उभर रही एक नई आवासीय कालोनी. आने वाले कुछ वर्षों में बचे खुचे खेत भी शायद खत्म हो जायें.

अब आप कहेंगे, इसमें क्या खास बात है? शहर इसी तरह बनते हैं. गांव, खेत-खलिहान को लीलते हुए. अधिकतर शहरों का विकास इसी तरह हुआ है. फिर इन तस्वीरों की अहमियत क्या है?

तो, खास बात यह है कि यह तमाम इलाका, दूर-दूर तक फैले खेत, खलिहान, पेड़-पौधे, कुछ दूर से बहती एक पतली नदी, जगह-जगह बिखरी चट्टानें, संविधान की पांचवी सूची से आच्छादित आदिवासी इलाका है, जहां सदियों से उड़ाव जाति का बसेरा है. इस आदिवासी भूमि की खरीद फरोख्त नहीं हो सकती. कोई गैर आदिवासी तो इन्हें खरीद ही नहीं सकता. लेकिन यह हो रहा है. जमीन बिक रही है, हर दिन एक नये घर की नींव पड़ रही है. तरीका यह कि सबसे पहले बिकने वाली जमीन किसी साल अचानक परती रह जाती है. उसे जोता नहीं जाता. फिर उसमें चाहरदिवारी उठती है. ऐसबेस्टस के एकाध कमरे बनते हैं. फिर दो कमरे, फिर तीन और चार. पहले खेतों की मेड़ पर चल कर उन घरों तक पहुंचा जाता है. फिर मेड़ चैड़ा होता जाता है. एक संकरा रास्ता बनता है. फिर वह कच्चे पक्के सड़क में बदल जाता है.

चाहरदिवारी के भीतर भी बदलाव होता है. एस्बेस्टस के छत वाले घर की जगह सीमेंट की एक इमारत खड़ी हो जाती है. और इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ इन घरों में गैर आदिवासी परिवारों का बसेरा होता है. आदिवासी गांव धीरे-धीरे सिमटते जाते हैं. सिकुड़ते जाते हैं. खुले गांव बस्तियों में बदलने लगते हैं. और इन नई बन रही कालोनियों में, अपने ही गांव के खेत खलिहान पर खड़ी हो रही इमारतों में उन बस्तियों के लोग मजदूरी करते, सीमेंट- गाड़ा माथे पर ढोते, बांस-बल्ली लगा कर दीवारों पर पलस्तर लगाते दिखते हैं.

उन कालोनियों के आस पास शानदार निजी स्कूल खुल जाते हैं, लेकिन उन स्कूलों में उन बस्तियों के बच्चे नहीं पढ सकते. उनके बगल में निजी अस्पताल बनते हैं, लेकिन वे उसमें इलाज नहीं करा सकते. उनके पास पैसा नहीं. शहर के कुछ माफिया बिल्डरों के एजंट बन गये अपनी ही जमात के कुछ दलालों की चालों का शिकार हो वे जिस पैसे के लोभ में वे फंसते हैं, वह पैसा कपूर की तरह डड़ जाता है या दूसरे शब्दों में कहें तो उपभोक्ता बाजार उनसे छीन लेता है. उनकी हालत पहले से बद्तर हो जाती है.