झारखंड का बीता पखवारा विवादों और हंगामों का अखाड़ा बनता दिखा. झारखंड सरकार ने सी.एन.टी.-एसपीटी एक्ट के सारे संशोधन वापस ले लिए. साथ ही अधिग्रहण और पुनर्वास कानून 2013 में बेहद घातक संशोधन पारित कर दिया और धार्मिक स्वातंत्र्य विधेयक नाम का नया धर्मातरण अवरोधक विधेयक पास कर दिया. अपने पक्ष में सरकार ने महात्मा गाँाधी का एक उद्धरण भी अखबारों के पहले पन्ने पर विज्ञापित कर दिया. इस उद्धरण की प्रामाणिकता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए गए. प्रभात खबर कानक्लेव में आमंत्रित वक्ता ज्यां द्रेज को झारखंड सरकार के आचरणों की आलोचना करने के कारण -झारखंड के कृषि मंत्री के नेतृत्व में भाजपाइयों ने हंगामा मचाकर आपातकाल के यूथ कांग्रेस या संजय बिग्रेड की याद ताजा करा दी. आयोजक प्रभात खबर के संपादक और कार्यक्रम के संचालक ने खेद प्रकट करने, माफी माँगने की नैतिकता निभाने की जरूरत तक न समझी. झारखंड विधानसभा मंे भाजपा के एक आदिवासी विधायक ने हिन्दुस्तान में छपी खबर के आधार पर (यानि बिना पुस्तक पढ़े) एक सरकारी डाॅक्टर सह पुरस्कार प्राप्त संथाली साहित्यकार की किताब के एक नापसंद प्रकरण को समस्त संथाली महिलाओं का अपमान बताकर लेखक पर कारवाई की माँग की. प्रतिपक्ष के नेता हेमन्त सोरेन समेत कई झामुमो विधायकों ने भी समान राय जाहिर की. सरकार भी अपनी पूरी गति मे आ गई. भाजपा के विचारवान मंत्री सरयू राय ने दूसरे या तीसरे दिन सदन में जानकारी दी कि किताब प्रतिबंधित कर दी गई है, लेखक को सरकारी डाक्टरी की नौकरी से सस्पेन्ड कर दिया गया है और उनपर एफआइआर दर्ज करने का निर्देश दे दिया गया है. झामुमो और अन्य भावुक आदिवासीवादियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक मुल्यों की फिक्र तो नहीं ही आई, यह समझ तक नहीं आया कि वे भाजपा की हिन्दूवादी निरंकुशता के खेल में फँस गये. कल अगर कोई लेखक हिन्दू या ब्राह्मण के बारे में ऐसे तथ्यसंगत प्रकरण रचेगा जिस पर जातिवादी या साम्प्रदायिक व्यक्ति को अपमान महसूस होगा, तो वह साहित्य बैन होगा, लेखक दंडित होगा और उनके पास विरोध के लिए बेशर्मी तो होगी, नैतिक आधार नहीं होगा. फासिज्म की आहट से तिलमिलाये-ं घबराये तथा ज्यां द्रेज के अपमान से बौखलाये मुखर लोगों को भी इस प्रकरण पर अभिव्यक्ति के अधिकार के पक्ष में कुछ कहने की जरूरत महसूस नहीं हुई. लगता है हम सबकी चिन्ता लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने-बनाने से ज्यादा अपनी गोलबन्दियों को पुख्ता बनाने पर केन्द्रित हो गई है.

