फरवरी 2016 में रांची के सफायर इंटरनेशनल स्कूल में सातवीं क्लास के एक बच्चे की हत्या हुई थी, दस दिन, या शायद महीने भर ज़रूर वह घटना स्थानीय अखबारों में छाई रही, बहुत सारी कहानियां बहुत सारे वर्शन चले, लोग पढ़ पढ़ कर सिहरते रहे. आज डेढ़ साल बाद हमें कुछ पता नहीं कि उस केस का क्या हुआ. इस बीच रांची की हृदयस्थली, व्यस्ततम अल्बर्ट एक्का चौक पर सफायर इंटरनेशनल स्कूल के बड़े बड़े होर्डिंग भी दिखे, हर बार जिन्हें देख कर मुझे विनय की याद आयी, पता नहीं जिनके बच्चे वहां पढ़ते होंगे उन्होंने विनय को कितना याद रखा.

लगभग उसी समय दिल्ली के एक रयान इंटरनेशनल स्कूल में पहली क्लास का एक बच्चा टैंक में डूबा पाया गया था. आज दिल्ली में ही रयान ग्रुप के एक अन्य स्कूल में दूसरी क्लास के एक बच्चे की हत्या वाशरूम में हो गयी. लोग कल प्रद्युम्न को भी भूल जाएंगे, जैसे विनय और दिव्यांश को भूल गए.

ऐसी घटनाओं के बाद भी ये बड़े बड़े ‘इंटरनेशनल’ और ‘ग्लोबल’ स्कूल बंद नहीं होते हैं, यहां तक कि मार्केट डाउन भी नहीं होता है, क्योंकि लोग अपने बच्चों को उनसे निकालते नहीं हैं. उनकी भी मजबूरी है, उन्होंने बड़ी मुश्किल से बच्चे का दाखिला करवाया होता है (अभी कल किसी प्रोग्राम में सुना कि आज बच्चों की शादी कराना आसान है एडमिशन कराना मुश्किल), मोटी फीस भरी होती है, बीच सेशन में दाखिला मिलना और भी कठिन होता है. इसीलिए वो स्कूल प्रशासन से और अधिक सुरक्षा की मांग करके बच्चों को वहीं बने रहने देते हैं. मगर नए एडमिशन में भी कोई कमी नहीं आती है. और कुछ दिनों बाद कहीं किसी महंगे स्कूल में फिर किसी बच्चे की मौत हो जाती है. फिर वह स्कूल अपने यहां हुई घटना को दबाता छिपाता है कि उसकी मार्केट वैल्यू खराब हो जाएगी.

मार्केट, बाज़ार, यही जड़ है, हम अपने बच्चे को किसी खास स्कूल में पढ़ाने के लिए सबकुछ करने को तैयार हैं, यह कुछ नहीं बस शिक्षा का बाज़ार है, और यह बाज़ार हमारा बनाया हुआ है. क्या सिर्फ स्कूल, कोई भी स्कूल, बच्चों को बना सकता है? एसी बसें, एसी वाले स्मार्ट क्लासरूम और स्विमिंग पूल हमारे बच्चों का भविष्य नहीं बना सकते. तो हम इस कदर कुछ स्कूलों पर क्यों निर्भर हैं.

घोर आर्थिक और सामाजिक विषमता, और उस विषमता के भद्दे प्रदर्शन वाले इस देश में सरकारी स्कूलों का ध्वस्त होना सहज है. सरकारें जनता के प्रति अपनी अधिकतर ज़िम्मेदारियों से लगभग मुक्त हो चुकी हैं, बल्कि खुद ही प्रभु वर्ग के लिए प्रीमियम प्रोडक्ट बनाने में लगी हैं, टोल वाली एक्सप्रेस सड़कें, बुलेट ट्रेन. सरकारी स्कूलों में बच्चे मिड डे मील खाकर मरते रहें, वैसे भी उनमें गरीब बच्चे ही पढ़ते हैं और उनकी जान की क्या कीमत. कीमती जान अमीर बच्चे तो महंगे स्कूलों में ही पढ़ेंगे.

मगर यह समझना होगा कि स्कूलों की और अधिक किलेबंदी, और अधिक सुरक्षाकर्मी, और अधिक सीसीटीवी कैमरे बच्चों को नहीं बचा सकते हैं. आप समाज से अलग थलग किसी यूटोपिया में कभी सुरक्षित हो ही नहीं सकते हैं, आपके बच्चे भी नहीं. बच्चे तभी सुरक्षित होंगे जब वो आपके करीब रहेंगे, ऐसा स्कूल जो पास हो, जहां आप ज़रूरत पड़ने पर फौरन पहुंच सकें, संभव हो तो पैदल भी, जहां आस पास के सभी बच्चे पढ़ते हों, जहां से उनका शोर, गलियारों में उनकी कदमताल, अगर आपको नहीं भी तो कम से कम समाज को सुनाई दे. क्योंकि समाज में बीमार लोग ज़रूर हैं, मगर अच्छे लोग फिर भी बीमार लोगों से कहीं ज़्यादा हैं, इसीलिए ज़रूरी है कि स्कूल समाज के नियंत्रण में न सही समाज की नज़र में हों, उसकी निगरानी में ज़रूर हों.

यही एकमात्र उपाय है बच्चों को बचाने का. हमें बच्चों को खास स्कूलों में पढ़ाने की अपनी प्रतिस्पर्धा छोड़नी होगी, क्योंकि बच्चों की प्रतिस्पर्धा से ज़्यादा घातक है स्कूलों की प्रतिस्पर्धा. मेक इन इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, न्यू इंडिया, स्मार्ट सिटी के नारों के बीच स्कूली शिक्षा को असली मुद्दा मानना और बनाना होगा. और उसके लिए पहले समान शिक्षा प्रणाली पर विश्वास करना होगा.