खेती बारी की लागत और उत्पादन के वाजिब मूल्य न मिलने के बीच एक अर्थव्यवस्था है जिसे पूर्व के क्लासिकल अर्थशास्त्री इन्फौर्मल एकॉनमी कहते थे, अब इसे अलाइड इंडस्ट्री या वैल्यू एडिशन कहा जाता है. जैसे पशुपालन,मत्स्य पालन और घास से बाँस तक पर टिका करोड़ों का उद्योग. इसकी व्यापकता और इसका अनजानापन हीं वो असली ताकत थी, जो खेती पर पड़ने वाले मज़दूरी के लागत को सम्भाले रखती थी और अंत में खेती चरमरा कर बिखर जाने से बच जाती थी.

भूमंडलीकरण के बाद अपने देश में आयात की जो बाढ़ आई उसने इस इँफौर्मल एकॉनोमी को किस तरह भस्म किया इसका बेहतरीन उदाहरण है अगरबती उद्योग.

आइये, इसी पर बात करते हैं आज.

अगर की लकड़ी जब गुफाओं में किसीदिन जलाई गई होगी तो उसकी तेल और सुगंध की वजह से अगरबत्ती की समझ आई होगी और फिर अनवरत विकास और सभ्यता की तमाम ऊँच नीच को पार करते आज ये बाजार करीब 4 हजार करोड़ के सालाना धमक पर अपनी आगाज दे रहा है. अभी कुछ दिनों पहले तक ये आगाज बड़ी ही सुखद थी, लेकिन कहते हैं न, बकरे की माँ कबतक खैर मनाये, तो हो गई कुर्बानी और मन गया ईद.

यह उद्योग असल में लेबर इन्टेन्सिव यानी मानवीय मज़दूरी की प्रचुरता के एक खास गुण से लबरेज़ थी. इसलिये इस उद्योग पर भूमंडलीकरण की मार उन करोडो मजदूरों की रोज़ी रोटी पर भारी पड़ा और यह उद्योग भी अंततः टेक्नॉलॉजी और फैलेरीआई आयात की बली चढ़ गया- बाकी विकास तो विकास ही है.

10 रुपया की अगरबत्ती के पैकेट में 10-12 स्टिक है, इसमें 3 रुपया बाजारी खर्च/मुनाफा (distribution) है,3 रुपया संसाधन की लागत है और 4 रुपया एकदम शुध्द मज़दूरी है जो कमसे कम 8 से 10 मज़दूरी के विभिन्न चरणों मे बँट जाती है.

चुकी 4000 करोड़ का यह ट्रेड कंपनीज़ द्वारा बेचे गये प्राइस पर अनुमानित है जिसे ‘प्राइस टू डिस्ट्रिब्यूटर’ कहते हैं , इसलिय mrp के हिँसाब से यह ट्रेड करीब 5500 करोड़ का होता है. और इसमें से मज़दूरी का हिस्सा नहीँ भी तो 2200 करोड़ का होता है. सालाना.

मतलब यह ट्रेड सिर्फ मज़दूरी के रुप में 2200 करोड़ रुपया का वितरण 3 से 4 लाख मजदूरों के बीच करते आ रहा था.

इसी 2200 करोड़ की मज़दूरी पर आक्रमण हुआ है. और इस आक्रमण को अंजाम दिया है देश में बढ़ रहे हिमालयी आयात और सुरसामुखी टेक्नॉलॉजी ने.

देश मे चाहे जितनी भी निरक्षरता है, टीवी पर जब वह मजदूर सुनता होगा मोदीजी को कहते हुए कि टेक्नॉलॉजी है तो समाधान है, तो कैसा लगता होगा उसे.. वो समझता है कि मशीन और आयात ने उसका रोजगार छीना है.

5000 रुपया प्रति माह के एक मजदूर की कल्पना पर इस 2200 करोड़ के मज़दूरी को अनुमान में लिया जाए तो लगभग 3 लाख 67 हजार मजदूरों से 5000 रुपया प्रति माह का 365 दिनो का रोजगार छीनने वाली ये आयात और टेक्नॉलॉजी हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर एक राक्षसी प्रहार से कम नहीँ है.

आइये इस आयात और टेक्नॉलॉजी के प्रहार को बारी बारी से देखते हैं.

देश के जिन भागों में बाँस होता हैं, वहाँ के गाँवों की गरीब औरतें अपने घर का सारा काम 11-12 बजे तक निपटा कर गाँवों के महाजन से 40-50 रुपया का एक बाँस ले आती है और हर रोज़ 4-5 घंटे कामकर वह हफ्ते भर में सीँक का बंडल बनाकर उसी महाजन को 560/ रुपया में बेच आती है. घर के तमाम खर्चों और पति के खैनी बीडी से लेकर पता नहीँ क्या क्या के बाद औरत के हाँथ में कुछ पैसे का बचना एक अमृत से कम नहीं होता है. तो, एक घरेलू औरत के द्वारा स्वयं कमाये हुए ऐसी मज़दूरी का महत्व कोई समझ सकता है.

अब यही सीँक, मशीन का बना हुआ चीन और वियतनाम से आ रहा है जिसने देश के बाँस वाले इलाकों जैसे झारखंड, असम, त्रिपुरा और अरुणाचल की इन्फौर्मल एकॉनमी में हाहाकार मचा दिया है. और हाँ ये शुध्द मज़दूरी थी.