ज्यां द्रेज और निलंबित संथाली साहित्यकार के मसले पर तो सिर्फ स्टैन्ड लेना पर्याप्त है. हमें इनके अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ होना चाहिए. कुछ लोगों के गुस्से के असर में या अपनी असहमति की वजह से हमें सौवेन्द्र शेखर हांसदा (लेखक) को अकेला दंडित नहीं छोड़ देना चाहिए. निजी स्तर पर, नागरिक स्तर पर हम उसकी भरपूर आलोचना और निंदा करें, पर सरकार को दंडित करने का मौका देकर निरंकुशता की राह को और न खोलें. हमारी लोकतांत्रिक फिक्र व्यक्तित्वों की ऊँचाई के हिसाब से होती है, यह कहने का मौका न दें. धर्मांतरण विधेयक और भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर पूरे विश्लेषण और रणनीति के साथ मोर्चा लेने की जरूरत है. अभी हम भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के प्रश्न को लेते हैं. झारख्रंड विधानसभा ने भूमि अर्जन, पुनर्वसन एवं पुनस्र्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार (झारखंड संशोधन) विधेयक 2017 विपक्ष की आपत्ति के बाद भी पारित कर लिया है. संशोधन बहुत ही संक्षिप्त है. इसके पहले बिन्दु के अनुसार विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पताल, पंचायत भवन, आँगनबाड़ी केन्द्र, रेल परियोजना, सिंचाई योजना, विद्युतीकरण, जलापूर्ति योजना, सड़क, पाइपलाइन, जलमार्ग, गरीबों के आवास के लिए भूअर्जन करने के लिए सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी (सामाजिक प्रभाव आकलन अध्ययन) की जरूरत नहीं होगी और दूसरा बिन्दू कहता है कि अनुसूचित क्षेत्र में भूअर्जन पेसा कानून के दायरे में होगा.

सरकारी फैसले कितने भी सीधे-सरल दिखें, असल में होते कहाँ हैं? और हर बात को अच्छी तरह जान समझ कर कोई राय बनाना ही सही होता है. इसी बोध के तहत जिस कानून मेें यह संशोधन हुआ है, उस 2013 के कानून के प्रासंगिक हिस्सांे को जानना जरूरी लगा. उन प्रासंगिक हिस्सांे को जानने के बाद ही सरकार की लूटेरी मंशा अच्छी तरह समझ में आती है. इस कानूून के तहत पूरी तरह सरकारी, सरकारी निजी साझेदारी, पूरी तरह निजी, हर तरह की परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहित की जा सकती है. सरकारी परियोजना के लिए प्रभावितों से पूर्व सहमति की आवश्कता नही है. पीपीपी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत और निजी परियोजना के लिए 70 प्रतिशत असरग्रस्तो से पूर्व सहमति लेनी आवश्यक है. पूर्व सहमति लेने की प्रक्रिया के साथ-साथ सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी किया जाएगा. अनुसूचित क्षेत्र में उस क्षेत्र में लागू विशेष कानूनों और न्यायिक आदेशों के प्रतिकूल जाकर भूमि हस्तान्तरण नहीं होगा. सामाजिक प्रभाव और सार्वजनिक उद्देश्य का निर्धारण पंचायत या नगरपालिका से ग्रामस्तर और वार्डस्तर पर विमर्श के जरिये होगा. इसमें पंचायत और ग्रामसभा का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना होगा. अध्ययन छह माह में पूरा करना है और उसे सार्वजनिक करना है. अध्ययन के जरिये कई बातों को जानना है. अधिग्रहण से कोई सार्वजकि उद्देश्य पूरा हो रहा है या नहीं, विस्थापित और असरग्रस्त परिवारों की कितनी संख्या है, निजी और सार्वजनिक भवन निर्माणों का कितना क्षेत्रफल है, क्या उद्देश्य के हिसाब से प्रस्तावित अधिग्रहण न्यूनतम है? क्या अधिग्रहण के अन्य विकल्पों पर सोचा गया और वे विकल्प अव्यावहारिक ठहरे? परियोजना की कुल लागत कितनी है और उसकी तुलना मे परियोजना का लाभ कितना है? पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अगर होना है तो वह भी सामाजिक प्रभाव आकलन के साथ-ंसाथ होगा, बाद में नहीं. इस आकलन पर सरकार द्वारा कही गयी