दुनिया में भारत की ख्याति अलग-अलग कालखंड में अलग-अलग रूपों में होती रही है. वह ‘पंचतंत्र’ की कहानियों का देश था. तक्षशिला और नालंदा जैसे उच्च स्तरीय शिक्षा केंद्रों के रूप में इसकी ख्याति थी. इसे सोने का देश भी कहा जाता था क्योंकि यहां से उपभोक्ता सामान दुनियां भर के व्यापारी ले जाते थे और धन का प्रवाह विदेशों से देश के भीतर होता था. लेकिन आज इसकी पहचान एक बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में होती है. हम दुनियां भर से कारोबार तो करते हैं, लेकिन कारोबार के नाम पर हर विकसित मुल्क हमे अपना उत्पादित माल बेचता है. उपभोक्ता सामान- कच्चा तेल, मंहगे कार, टीवी, मोबाईल, फ्रिज, बड़े जलपोत, हवाई जहाज, हेलीकाप्टर, युद्ध के साजो सामान, गोला-बारुद, सब तो विदेशी मुल्क से ही आता है. जबकि निर्यात के नाम पर हमारे पास है सिर्फ अपनी खनिज संपदा और सस्ता मानव श्रम. विश्व बाजार में हमारा योगदान 2011 से 2016 के बीच महज 1.7 फीसदी का रहा है. अमेरिका, रूस, फ्रांस जैसे देशों की बात जाने दें, हमारी प्रतिस्पर्धा जिस चीन से रहती है, उसका विश्व बाजार में योगदान हमसे तेरह गुना ज्यादा - लगभग 13. 2 फीसदी है.

इसका अर्थ क्या हुआ?

अर्थ यह कि मोदी का ‘मेकिंग इन इंडिया’ नारा महज एक धोखा है. हमारे मुल्क में आज कुछ भी नहीं बनता. भारत ले देकर सिर्फ लौह अयस्क, कुछ कपड़े, आदि का निर्यात करता है. चीन के साथ तो हमारा कारोबार और गजब का है. चीन अपनी खनिज संपदा बचा कर रखता है और भारत से लौह अयस्क, स्लैग, ऐश, कच्च लोहा, प्लास्टिक आदि आयात करता है और उनसे उपभोक्ता माल बना कर भारत को भेजता है. ऐश का वह क्या करता है? वह सीमेंट बनाता है और कुछ वर्षों से भारत में सीमेट बेचने में लगा हुआ है. सस्ते इलेक्ट्रोनिक सामान, कपड़े, खिलौने, दीपावली की लड़ियां आदि तो वह बेचता ही है.

भारत एक कृषि प्रधान देश माना जाता है. विश्व बाजार में कम से कम एग्रो-प्रोडक्ट के निर्यात में एक सम्मानजनक स्थिति में थे. लेकिन मोदी के सत्ता संभालने के बाद इस क्षेत्र में भी भारी गिरावट आई है. 13-14 में भारत ने 33 बीलियन अमेरिकी डाॅलर के ऐग्रो सामान का निर्यात किया था, जबकि 2016-17 के वित्तीय वर्ष में महज 24.7 बिलियन अमेरिकी डाॅलर का निर्यात हुआ. यानि जहां एग्रो प्रोडक्ट के रूप हम आयात से 150 फीसदी अधिक का निर्यात करते थे, अब मामला बराबरी का हो गया. अब खाद्य सामग्री, फल, सब्बिजयों के निर्यात भी आयात के बराबर हो गया है.

सोने के आयात में 95 फीसदी वृद्धि

मोदी के भाषणों पर फिदा भारत का हाल चालू वित्तीय वर्ष के प्रथम तिमाही के आकड़ों से पता चलता है. इस वर्ष अप्रैल से जून के तीन महीनों में विश्व बाजार में चीन का योगदान जहां 13.2 फीसदी रहा, वहीं भारत का योगदान महज 1.7 फीसदी का रहा. इन तीन महीनों में इंडिया के व्यापार घाटे में 108.2 फीसदी की बढोत्तरी हुई. इसकी एक प्रमुख वजह सोने के आयात में आया उछाल है. नोटबंदी के दौरान जमकर लोगों ने सोना खरीदा. जुलाई 16 में जहां 2.10 बिलियन डाॅलर का सोना आयात किया गया था, वहीं जुलाई 17 में 11.44 बिलियन डाॅलर के सोने का आयात हुआ.

