यह महसूस बहुत समय से हो रहा था, इसकी योजना भी बहुत समय से बनायी जा रही है. आज जब छात्रसंघ अध्यक्ष और दमित वर्गों की लड़ाई लड़ने वालों को रजिस्ट्रेशन नहीं दिया जा रहा है, हत्यारे कल्लूरी को स्वतन्त्रता दिवस पर बुलाकर छात्रों को उकसाया जा रहा है, ताकि पहचान करके सोचने- समझने, बोलने, लड़ने वाले छात्रों को निकला जा सके. छात्रसंघ और शिक्षक संघ को पंगु कर दिया गया है.(लिंगदोह के समय से इसकी तैयारी चल रही थी). हर जगह वीसी और उसके चमचों की घुसपैठ है, तानाशाही है. तो मैं सोच रहा हूँ,कि कोई भूचाल क्यों नहीं आ रहा? क्यों सब सामान्य सा दिख रहा है? क्यों कक्षाएं चल रही हैं और साथ ही क्यों देश या दिल्ली या मुनिरका भी उठ खडा नहीं होता? कि हमारे इस जीवंत,विचारवान,बौद्धिक कैम्पस को मत मारो. बहसों को चलने दो, विचारधाराओं को उबलने दो.

लेकिन इसका जवाब भी साफ है, जवाब आपको मिलेगा किशन पटनायक में, जनांदोलनों के इतिहास में. बुद्धिजीवियों की भूमिका में.

आजादी के बाद से ही, और खासकर नब्बे के दशक से देश की दिशा ऐसी रही है, जिसमें आमजन का न हस्तक्षेप है और न उसके सरोकारों को ध्यान में रखा गया है.जो थिंक टैंक (कुछ मायने में वीसी द्वारा रखवाए जा रहे टैंक से कम खतरनाक नहीं) इस दिशा को तय कर रहे थे, जो नौकरशाह व्यवस्था को चला रहे थे, और जो शिक्षक मध्यवर्ग को सिखा रहे थे, उन सब में से कई जेएनयू से जुड़े रहे और निकले.

आपातकाल में जेएनयू से कुछ प्रतिरोध उभरा और बाद में भी जनांदोलनों के साथ कई बार सहानुभूति छात्रों ने दर्ज कराई. लेकिन मोटाकृमोटी यह सत्ता प्रतिष्ठानों और व्यवस्था के पुर्जे पैदा करता रहा. इसने आधुनिक केंद्रीकृत और मशीनी सभ्यता को चलाने में अपनी भूमिका निभाई.

ऐसे में गरीब, किसान, मजदूर, आदिवासी का क्या सम्बन्ध जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय से रहा है? उनके बीच में से जो इक्का दुक्का लोग वहाँ पहुंचे भी हैं, वो वहीं के होकर रह गए. उन पर लिखी किताबें ड्राइंग रूमों की शोभा बढाती रहीं, पर उनकी सोच, उनका ज्ञान और उनकी आवाज गाँवों और कस्बों में रह गयी. इसलिए आज जब ये बौद्धिक केंद्र और संस्थान धीरे धीरे तबाह किए जा रहे हैं, चारो तरफ चुप्पी और सन्नाटा है. आवाजें सिर्फ इंटरनेट या इक्का दुक्का अखबारों में हैं (वो भी अंगरेजी के). सड़कों पर नहीं.

जेएनयू का योगदान अहम् रहा है, इसमें दो राय नहीं. यहाँ से राजनैतिक कार्यकर्ता भी निकले और बहसों,ज्ञान के संचय के जरिये अच्छी ट्रेनिंग मिली और शोध निकला. लेकिन यह समाज के बड़े तबके के लिए अछूता रहा और उनके लिए बहुत कुछ कर नहीं पाया. अब हमारी जिम्मेदारी सिर्फ जेएनयू को बचाने की नहीं है. अपने गाँव-कस्बों-बस्तियों में जाकर जीवंत काम करने की है. जेएनयू ऐसे नहीं बचेगा, जब तक जमीनी आदमी के सरोकारों से वह जुड़ेगा नहीं. जेएनयू मिट भी जाए तो दिक्कत नहीं अगर यहाँ संचित ज्ञान , लोकज्ञान-जनसरोकारों और जन आन्दोलनों के साथ जुड़कर बदलाव की ताकत बने. इस दिशा में कोशिशें भी दिख रही हैं. झारखंड में दीपक रंजीत और विरेंद्र कुमार और नयन ज्योति व अमित आकाश और उनके साथी लम्बे समय से हरियाणा- राजस्थान - दिल्ली के मजदूरों के बीच में काम कर रहे हैं.

सार यह कि निराश होने की जरूरत नहीं, निराशा के कर्तव्यों को समझने की जरूरत है. हमें अपना सीखा हुआ बहुत कुछ अन-लर्न करने की जरूरत है, ताकि लोगों के साथ जीवंत सम्बन्ध स्थापित हो सके. सच्चा विश्वविद्यालय गलियों- कूचों के बीच घूमता है, क्लासरूम और लाइब्रेरी से बहुत आगे तक जाता है.मक्सिम गोर्की की आत्मकथा का दूसरा भाग, जिसका नाम है ‘मेरे विश्वविद्यालय’ ऐसी ही एक फक्कड़ और गलियों में बीतती उनकी किशोरावस्था की दास्ताँ कहता है.