पद्धति में जन सुनवाई करनी होगी. इस जन सुनवाई की तारीख, जगह, समय आदि पूरी जानकारी प्रभावित परिवारों को देनी होगी. प्रभावितों की बात का रिकार्ड होगा और उसे भी रिपोर्ट में शामिल करना होगा. इस अध्ययन के आधार पर सामाजिक प्रभाव प्रबंधन योजना तैयार करनी है. सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी और सोशल इम्पैक्ट मैनेजमेन्ट प्लान स्थानीय भाषा में तैयार कर उसे स्थानीय स्वशासन निकायों को उपलब्ध कराना है. बताये गये रूप में प्रभावित क्षेत्र में उसका सार्वजनिक प्रकाशन करना है और सरकारी वेबसाइट पर डालना है. एक तटस्थ, स्वतंत्र बहुविषयी विशेषज्ञ समूह से इस रिपोर्ट का मूल्यांकन कराना है. इस विश्ेाषज्ञ समूह में दो गैर अधिकारी समाजविज्ञानी, दो स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधि, दो पुनर्वास विशेषज्ञ, एक तकनीकी विशेषज्ञ को रखना है. परियोजना निर्माण की जरूरत के प्रतिकूल निष्कर्ष आने पर अधिग्रहण रूक जाएगा. सरकर यह भी जाँचेगी कि उस क्षेत्र में काम में नहीं लायी गयी अधिग्रहित भूमि तो नहीं है. सरकार कलक्टर की रिपोर्ट (यदि ऐसी कोई रिपोर्ट है), एक्सपर्ट ग्रुप की रिपोर्ट का परीक्षण करेगी और अपना निर्णय लेगी. यह निर्णय पंचायतों को स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराया जायेगा. सरकार यह भी जाँच करेेगी कि पूर्वसहमति सही ढंग से ली गई है न. इस कानून के तहत यह प्रावधान भी है कि सरकार आपात मामलों में सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी की अनिवार्यता खत्म कर सकती है. पर वे नितान्त विशिष्ट किस्म के हैं. इसमें देश की प्रतिरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय और प्राकृतिक आपदा या अन्य वैसे मामले हैं, जिनका संसद ने अनुमोदन किया है.

इस कानून में यह कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्र मे यथासंभव भूमि अधिग्रहण नहीं किया जाएगा और बहूत जरूरी होने पर होगा भी तो उसके लिए ग्रामसभा और ग्रामपंचायत से सहमति लेनी होगी. आपात आवश्कता की हालत में भी, यानि, जहाँ सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी की बाध्यता हटा ली गई है, उन मामलों में भी यह सहमति आवश्यक है. जहाँ ग्रामसभा अस्त्त्वि में नहीं है या बनी ही नहीं है, वहाँ पंचायत से सहमति लेनी होगी. जाहिर है, ग्रामसभा की भूमिका पर यह कानून पेसा कानून से ज्यादा स्पष्ट और असरदार है. कानूनी प्रावधानों को देखने के बाद सहज ही साफ हो जाता है कि सरकार सामाजिक प्रभावों को नजरअंदाज कर, सार्वजनिक उद्देश्य की प्रासंगिकता की स्वतंत्र एजेन्सी से जाँच कराये बिना, न्यूनतम विस्थापन/अधिग्रहण की शर्त पूरी किए बिना तथा वैकल्पिक उपायों को सोचे बिना, जनसुनवाई के बिना आनन फानन में अपने लिए और निजी मुनाफाखारों के लिए अंधाधुंध अधिग्रहण करना चाहती है. अपनी मनचाही परियोजनाओं को आपात आवश्कता मानकर सोशल इम्पैक्ट असेसमेन्ट स्टडी से मुक्त हो रही है. वैसे तो पेसा के प्रावधानों से उसका लगाव नहीं है. पेसा के प्रावधानों का पूरा पालन भी नहीं कर रही है. किन्तु जब यह कानून ग्रामसभा को अधिग्रहण के मामले मेें ज्यादा निर्णायक भूमिका दे देती है तो वह उसकी जगह पेसा कानून की शरण ले रही है. जमीन की लूट को इस सरकार ने अपना आपद धर्म और नित्य कर्म बना लिया है. अगर सरकार को जनता की फिक्र है और परियोजनाओं का आग्रह भी है तो वह लोगों की स्वामित्व को छीने बिना भूस्वामी- पूँजीपति की साझेदारी में परियोजना बनाने चलाने का प्रयोग क्यों नहीं करती? स्वकथित समावेशी या सबका विकास की राह क्यांे नहीं चलती? सहभागी और सामूहिक स्वामित्व के जनपक्षीय साहस के बिना समावेशी विकास एक विनाशकारी छल ही साबित होगा.