भारत गरीब, लेकिन इंडिया बहुत अमीर!

दरअसल, भारत जैसे गरीब मुल्क के लिए यह संभव नहीं कि वह महंगी कारे, महंगे स्मार्ट फोन, विशाल आकारों वाला टीवी, फ्रिज, और ढेर सारा सोना खरीद सके. लेकिन ‘इंडिया’ के पास विशाल आबादी के शोषण और उत्पीड़न से अपार धन इकट्ठा हो गया है और वह दुनियां की महंगी से महंगी कारे, स्मार्ट फोन, टीवी, फ्रिज, सोने के बिस्कुट खरीद सके. लगभग 120 करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क की एक चैथाई आबादी के पास अपार धन है. वह यह सब कुछ अफोर्ड कर सकता है. एक चैथाई का अर्थ हुआ करीबन 30 करोड़ की आबादी जो संगठित क्षेत्र में आता है. और तीस करोड़ या बीस-पच्चीस करोड़ का यह उपभोक्ता बाजार पूरी दुनियां को, सारे व्यापारिक मुल्कों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. जहां मोदी जाते हैं, वही वाह-वाह. क्या कमाल के प्राईम मिनिस्टर हैं, क्या कमाल का मुल्क है.

युद्धक कंपनियां युद्ध का वातावरण बनाती है. तुम्हे पाकिस्तान से खतरा है? लो यह टैंक. तुम्हें चीन से खतरा है? लो यह मिसाईले. कश्मीर में उग्रवादी परेशान किये हुए हैं? यह एके 47 किस दिन काम आयेगा. ले जाओ. न्यूक्लियर रियेक्टर बनाओं. पैसा नहीं? अरे हम तुम्हें कर्ज भी देंगे. शरीर से पसीने की बदबू आती है, छोकरी भाग जाती है? ये लो इत्र-गुलाल. ये तरह तरह के खुश्बू. उंचाई से छलांग लगाते डर लगता है? यह थंम्स अप पीयो बेटा और छलांग लगा लो किसी भी पहाड़ से. झकास.

और पैसा आता कहां से है?

यह तो आपको सोचना चाहिये. कल कारखाने बंद हो रहे हैं. नई तकनीक और औटोमेसन से रोजगार घट रहा है. बोकारो कारखाना, जहां 52 हजार नियमित कर्मचारी हुआ करते थे, वह 25-30 हजार में सिमट गया. एचईसी, टिस्को जैसे तमाम कारखानों में रोजगार के अवसर कम हुए. सिंदरी कारखाना बंद. चंद्रपुड़ा, बोकारो, तेनुघाट, सहित डीवीसी परियोजना के तमाम थर्मल पावर प्लांट बंदी के कगार पर. फिर बाजार में पैसा कहां से आ रहा है? कहां से दौड़ती हैं झारखंड की सड़कों पर महंगी गाड़ियां? कैसे नित खुल रहे हैं नये माॅल? कैसे? कैसे? कैसे?

तो जवाब यह है कि योजनाबद्ध तरीके से संगठित क्षेत्र के वेतन-भत्ते में इजाफा हो रहा है. सरकारी कर्मचारी, अफसर, जन प्रतिनिधि, गैर सरकारी क्षेत्र के कर्मचारी, निजी कंपनियों के कर्मचारी, सेना, पुलिस, जिधर देखों उधर पैसे की बरसात. और फिर लूट हो रही है विकास के नाम पर आने वाली धन राशि की. देश में न कल कारखाना नया लगा, न कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा बढी, न रोजगार के अन्य अवसर बढते दिख रहे हैं. देश में सरकारी क्षेत्र में एक ही काम मोदी और उनकी टीम लगन से कर रही है- देश जोड़ने का! यानी, सड़क बनाने, पुल- पुलिया बनाने का काम. सड़क और पुल भी बन रहा है और देश की अर्थ व्यवस्था, यानी उपभोक्ता बाजार भी मजबूत हो रहा है.

बाकी जनता के लिए है आधार कार्ड, वीमा योजना, बैंक खाता खोलना, वृद्धा पेंशन, वगैरह वगैरह.

और इसलिए खाता पीता तबका इस विकास का खूब गीत गाता है.