1अप्रैल, 1947 की घटना है। नयी दिल्ली की भंगी बस्ती – वाल्मीकि मंदिर परिसर – में जारी 1 से 5 अप्रैल तक की प्रार्थना-सभा में - ‘अडंगा’ डालने और गांधी के ‘धर्म’ को ठप करने का एक ‘नाटकीय’ दृश्य पूरे 5 दिन चला। आजादी के चार महीने पूर्व के उस पांच दिन लंबे दृश्य का ‘पटकथा-लेखक’ कौन था? – यह आज भी देश के लिए ‘खुला रहस्य’ बना हुआ है। प्रार्थना-सभा के तीसरे दिन उस नाटकीय दृश्य में एक झन्नाटेदार मोड़ तब आया, जब गांधीजी ने कहा – “जो बात मैंने सुनी वह मुझे खटक रही है - मैं चाहता हूं वह बात सही न हो - वह यह कि ये जो अड़चन डालने वाले लोग हैं, वे एक बड़े संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के हैं। और, पांचवें दिन बिना किसी अड़चन के प्रार्थना-सभा संपन्न हुई! चार दिन के शोर के बाद पांचवें दिन अवतरित उस शांति को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा : “मुझे एक पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से मिला है। जो मैं समाचारपत्रों के लिए जारी करूंगा। पत्र में कहा गया है कि पिछले दिनों में प्रार्थना का जो विरोध किया गया था, उससे उसका कोई संबंध नहीं है।” गांधीजी ने इस जवाब पर खुशी और विश्वास व्यक्त करते हुए यह अंतिम ‘टिप्पणी’ की – “अगर कोई संस्था खुले आम काम नहीं कर सकती, तो वह किसी की जान या धर्म की रक्षा नहीं कर सकती।”

विरोध की ‘घटना’ से संबंध नहीं होने की घोषणा का अर्थ क्या यह था कि हुड़दंग मचाने वाले लोगों का आरएसएस से कोई संबंध नहीं था? उनका आर.एस. एस के हिंदू धर्म से संबंध नहीं था? तब वे कौन हिंदू थे? क्या वे हिंदू धर्म के पोषक थे? क्या वे हिंदू धर्म नाशक थे? क्या वे जो कह रहे थे वह सही था? क्या वे जो कर रहे थे वह गलत था? साधारण से साधारण भारतीय के दिल-दिमाग में पैदा हो सकने वाले ऐसे सब सवालों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘जवाब’ को निर्दोष-निष्पक्ष माना जा सकता था? आर.एस.एस का वह जवाब उसके ‘हिंदू-धर्म’ (जिसकी रक्षा और सत्ता के लिए वह कृतसंकल्प था) के किस आदर्श, सिद्धांत या स्टैंड के प्रतिपादन का संकेतक था? वह जवाब आर.एस.एस की ‘बेनिफिट ऑफ़ डाउट’ की रणनीति का हिस्सा जैसा नहीं लगता? अन्यथा, गांधीजी की ‘अंतिम टिप्पणी’ का मकसद और मतलब क्या था?

इन सवालों के सही जवाब के लिए जरूरी है कि उस पूरे पत्र को यथावत सार्वजानिक किया जाय, जो आर.एस.एस की ओर से गांधीजी को भेजा गया था। यहां मुझे यह स्वीकार करना होगा कि उस ‘ओरिजिनल’ दस्तावेजी पत्र तक मेरी पहुंच अभी तक नहीं बन पायी है। इसके लिए मैंने आर.एस. एस. और भाजापा के उन मित्रों से भी अनुरोध कर रखा है, जो बिहार आन्दोलन-1974 में साथ थे, लेकिन वह अनुरोध अभी तक फलीभूत नहीं हो पाया है। क्या अन्य कोई मित्र सहयोग का हाथ बढ़ाएंगे?]