भूमंडलीकरण के सबसे मीठे फल का आनंद लेने वाले ट्रेडर, इंपोर्टेर, दलाल, और सरकार को क्या मतलब है की लाखों गरीब गुरबे साधनहीन मजदूरों की रोज़ीरोटी पर इस बेतुके आयात की मार का क्या असर है? उसे तो 1 रुपया का गेंहु और 2 रुपया का चावल देने का शगूफा मिल गया है और यही उसकी अंतिम उपलब्धि है.

अगर आप इस बात से सहमत हैं की एकॉनमी असल में एक माईक्रो मैनेजमैंट है तो ज़रा सोंच कर देखिये की सरकार की मुद्रा योजना किस काम की है जब अपने ही बाजार को ग्लोबल बाजार के हवाले छोड़ देने की नीति पर देश निर्भर हो रहा हैं.

कितनी छोटी सी बात है की हम सीँक का आयत नहीं करेगें जो हमारे 3-4 लाख ग्रामीण रोजगार मरने से बच सकते हैं.

आप सरकार की ऐसी कोई योजना बता दीजिये जो इतनी आसानी से बिना आवण्टन अनुदान के 3 लाख रोजगार देने की ताकत रखता हो?

अब आइये टेक्नॉलॉजी पर.

ज्यादातर मुस्लिम बाहुल्य गाँवों या शहर के सटे वाले इलाकों में महाजनी प्रवृति के व्यापारी अगरबत्ती में प्रयोग होनेवाली सीँक के बंडल और उसके चारकोल— मसाले का तैयार स्टॉक रखते थे, जहाँ से गावों की औरते ये ले जाती थीं और हाँथ से अपने घरों में हफ्ते भर में अगरबत्ती बेलकर, सूखाकर, बंडल में उसी महाजन को दे आतीं थी. 4-5 घंटे प्रतिदिन का घर बैठे काम और हफ्ते भर की मज़दूरी 700-800 रुपये.

देश भर में करीब 3 लाख हाँथ की मज़दूरी का व्यवसाय जहाँ पूँजी की अहमियत न के बराबर.

इसपर आफत आई जब एक मशीन यह सारा काम ऑटोमेटिक मोड में करने को बाजार में आ गई.अब एक आदमी दिनभर में लाखो अगरबत्ती बना देता है, ड्रायर सुखा देता है और परफ्यूमिंग, पैकिंग पुन: हाँथ से.

मतलब हाथ का 70% काम समाप्त. फिर वही पूँजी, टेक्नॉलॉजी, ब्रांडिंग, विज्ञापन और बाजार का हाइटेक फॉर्मेट.

अब सवाल है कि क्या मिल गया इस मशीन महोदय के आगमन से, जिसने 3 लाख हाथ का रोजगार छीन लिया. ये मशीन और बाजार को बाजार के हवाले छोड़ देने की नीतियां किसके प्रति उत्तरदायी है? आप कहेगे पूँजी और टेक्नॉलॉजी की जोड़ी से पार पाना मुश्किल है. नहीँ, ऐसा नहीँ है. नीतियां सबको आँवक में रख सकती हैं बशर्ते इच्छाशक्ति हो, ग्रासरूट की समझ हो और नीयत साफ हो.

नीतियों को उत्तरदायी मानने की समझ और इच्छाशक्ति का आभाव अगर 5-6 लाख लोगों की मज़दूरी छीनकर 100-50 लोगों को मालदार बना रहा है तो समझ लीजिये की देशहित में कुछ भी नहीं हो रहा है.

इसे आप rationalization समझने की भूल भी न करें. जब अर्थव्यवस्था की अंतिम मंजिल हर हाथ को काम है तो rationalization रोजगार की अनदेखी करके कैसे होगा ? फिर सबका साथ और सबका विकास कैसे ?

भारत जैसे ऊबड़ खाबड़ अर्थव्यवस्था में पहला rationalization तो सरकारी खर्च की कटौती से शुरू हो. क्या ज़रूरी है सरकारी नवरत्न कम्पनी के स्वीपर की तनख्वाह 45000/ रुपया प्रति माह.

45/ रुपया के लागत की बनियान 130/ रुपया के mrp पर जब बिकेगा, तो चलने वाली दुकान के पास कालाधन और नहीं चलने वाली दुकान का मालिक दिन भर में 4-5 बनियान भी बेच ले तो गृहस्ती चल जाये, ऐसी स्थिति क्यों?

यहीं पर rationalization की ज़रूरत है. वो दुकान बंद हो जो दिन भर में सिर्फ 4-5 बनियान बेचता हो और वो कंपनी जो 45/ रुपया की लागत के बनियान का mrp 130/ रुपया रखा है,वो नीचे उतरे.

जब इस rationalization के काम को भी बाजार के हवाले हीं छोडा जायेगा तो ट्रेड तो गोलबंद होगा हीं. rationlization नीतियां करें या इसे बाजार की प्रतियोगिता के भरोसे छोड़ा जाये ? क्योंकि मामला मुनाफे का है. सत्ता की अकर्मण्यता की यह वीभत्स स्थिति -

आप माने या न माने corporations run the nations तक आ गई है.

एक बात पर सोंचना ज़रूरी है कि बाजार बाजार का या बाजार नीतियों का ?

बाजार उस टेक्नॉलॉजी, उस पूँजी और उस आयात का पक्षधर हो जहाँ विशाल जनसँख्या की मज़दूरी न मारी जाये, इसमे क्या दिक्कत है ?

और अंत में कलिम अजीज की एक नज़्म की दो लाईने :

मेरे हीं लहू पर गुजर औकात करो हो

मुझसे ही अमीरों की तरहा बात करो हो,

न दामन पे कोई छींट न ख़ंज़र पे कोई दाग

तू कत्ल करो हो या कारामात करो हो.