यह सच है कि कुछ ज़रूरतें बनाई भी जाती हैं, जैसे एक वर्ग को लगने लगा है कि वो बिना एसी बिना आरओ के जिंदा नहीं रह सकता है, कि उसके बच्चे बिना पेडियाश्योर के बढ़ेंगे ही नहीं. लेकिन कुछ मूलभूत ज़रूरतों के साथ ऐसा नहीं है, साफ सुथरा बसेरा, साफ खाना, पीने का साफ पानी, साफ शौचालय, ये सब इंसान के मानवीय गरिमा के साथ, और स्वस्थ जीवन जीने के लिए ज़रूरी है. लड़कियों के लिए साफ सुथरे पीरियड्स भी ऐसी ही एक ज़रूरत है.

अभी अभी लागू हुए जीएसटी सिस्टम में सैनीटरी नैपकिन्स को 12 परसेंट के टैक्स स्लैब में रखा गया है जिसका व्यापक विरोध देश भर के महिला संगठनों द्वारा किया जा रहा है. जीएसटी में टैक्स की कई श्रेणियां हैं और विभिन्न सामग्रियों और उत्पादों को अलग अलग श्रेणियों में रखा गया है. इसका आधार एक तो जो समझ में आता है कि ज़रूरी चीजों पर कम और लग्ज़री चीजों पर अधिक टैक्स लगाया गया है. हांलाकि सैनिटरी नैपकिन्स को 0 या 5 परसेंट की जगह 12 परसेंट के स्लैब में रखने के पीछे सरकार के कुछ तर्क ज़रूर होंगे, लेकिन सीधे सीधे देखा जाए तो यह महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की उदासीनता दर्शाता है.

आश्चर्यजनक रूप से पिछले दिनों सैनिटरी नैपकिन्स को स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से घातक बताते भी लेख और व्हाट्सएप्प मैसेजेज़ काफी देखने को मिले. ऐसे ही एक मैसेज में पढ़ा कि शायद नेपाल में कितनी लड़कियां कैंसर से मर गयीं सैनिटरी नैपकिन्स के इस्तेमाल के कारण. खबर की सत्यता नहीं जांच पायी, मगर यह व्हाट्सएप्प पर घूमते कई सारे डरावने मैसेज जैसा ही लगा. इसके अलावा एक लेख इसपर पढ़ा कि क्यों भारत में सैनिटरी नैपकिन रेवोलुशन की ज़रूरत नहीं है, कि कैसे विदेशों में भी डिस्पोजेबल पैड्स की जगह दोबारा इतेमाल किये जा सकने वाले कॉटन पैड्स की बात हो रही है, रेड टेंट्स की बात हो रही है, कि दुनिया भारतीय परंपराओं को अपना रही है और हमारे पास अपनी रद्दी चीजें ठेल रही है.

सच है कि सभी डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन्स, और खासकर जेल और परफ्यूम वाले अल्ट्रा पैड्स में सिंथेटिक चीजें होती हैं जो उन्हें स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से हानिकर बनाती हैं. मगर यही अकेली चीज़ नहीं है जो स्वास्थ्य या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हो, हमारे रोज़ के जीवन में प्लास्टिक और अन्य ऐसी चीजें बहुतायत में शामिल हैं जो नुकसानदेह हैं, आप घर का सामान खरीद कर लाइये और देखिए कि कुल कितना प्लास्टिक एक दिन में आपके घर से निकलता है. कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसके बहुत सारे कारण हैं और आधुनिक जीवनशैली की कई चीजें इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. इसीलिए जब आप यह पढ़ेंगे कि इन डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन्स से कैंसर भी हो सकता है तो डर लगना लाज़िमी है. मगर दुनिया भर में, और भारत में भी, महिलाओं में कैंसर के जो सबसे ज़्यादा मामले हैं वो ब्रैस्ट और सर्वाइकल कैंसर के हैं, इन दोनों का ही कारण सैनिटरी नैपकिन्स नहीं हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि साफ और कोमल सूती कपड़े हर हाल में स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से बेहतर विकल्प हैं. मगर सोचने की बात है कि कितनी लड़कियों और महिलाओं को साफ सूती कपड़े मिल पाते हैं. मेरे स्कूल में मेरी एक क्लेसमेट थी, वो भाई की फट गई जीन्स का उतना मोटा और खुरदुरा कपड़ा काट कर लेती थी, मां को नहीं बताती थी कि तरह तरह की रोक टोक लगेगी. अधिकतर लड़कियां इसी तरह चीथड़ों से काम चलाती हैं. और हां, जहां लड़कियों के अंतःवस्त्र तक छुपा कर सुखाए जाते हों, वहां इन कपड़ों को धोने और खुली धूप में सुखाने की बात भी सोचना बेकार है. और कितने लोगों के पास धोने के लिए पानी ही है.

साफ सुथरे कपड़ों के अभाव में लड़कियां सदियों से माहवारी के दौरान कितनी अस्वास्थ्यकर चीजें इस्तेमाल कर रही हैं, और यह सबकुछ उनके स्वास्थ्य को कितना गंभीर नुकसान पहुंचाता है, इसे देखते हुए डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन्स एक वरदान साबित हुए हैं. अगर संभव हो तो निम्न से निम्न आय वर्ग की भी लड़की कुछ और कटौती कर के भी महीने के 20-30 रुपये ज़रूर इसपर खर्च कर लेती है, खासकर जिसने एक बार भी इस्तेमाल कर लिया. इसीलिए इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि पैकेट 30 रुपये का हो या 60 का या 80 का, 12 परसेंट का टैक्स हर हाल में उनके ऊपर एक अतिरिक्त बोझ है, और इसे बुनियादी ज़रूरत मानकर जितना संभव हो घटाया जाना चाहिए. मगर इसके लिए पहले लड़कियों- किशोरियों के मेंस्ट्रुअल हेल्थ को सम्मान देना होगा, औरतों को सम्मान देना होगा.