समाज में लिंग को लेकर ग़ैरबराबरी से जुड़े सवाल अक्सर ही ज़ेहन में आते रहे हैं. लगता था यह प्राकृतिक कैसे हो सकता है, लेकिन जब इस गैऱ बराबरी को लेकर काम करना शुरू किया तो अपने आप ही कई सवाल और उनके जवाब समझ में आते गये. यदि हम इसे लिंग आधारित गैरबराबरी के रूप में देखेंगे तो पायेंगे कि यह हमारे ही समाज द्वारा बुना गया ताना बना है. वास्तव में प्राकृति से इसका कोई सरोकार ही नहीं है, बल्कि लिंग के आधार पर सामाजिक परिभाषायें गढ़ दी गई हैं. यह स्पष्ट समझ आया कि इसे बदला जा सकता है और इस सामाजिक सोच को चुनौती भी दी जा सकती है.

उदाहरण के तौर पर हम देखेंगे कि अक्सर ही ऐसा कहा जाता है कि घर का काम लड़कियां महिलाऐं करेंगी, नौकरी और बाहर के काम लड़के करेंगे. जबकि ऐसा नहीं है कि लड़के घर का काम करना नहीं सीख सकते,या इसमें रुचि नहीं ले सकते. दूसरी तरफ, लड़कियां नौकरी से लेकर के बाहर का हर काम कर सकती हैं. पुरूषों से बोला जाना कि क्या चूड़ियां पहन रखी हैं,औरतों जैसे रोता है, से सीधा संदेश पहुंचाता है कि औरतें क़मज़ोर हैं और महिला पुरूष दोनों पर ही मानसिक दवाब पड़ता है. पुरूषों पर अपनी भावनाओं को व्यक्त न करने की और महिलाओं को यह यक़ीन दिलाना कि वो कमज़ोर हैं. जबकि लिंग और सेक्स में फर्क है तो सिर्फ यह है कि लिंग सामाजिक परिभाषा और पहचान है, जिसे इंसान ने स्वंय ही बनाया है. वहीं हम देखते है कि सेक्स शारीरिक या जैविक हैं. दुनिया में हर जगह महिला और पुरूष के शारीरिक अंग एक जैसे ही होते हैं, हालांकि अलग अलग संस्कृतियों और परिवारों में इसका रूप—रंग थोड़ा बदल भी सकता है. हर इंसान अपने हिसाब से काम, व्यवहार व आचरण तय कर समाज द्वारा स्थापित लिंग आधारित ग़ैरबराबरी को नकार सकता है.

लैंगिक ग़ैरबराबरी के चलते सामाजिक समस्यायें और उनसे जुड़े आयाम:

लिंग के आधार पर किसी भी इंसान के साथ ऐसा व्यव्हार या कोई गलत काम करना, जिससे उसे शारीरिक, आर्थिक या यौनिक हानि या ठेस पहुंचती है.

लिंग आधारित हिंसा माने यह नहीं कि सिर्फ शारीरिक या यौनिक, बल्कि महिला और पुरूष होने से जुड़ी हुई कर्इ मान्यतायें और उम्मीदें हैं जिनका पालन करने की कोशिश में लोगों पर बहुत दिमाग़ी तौर पर असर पड़ता है. जैसे कि माना जाता है कि पुरूषों को परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए. इस तरह की सोच की वजह से पुरूषों की खुद की पहचान उनके काम और कमाने से जुड़ जाती है, इसलिए बेरोगारी के वक़्त में उन्हें ज़्यादा दिमागी तनाव होता है जिसके चलते कई बार आत्माहत्या करने वाले भी ज़्यादातर पुरूष ही होते हैं.

ठीक इसी तरह महिलाओं को भी कई सामाजिक उम्मीदों का सामना करना पड़ता है. बचपन से ही लड़कियों को बताया जाने लगता है कि उन्हें कैसा दिखना चाहिए या कैसे कपड़े पहनने चाहिए. एक तरफ उन्हें आकर्षक होना सिखाया जाता है और दूसरी तरफ उन्हें शरीर से शर्मिंदा होना भी सिखाया जाता है. ऐसे कोई स्थिती नहीं छोड़ी जाती जिसमें महिला अपने आपको वो जैसी है वैसे ही स्वीकार कर सके.