बहरहाल, वह दस्तावेजी घटना 5 दिन लंबी है। सो ‘यथावत’ प्रस्तुत करने के लिए उसे यहां 5 किस्तों में दिया जा रहा है।

1 अप्रैल, 1947, नई दिल्ली। गांधीजी 31 मार्च की सुबह दिल्ली पहुंचे थे। जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सुचेता कृपलानी, घनश्यामदास बिड़ला और वल्लभभाई पटेल से भेंट की थी। अमृतकौर और शांतिकुमार मोरारजी से भी भेंट की शाम को वाइसराय से मिले थे। रुग्ण सरोजिनी नायडू को देखने गये। दूसरे दिन सुबह अब्दुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद से भेंट की। चोइथराम गिडवानी और सिंध के कार्यकर्ताओं के साथ भेंट की। अंतर-एशियायी-संबंध-सम्मेलन में भाषण दिया। शाम प्रार्थना-सभा में पहुंचे।

करीब-करीब ठीक समय पर ही। कुमारी मनु गांधी के मुंह से ज्यों ही कुरान के कलमें का पहला शब्द निकला कि प्रार्थना में से एक युवक खड़ा होकर, आगे बढ़ता हुआ बिल्कुल गांधीजी के मंच के पास आकर कहने लगा, “आप यहां से चले जाइए। यह हिंदू मंदिर है। यहां मुसलमानों की प्रार्थना हम नहीं होने देंगे…।”

गांधीजी ने उससे कहा : “आप जा सकते हैं। आपको प्रार्थना न करनी हो तो दूसरों को करने दें। यह जगह आपकी नहीं है। यह ठीक तरीका नहीं है।”

परंतु वह लड़का चुप नहीं हुआ। एक महिला गांधीजी की सहायतार्थ उनके और उस लड़के के बीच खड़ी हो गई।

गांधीजी बोले : “मेरे और इसके बीच कोई नहीं आये।”

उस लड़के ने गांधीजी के साथ बहस छेड़ दी। यह देखकर लोगों को धीरज न रहा, और सबने मिलकर उसे प्रार्थना-सभा से बाहर कर दिया। यह देखकर गांधीजी ने कहा : “यह आपने ठीक नहीं किया। उस लड़के को आपने जबरदस्ती से निकाल दिया। ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब वह यही कहेगा कि मैंने विजय पाई है। वह गुस्से में था। प्रार्थना नहीं सुनना चाहता था; पर मैं जानता हूं कि आप सब तो प्रार्थना सुनना चाहते हैं। मैं किसी का विरोध करके प्रार्थना नहीं करना चाहता। अब आगे की प्रार्थना मैं छोड़ देना चाहता हूं। जो प्रार्थना मैं करता हूं आप सब जानते हैं। नोआखली जाने से पहले भी आपने प्रार्थना सुनी है। उसमें इस मुसलमानी प्रार्थना के बाद पारसी प्रार्थना है। बाद में यह लड़की आपको मधुर भजन सुनाती और फिर रामधुन होती। मैं अब रामधुन भी छोड़ता हूं पारसी प्रार्थना भी छोड़ता हूं। “ओज अबिल्ला” अरबी भाषा में कुरान के एक मंत्र का पहला शब्द है। इसे कहने से आप यह समझते हैं कि हिंदू-धर्म का अपमान होता है पर मैं एक सच्चा सनातनी हिंदू हूं। मेरा हिंदू धर्म बताता है कि मैं हिंदू प्रार्थना के साथ-साथ मुसलमान प्रार्थना भी करूं, ईसाई प्रार्थना भी करूं। सभी प्रार्थनाएं करने में मेरा हिंदूपन है क्योंकि वही अच्छा हिंदू है जो अच्छा मुसलमान भी है और अच्छा पारसी भी है। वह लड़का जो कह रहा था कि यह हिंदू-मंदिर है, यहां ऐसी प्रार्थना नहीं की जा सकती, यह तो पागलपन है। यह मंदिर तो भंगियों का मंदिर है। अगर चाहे तो एक अकेला भंगी मुझे यहां से उठाकर फेंक सकता है। लेकिन वे मुझसे प्रेम करते हैं, वे जानते हैं कि मैं हिंदू ही हूं। उधर जुगल किशोर बिड़ला मेरा भाई है। पैसे में वह बड़ा है ; पर वह मुझे अपना बड़ा मानता है। उसने मुझे एक अच्छा हिंदू समझकर यहां टिकाया है। उसने जो बड़ा भारी मंदिर बनवाया है, उसमें भी वह मुझे ले जाता है। इतने पर भी वह लड़का अगर कहता है कि तुम यहां से चले जाओ, तुम यहां प्रार्थना नहीं कर सकते तो यह घमंड है। लेकिन आप लोगों को उसे प्रेम से जीतना चाहिए था। आपने तो उसे जबरदस्ती निकाल दिया। ऐसी जबरदस्ती से प्रार्थना करने में क्या फायदा? वह लड़का तो गुस्से में था और गुस्से के मारे वहशियाना बात कर रहा था। ऐसी बातों से ही तो पंजाब में यह सब-कुछ हो गया। यह गुस्सा ही तो दीवानेपन का आरम्भ है।

