मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सार्वजनिक मंच से ऐलान किया है कि नेतरहाट फायरिंग रेंज की अधिसूचना रद्द कर दी गई है. केंद्रीय जन संघर्ष ने इस घोषणा का स्वागत किया है, लेकिन सरकार से यह मांग की है कि रद्द होने की यह अधिसूचना झारखंड सरकार अपने गजट में प्रकाशित करें, क्योंकि इसके पूर्व भी कांग्रेसी नेताओं और सांसदों ने फिल्ड फायरिंग रेंज की अधिसूचना रद्द करने की जानकारी सार्वजनिक मंचों से दी थी, लेकिन 26 जनवरी 2004 को सेना प्रभावित क्षेत्र में फायरिंग अभ्यास के लिए पहुंच गई थी और प्रबल विरोध के बाद ही वहां से वापस हुई थी. इसलिए आंदोलन के नेता जेरोम जेराल्ड कुजूर कहते हैं - ‘हमारा आंदोलन तो अधिसूचना रद्द होने की विधिवत सूचना जारी होने के बाद ही खत्म होगा ’.

वैसे, राजनेताओं की बातों पर एकबारगी यकीन करना तो मुश्किल है, लेकिन यदि सरकार ने ऐसा निर्णय लिया है और निकट भविष्य में यह अधिसूचना झारखंड सरकार अपने गजट में प्रकाशित करती है, तो यह शांतिमय आंदोलन की एक भारी जीत होगी. गौर कीजिये कि जन आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकारें सेना का इस्तेमाल करती रही हैं, लेकिन जो लड़ाई सेना के खिलाफ ही हो, तो वह कितनी भीषण और कितने हौसले की मांग करती होगी? लेकिन आदिवासी जनता की चट्टानी एकता, सतत संघर्ष और व्यापक जनभागिदारी से यह संभव हुआ है.

ज्ञातव्य है कि आजादी के कुछ वर्षों बाद ही 1956 में सरकार ने झारखंड की मनोरम वादी नेतरहाट, जो ‘नेचर हर्ट’ का शायद अपभ्रंष है, क्षेत्र को सेना के गोली, गोला- बारुद चालन-अभ्यास के लिए चुना और सैकड़ों गांवों को अधिसूचित कर दिया गया. लगभग दो दशकों तक सेना इस इलाके में अपना अभ्यास करती रही और पूरा इलाका उनकी गोलियों की अवाजा और विस्फोटों से दहलता रहा. सेना की आमद-रफ्त, बख्तरबंद गाड़ियों, जीपों का अनवरत आना जाना चलता रहा. इन सबके दौरान जो अपूरणीय दुख और तकलीफंे जनता ने झेली उसका कोई हिसाब नहीं. सैनिकों के अभ्यास के क्रम में कम से कम 30 लोगों की मृत्यु हुई, कई लोग अपंग हुए, दर्जनों मवेशी मारे गये, कई मकान धमाके में उड़ गये, महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार की कोशिशों की अनकानेक घटनाएं और कम से कम दो महिलायें सामूहिक बलात्कार की शिकार हो मर ही गई.

फिल्ड फायरिंग रेंज की यह अधिसूचना 1992 में समाप्त होने वाली थी. क्षेत्र की जनता को उम्मीद थी की उनकी गुहार से द्रवित हो सरकार अब इस इलाके में अधिसूचना के समय का विस्तार नहीं करेगी. लेकिन बिहार सरकार ने एक नई अधिसूचना जारी कर इसका विस्तार 12 मई 1992 से लेकर 11 मई 2002 तक कर दिया. नई अधसूचना में न सिर्फ अवधि का बिस्तार था, बल्कि नये इलाकों को भी शामिल कर लिया गया था. कुल 245 गांवों को अधिसूचित क्षेत्र में शामिल कर लिया गया था. हजारों हजार लोगों के विस्थापन का खतरा पैदा हो गया था. नई अधिसूचना के भीतर का क्षेत्र 1471 वर्ग किमी है जिसके भीतर 188 वर्ग किमी संघात क्षेत्र है. इसके अलावा 9 वर्ग किमी क्षेत्र में सैनिक शिविर आदि बनने थे.