  • यदि हम भारत में लिंग आधारित हिंसा के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि 2011-2013 के बीच हर रोज बलात्कार के 75 मामले दर्ज हुए, जिसका मतलब है हर 20 मिनट में 1 बलात्कार.
  • वैवाहिक बलात्कार एक कानूनी अपराध नहीं है.
  • यह अनुमान लगाया जाता है कि 47 प्रतिशत लड़कियों की 18 साल के होने से पहले ही शादी करा दी जाती है.
  • यूनीसेफ के एक 2012 के सर्वेक्षण में यह पाया गया कि भारत में 57 प्रतिशत लड़कों और 53 प्रतिशत लड़कियों को लगता है कि एक पति का अपनी पत्नि को मारना — पीटना जायज़ है.
  • दुनिया भर में 2015 में कामकाजी उम्र की महिलाओं में से केवल आधी ही श्रमबल में लगी हुई थी, जब कि कामकाजी उम्र के पुरूषों के लिए यह आंकड़ा 77 प्रतिशत हैं.
  • सभी राष्ट्रीय सांसदों में से केवल 22 प्रतिशत महिलाऐं हैं.
  • नौकरी करने वाले लोगों में पुरूषों की संख्या 55 प्रतिशत है, परन्तु कार्य स्थान पर मरने वाले लोगों में से 93 प्रतिशत पुरूष हैं. पुरुषों पर घर चलाने का आर्थिक तनाव रहता है.
  • बेरोजगार पुरूषों की बाकी जनसख्या की तुलना में मौत होने की सम्भावना 20 प्रतिशत अधिक होती है.
  • 620 लाख लड़कियों को शिक्षा देने से मना कर दिया जाता है.
  • बाल यौनशोषण की शिकार ज़्यादातर लड़कियां होती हैं. 12 से कम उम्र के वर्ग में 26 प्रतिशत लड़के हैं और 12-17 के वर्ग में 8 प्रतिशत लड़के होते हैं.
  • मानव तस्करी के शिकार हुऐ लोगों में से 80 प्रतिशत महिलायें होती हैं.
  • हर तीन महिलाओं में से कम से कम एक के साथ मार- पीट बलात्कार, या किसी और रूप से शारीरिक या यौनिक शोषण होता है.

लैंगिक भेदभाव के चलते लिंग आधरित हिंसा की शुरूआत होती है, जिसमें घरेलू हिंसा, दहेज़ को लेकर प्रताड़ना, बलात्कार, जबरन शादी कराना, किन्नरों के साथ पुलिस व बाकि समाज द्वारा हिंसा, किन्नरों का केवल पारम्पारिक आजीविका से गूज़ारा करना,और बाकि व्यवसायों से अपवर्जित होना, किन्नरों का मुख्यधारा से अपवर्जित होना, गर्भ में बच्चा मारने के लिए मजबूर करना, शारीरिक शोषण, मर्दानगी साबित करने का दबाव होना, मनपसंद खेल,या कार्य न कर पाना. इस प्रकार की लिंग आधारित हिंसा को परिपक्व होने में समाज में पनपी धारणाऐं लैंगिक धारणा से जुड़े तमाम आयामों को स्थापित करती हैं.

किसी समूह,समुदाय,जाति, धर्म, लिंग वशेष के बारे में पहले ही सोच के मुताबिक राय रखना कि जैसे पारधी, बीनने चुनने वाले लोग तो चोर होते हैं. सब मुस्लमान गोश्त खाते हैं, मुस्लमान जुमें के जुमें ही नहाते हैं. बच्चे और घर तो बस औरतें ही संभाल सकती हैं. ये पर सच नहीं होती और इनकी वजह से काफी नुकसान होता है. परिवार, समाज, मीडिया या फिर खुद के अनुभव से बनती है. तमाम प्रकार की धारणाएं हमारी समझ को इस तरीके से प्रभावित करती हैं कि हमें लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानने से रोकती हैं. धारणाएं समय के साथ बदल सकती हैं, पर हमेशा ही लोगों पर सामाजिक दबाव भी डालती हैं. वे उन्हें बढ़ने से रोकती हैं और उनकी क्षमताओं को भी निर्धारित करती हैं. लम्बे समय से चलती हुई मान्यता दृढ यकी़न में बदल जाती है,ओर महिलाओं और पुरूषों के बीच समाज निर्धारित असमानता को मज़बूती देती है. इसे बड़े प्रभाव के तौर पर देखें तो इसी वजह से विभिन्न लिंग के लागों की ये मानसिकता बन जाती है कि वे किस तरह से जीवन व्यतीत कर सकते हैं और कैसे नहीं कर सकते और इसी के मुताबिक वो अपनी क्षमताओं का भी आंकलन करने लगते हैं. जो जोग अपनी लिंग आधारित सामाजिक पहचानों से इत्तेफाक नहीं रखते वे भी कई बार अपने आपको ही दोषी समझने लगते हैं. साथ ही समाज में बनाए गए रीति रिवाज़ भी उन्हें गलत ठहराते हैं जिससे कि उनके आत्मविश्वास में भी घटाव होता है.