युवक द्वारा विघ्न उपस्थित करने से पूर्व ही मनु गांधी बौद्ध-धर्म की प्रार्थना और गीता के श्लोक सुना चुकी थीं। सो गांधीजी ने आगे कहा - अभी इस लड़की ने जो श्लोक सुनाये उनमें यह बात बताई गई है कि जब आदमी विषयों का ध्यान करता है - विषय माने एक ही बात नहीं, पर पांचों इंद्रियों के स्वादों का ध्यान धरता है - तो वह काम में फंसता है। फिर वह क्रोध करता है और तब उसे सम्मोह यानी दीवानापन घेर लेता है (भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 62 और 63)। ऐसे ही दीवानेपन से देहातियों ने बिहार में ऐसी बात कर डाली कि मेरा सिर झुक गया। नोआखली में भी ऐसे ही दीवानेपन में से लोगों ने ज्यादतियां कीं, पर बिहार में नोआखली से ज्यादा जंगलीपन हुआ और पंजाब में बिहार से भी ज्यादा। अगर आप लोग सच्चे हिंदू हैं, तो ऐसा नहीं करना चाहिए। कहीं कोई सभा हो रही हो और वहां कहीं जाने वाली बात हम नहीं सुनना चाहते हों तो हमें उठकर चले जाना चाहिए। चीखने-चिल्लाने की जरूरत नहीं है। फिर यह तो धर्म की बात है। धर्म-चर्चा की बात छोड़ो। यह तो प्रार्थना भी नहीं करने देना चाहता। इस तरह एक लड़के को प्रार्थना में दखल नहीं देना चाहिए। ऐसी बातों से कुछ फायदा नहीं निकल सकता।

पंजाब में जो लोग मारे गये हैं उनमें से एक भी वापस आने वाला नहीं है। अंत में तो हम सबको भी वहीं जाना है। यह ठीक है कि उनको कत्ल किया गया और वे मर गये; पर दूसरा कोई हैजे से मर जाता है या और किसी तरह से मरता है। जो पैदा होगा वह मरेगा ही, पैदा होने में तो किसी अंश में मनुष्य का हाथ है भी; पर मरने में सिवाय ईश्वर के किसी का हाथ नहीं होता। मौत किसी भी तरह टाली नहीं जा सकती। वह तो हमारी साथी है, हमारी मित्र है। अगर मरने वाले बहादुरी से मरे हैं तो उन्होंने कुछ खोया नहीं, कमाया है। लेकिन जिन लोगों ने हत्या की उनका क्या करना चाहिए, यह बड़ा सवाल है। बात ठीक है कि आदमी से भूल हो जाती है। इंसान तो भूलों की पोटली है; लेकिन हमें उन भूलों को धोना चाहिए। खुदा हमारे काम को नहीं भूलेगा। जब हम उसके यहां जायेंगे, वह हमारा हृदय देखेगा। वह हमारे हृदय को जानता है। अगर हमारा हृदय बदल गया तो सब भूलों को माफ कर देगा।

पंजाब में बहुत-से मित्र हैं, जो अपने को मेरे भक्त भी बताते हैं। पर मैं कौन हूं कि वे मेरे भक्त कहलायें। उन सब मित्रों का आग्रह है कि जब मैं दिल्ली तक आ गया हूं तो कम-से-कम रात को पंजाब भी जाऊं, जिससे वहां लोगों को कुछ तसल्ली मिले। हवाई जहाज से जाने में तो कुछ ही घंटे लगेंगे। लेकिन मैं किसी के कहने पर कैसे जाऊं? मैं तो ईश्वर के कहने पर, ईश्वर नहीं तो अपने हृदय के कहने पर ही वहां जाऊंगा। नोआखली मैं किसी के बुलाने पर नहीं गया था। मैंने यहां से जाते समय ही कहा था कि मेरा हृदय मुझे वहां आने को कह रहा है। बिहार में भी बहुत समय तक लोग मुझे बुलाते रहे; पर मैं किसी के बुलाने पर वहां नहीं गया। जब डॉक्टर महमूद साहब ने लिखा कि तुम आ जाओ, तभी हमारा दिल साफ हो सकेगा तो मै बिहार चला गया।

