जिस तरह से दुनिया में आदिवासी गरीबी, पिछड़ेपन और प्रताड़ना के शिकार हैं, इसके कुछ उदाहरण हमें आस पास दखने को मिलते हैं, फिर चाहे उनके अपने आस पास आज़ादी से बाज़ारों में घूमने के मस्ले हां, नये कपड़े पहनने के या फिर बाकि बच्चों की तरह उन बच्चों के लिए स्कूल पार्क जैसी जगाहों पर सम्मान और आज़ादी से जीने की आजादी का न होना, हालांकि भारत में धर्म, वर्ग व तमाम विभिन्नताओं के चलते आज़ादी के हर संदर्भों मंे अलग अलग मायने होंगे. यहां हम सिर्फ उन आदिवासी जातियों के विषय में बात कर रहे हैं, जिन पर ब्रिटिश हुकूमत के दौर से अपराधी प्रवृत्ति के होने का आरोप लगाते हुऐ 1952 में आदतन अपराधी जाति कानून लागू किया गया था. इसमें पारधी , सासी, अगरिया, बंजारा, कालबेलिया, बागरी, बादीगीर, बेड़िया समदुाय व अन्य कई जातियों के आदिवासी समुदायों को शामिल किया गया था. आज़ादी के 5 वर्ष बाद यह कानून हटा भी दिया गया, परंतु व्यवहार में आज भी उनके साथ भेदभाव भरा अमानवीय व्यवहार होता है. और इसे रोज़मर्रा की दिनचर्या में आसानी से देखा जा सकता है. यह भारतीय समाज के लिए चिंता का विषय है.

हाल ही में इन समुदायों द्वारा साझा की गई घटनाऐं, कुछ ब्योरे सामने आये हैं जो भारतीय समाज में इन समदुायों के हालात का बयान करती हैं.

एहसान नगर पारधी समदुाय का 17 वर्षीय गजेन्द्र कहता है कि जब वह नई टी सर्ट पहनकर निकला तो उसको काॅलर पकड़़ कर ये कहते हुऐ गाली देकर अपमानित करना कि तुम्हारे पास पैसे कहां से आये नये कपड़े खरीदने के? तुमने यह टी सर्ट चोरी की है और तब गजेन्द्र द्वारा पुलिस को दकुान पर ले जाकर दुकानदार से स्पष्ट करवाना कि उसने ये टी सार्ट वहीं से खरीदी है. गजेन्द्र अपने बेगुनाह होने की पुष्ठि तो कर पाता है, परन्तु सरे बाज़ार /दुकानदार के सामने जो ज़िल्लत गजेन्द्र महसूस करता है, वह उसके आत्मविश्वास को और चार कदम पीछे धकेलने के लिहाज़ से काफ़ी है.

ज़मीन घर से बेदखल कर दिये जाने के बावजूद शहरों में विस्थापित होकर जिस भी तरह से जीने की जद्दोज़ह़द में रोज़गार अहम मसला है जिसके बिना जीवन निर्वाह कर पाना लगभग लगभग नामुमकिन सा है. शेखर कहता है कि वह अपने समूह के लिए काम ढूढतंा रहता है. कभी कभार उन्हें शादी की पार्टियों में केटरिंग का काम मिल जाता है, जिसके चलते वे देर रात काम से लौट रहे होते हैं. उस दौरान शेखर का समूह पुलिस से वाबस्ता होता है और शेखर बताता है कि उन्हें पुलिस को यह स्पष्ट करने के लिए कि वह चोरी के इरादे से नहीं घूम रहे हैं, वे काम से लौट रहे हैं और फिर पार्टी से बचे खाने की पन्नियां खोलकर दिखा कर कहते हैं कि घर के लिए खाना ले जा रहे हैं, इसके बाद भी वे पुलिस वैन हमारे पीछे दौड़ाते रहे और हम तब तक भागते रहे जब तक कि हम घर नहीं पहुंच गये.

14 वर्षीय अभिषेक समूह में पूछते हुऐ कहता है कि मैं तो रोजाना नहा के स्कूल जाता हूं, फिर भी सर जी हमीं को क्यों कहते हैं- ‘क्यों रे पारधी, नहा के नहीं आया रे? बदबू कहां से आ रही है?’ पता है, मोचियों के कई बच्चे तो नहा के भी नहीं आते, फिर भी सर जी न हमीं को कहते हैं यह बात. जब सब बच्चे हमाई तरफ देखते है न, तो मैं सोचता हूं, स्कूल ही नहीं जाउंगा..