उस दौरान 23वीं आर्टिलरी ब्रिगेड के ब्रिगेडियर आईजे कुमार ने एक प्रेस कंफ्रेंस किया था और उसके आधार पर विभिन्न अखबारों ने 10 अक्तूबर 1993 को जो समाचार छापा था, उसमें कहा गया था कि नेतरहाट एशिया का दूसरा सबसे बड़ा सेना मुख्यालय होगा. इसमें तकरीबन आठ लाख सैनिक बसाये जायेंगे. यहां भारी गोलंदाज फौजी ट्रेनिंग की आवश्यकता होगी जिसके लिए तीन लाख भूमि का अधिग्रहण होगा.

आश्चर्य होता है कि आबादी से भरे नेतरहाट पर्वतीय व वन क्षेत्र में इस तरह के कार्य विशेष के लिए पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने मंजूरी कैसे दे दी. आश्चर्य तो सैन्य अधिकारियों को भी हुआ, क्योंकि उन्होंने कम आबादी वाले क्षेत्र में इस कार्य विशेष के लिए केवल 188 वर्ग किमी की मांग की थी और सरकार से उनकी मांग से छह गुणा बड़ा क्षेत्र उन्हें मुहैया कर दिया था.

शायद इसलिए कि बिहार सरकार को झारखंड से कोई प्रेम नहीं था. शायद इसलिए कि समाज का प्रभुवर्ग आदिवासियों को कीड़े मकोड़े से अधिक नहीं समझता.

और सब्र का बांध टूट गया.

एक ऐतिहासिक आंदोलन की शुरुआत हुई. नेतरहाट क्षेत्र से लेकर राजधानी रांची तक के छात्र संगठनों, सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवियों ने मिल कर उस आंदोलन का नेतृत्व किया. एक प्रमुख घटना थी 21 दिसंबर 1993 को छात्र संघों के प्रतिनिधियों द्वारा छोटानागपुर के कमिश्नर के माध्यम से भारत के राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया जाना. उसके बाद तो नारों से पूरा इलाका गूंज उठा - ‘जान देंगे, जमीन नहीं देंगे’, ‘पूर्वजों की जमीन हम लूटने नहीं देंगे’, ‘मानव अधिकारों का हनन बंद करो’, ‘नेतरहाट फिल्ड फायरिंग प्रोजेक्ट रद्द करो..’

प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, जनजातीय आयोग सहित न जाने कहां कहां जन प्रदर्शन के साथ ज्ञापन. लेकिन साथ ही सीधा संघर्ष भी. आंदोलनकारियों की समझ बनी कि केवल पाईलट प्रोजेक्ट रद्द करने की मांग काफी नहीं, गोली बारूद चालन का जो सैन्य अभ्यास जारी है, उसे भी रोकना होगा. उस प्रवेश द्वार को ही बंद करना होगा जिससे हो कर सेना इलाके में प्रवेश करती है. पेड़ गिरा कर नहीं, दीवार खड़ी कर नहीं, स्त्री, पुरुष, नन्हें, मुन्नों और बूढे-बजुर्गों के हौसलों की चट्टानी दीवार से. 19 से 25 मार्च 93 का कालखंड. टुटवापानी-जोकीपोखर का वह प्रवेश स्थल. देवताओं की तरह आकाश छूते साल वृक्षों की छाया में जुटे हजारों-हजार लोग. औरत, मर्द बच्चे, हर दिशाओं से माथे पर डेगची में रशद लकड़ी लेकर आते. रोमांचित करने वाला मंजर. सात दिनों तक उस स्थल पर दिन-रात जमा रहे आंदोलनकारी और सेना हार गई.

उसके बाद से हर वर्ष उस स्थान पर 22 और 23 मार्च को आंदोलनकारी जमा होते हैं. अलग झारखंड राज्य के गठन के बाद झारखंड सरकार से यह उम्मीद की गई थी कि बिहार सरकार की उस अधिसूचना को वह रद्द करेगी. अब जाकर जन आंदोलन के दबाव में सरकार ने इस पायलट प्रोजेक्ट को रद्द करने का शायद फैसला लिया है.

(इस आलेख के साथ हम आपको सन् 93 की उस ऐतिहासिक धरने की तस्वीर भी दे रहे हैं.

आलेख को तैयार करने में आंदोलन के नेता जेरोम जेराल्ड कुजूर की पुस्तक ‘जान देंगे, जमीन नहीं’ से मदद ली गई है.)