बिहार ऐसा सूबा है जहां हिंदू-मुसलमान एक साथ मिलकर रह सकते हैं। वहां भी औरतों-बच्चों पर कम अत्याचार नहीं हुआ। क्रोध में भरकर लोगों ने मासूम बच्चों को मार डाला और औरतों को मारकर कुओं में डाल दिया, यह मैं हवाई बातें नहीं करता ; ये सब सिद्ध हो सकने वाली बातें हैं। तब मुसलमान जरूर कहेंगे कि हम यहां नहीं रहने वाले हैं; परंतु जब उनको यह भरोसा हो जाये कि अब हमारे साथ दुबारा ऐसा बरताव नहीं होगा तो वे लौटकर आ जायेंगे। इस बात को बिहार के मुसलमान करीब-करीब समझ ही गये थे, यहां तक कि मुझे विश्वास हो गया था कि हम भरोसा दिला सकें तो आसनसोल और सिंध गये हुए मुसलमान भी वापस आ जायेंगे। उनके आने की नौबत भी आ गई थी; पर क्या अब पंजाब का बदला बिहार लेने जायें? फिर मद्रास लेगा? और यह बात कहां पहुंचेगी?

इस तरह क्या सब जंगली बन जायेंगे? कांग्रेस ने अंग्रेजों के साथ अहिंसा की लड़ाई लड़ी। अब क्या हम अपने भाइयों से हिंसा करने बैठ जायें? ठीक है कि वे अत्याचार करते हैं; पर क्या हम भी वैसा ही करें? अंग्रेजों ने कौन सा अत्याचार नहीं किया था? लेकिन अब अंग्रेज तो जा रहे हैं। वाइसराय ने मुझसे कहा कि आज तक हम लोग कहीं से नहीं हटे हैं; पर यहां से हम अहिंसा की लड़ाई की वजह से जा रहे हैं। आप शायद कहेंगे कि उनको तो जाना ही था, इसलिए ये बनावटी बातें कर रहे हैं। पर अगर कोई आदमी शराफत से हमारे पास आता है तो हम क्यों उसकी शराफत को शैतानियत बतायें।

जब तक बुरा अनुभव नहीं होता, तब तक शराफत को मान लेना ही मैंने सीखा है। क्या हम इस मौके पर, जब वे जा रहे हैं, ऐसा नजारा पेश करेंगे कि ‘आप तो जा रहे हैं, पर हमें गोरे सिपाही तो चाहिए ही।’ पंजाब में आज उन्हीं की वजह से हमारा रक्षण है। लेकिन वह क्या रक्षण है? मैं चाहता हूं कि मुट्ठी-भर आदमी रह जायें तो भी अपना रक्षण करें। मरने से न डरें। मारेंगे तो आखिर हमारे मुसलमान भाई ही मारेंगे न? क्या धर्म-परिवर्तन से भाई, भाई न रहेगा? और वे जैसा करते हैं वैसा हम नहीं करते क्या? बिहार में हमने औरतों के साथ क्या नहीं किया? हिंदुओं ने किया, यानी मैंने किया। यह शर्मिंदा होने की बात है।

क्या मैं एक गाली के बदले में दो गालियां दूं? पर ऐसी ही बातें हिंदू और मुसलमान दोनों छिप-छिपकर करते हैं और फिर ऐसा पागलपन उनके दिमाग पर सवार हो जाता है।

यह बादशाह खान मेरे पास बैठे हैं। इन्हें कौन हटा सकता है? मैंने उस लड़के के कारण कितनी प्रार्थना छोड़ दी? कारण, मैं सबको बताना चाहता हूं, सबसे कहना चाहता हूं कि मैं अच्छा पारसी हूं, अच्छा मुसलमान हूं, तभी अच्छा हिंदू भी हूं। अलग-अलग धर्मों को गालियां देना क्या धर्म हो सकता है? मेरे सामने अलग-अलग धर्म जैसा कुछ नहीं है।